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दबाव कभी न्याय नहीं कर सकता

 घृणा को त्यागें/ सिस्टम समझें-


दबाव कभी न्याय नहीं कर सकता और आज यही हो रहा है कि आज की परिस्थितिवश देश के सभी पत्रकारों को घृणा के तराजू में रखकर एकसाथ तौल दिया जाता है जोकि बहुत गलत बात है। जब वह सच लिखता है तो जाति, धर्म, राजनैतिक दल व पार्टी रूपी चश्मा लगाकर उसकी बातों को अपनी दिमागी कसौटी पर परख कर उसे गालियाँ दी जाती हैं। अगर वह सरकार की योजनाओं की तारीफ करे तो एक वर्ग सोसलमीडिया पर उसे गोदी मीडिया, सरकार के पिट्ठू कहकर सम्बोधित कर अपमानित करेगा तो दूसरा वर्ग उसे राष्ट्रहितेषी का तमगा दे रहा होता है। कल वही पत्रकार सरकारी लचर सिस्टम की पोल खोल देता है जोकि भ्रष्टाचार के विरूद्ध खबर होती है तब वही एक वर्ग उसे देशद्रोही मीडिया, विपक्ष के पिट्ठू चमचे और यहां तक कि गद्दार जैसे शब्द गोलियों से छलनी कर रहा होता है और दूसरा वर्ग उसे विपक्ष में शामिल होने का बोलकर भ्रमित मीडिया का रूप देकर उसको मानसिक तौर पर पंगु करने पर तुला रहता है।अब तो हालत यह हो गयी है कि पत्रकार और लेखक करे तो क्या करे? न यहां सच पचता है और झूठ का तो कहना ही क्या? न जाने कितने ईमानदार पत्रकारों को भयावह षड्यंत्र के तहत उन्हें आत्महत्या को मजबूर होना पड़ा, कभी हत्या को आत्महत्या कहकर सत्य पर ढ़ाई किलो असत्य उडेलकर उसे दफ़्न कर दिया गया । कभी उन्हें उनके कार्यालयों से निष्कासित कर दिया गया या यूं कहूँ कि करवा दिया गया और न जाने कितनों ने सत्य के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया पर पत्रकारों की सत्य के लिए दी गयी उनकी शहादत किसी को समझ नहीं आती।कभी-कभी तो मीडिया ही दो खेमे में बंटती नज़र आती है। बात यदि विपक्ष को जलील करने की है तब तो दिनभर न्यूज चलेगी और यदि बात सरकार की खामी दिखानी की है तो न्यूज गधे के सिर से सिंह की तरह गायब कर दी जाती है। जब मीडिया रूपी समंदर की गहराई में झांका गया तो बात यही सामने आयी कि यह भी पूर्णतः स्वतंत्र व्यवस्था नहीं है। इसपर भी अनेकों तरह के दबाव है । जिसमें सत्य खबरों का सबसे बडा अवरोधक है सरकारी विज्ञापन और अन्य विज्ञापनों से मिलने वाला धन जिससे तय होती है सभी की सैलरी। अब वहां यह नहीं देखा जाता कि विज्ञापन किस पार्टी ने दिया या किस धर्म के व्यक्ति ने दिया। दूसरा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए टीआरपी कमाना। मीडिया समंदर को और ज्यादा मथा गया, जब झकझोरा गया तो यही बात बाहर निकल के आती है कि जिस व्यवस्था में चाहे वो न्यायपालिका ही क्यों न हो,, जहां से उसे सैलरी मिलती है प्राकृतिक व ऑटौमेटिक वो उसके विरूद्ध नहीं जा पाता। अब इसे मजबूरी कहना ही उचित होगा। जब एक पत्रकार अपनी ड्यूटी कर रहा है तो सिर्फ़ उसे ही गाली देना कहां तक ज़ायज है । जबकि हम आप जानते हैं कि पूरा सिस्टम ही इस तरह का है । आप ध्यान से देखो! न्यायपालिका जिसे न्याय का मंदिर कहते हैं वहां पर कुछ जज मिलकर जिसे कोलेजियम सिस्टम कहते हैं.. एक जज तय कर लेते हैं और किसी परिवार विशेष के ही लोग जज यानि न्यायाधीश बनते रहते हैं। अब ऐसे सिस्टम में आम आदमी कैसे बने न्यायाधीश? चलो भविष्य में शायद नया सिस्टम आये और कोई आम जन न्यायाधीश बन भी जाये जिसके खानदान में कोई न्यायाधीश नहीं हुआ हो । वह भी न्यायाधीश बनकर सैलरी कहां से प्राप्त करेगा, भारत सरकार से ही न... । पर आप अब विचार कीजिए कि क्या वह सरकार की कोई भी बड़ी कमी को पूरी शक्ति से उसपर स्वत:संज्ञान लेने की मजबूत इच्छाशक्ति जगा पायेगा? मैं तो कहती हूँ कि जबतक देश में शिक्षा, स्वास्थ्य, अदालत - वकालत - न्यायपालिका पूरी तरह स्वतंत्र नहीं हो जाती, ये राजनैतिक दबाव के बीच हमेशा झूलती ही रहेगीं। साथियों! बात घूमकर वहीं आती है जहां से जिसे रोजगार- सैलरी भोजन- पानी- मिलता है उसका, उस व्यक्ति पर कठोर होना भी बहुत कठिन परिस्थितियों में से एक होना सिद्ध करती है । बस यही सब बातें सिस्टम के अंतर्गत आती हैं और जो व्यक्ति इस सिस्टम का विरोध कर सच लिखने और सच बोलने की हिम्मत करता है और लेता है कोई मजबूत कदम तो उसके साथ भयानक षड्यंत्र रचे जाते हैं जिसमें उदाहरणार्थ - राष्ट्रनायक नेताजी श्री सुभाषचंद्र बोस जी की तरह सम्मान के बदले  भेंट में मिलती भी है तो सिर्फ़ 'गुमनामी' । इसलिए जब तक भ्रष्टाचार रूपी गंदगी और हैवानियत को जन्म देने वाली गंदी राजनीतिक मानसिकता से यह देश- स्वतंत्र, आजाद, मुक्त, और स्वाधीन नहीं हो जाता तब यह असमानतारूपी रोष जारी रहेगा। अंत, में हम हमारे महान भारतवर्ष के सभी पत्रकारों को इस भयानक कोरोना काल में उनके द्वारा दी जा रहीं अमूल्य सेवा योगदान रूपी उनकी दिलेरी और जुनून के लिए सच की दस्तक परिवार की तरफ से दिल से सैल्यूट करतीं हूँ।

🙏सत्यमेव जयते🗞️राष्ट्रहित सर्वोपरि💐

__ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना, न्यूज ऐडीटर सच की दस्तक
Sachkidastak@gmail.com









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