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पाण्डवों ने यहां किया था पितरों का श्राद्ध


आदरणीय साथियों! क्या आपको पता है कि भगवान श्रीकृष्ण के कहने पर पाण्डवों ने अपने पितरों का श्राद्ध किस दिव्य स्थान पर किया था? और यह स्थान 'गया' से भी ज्यादा पावरफुल बताया गया है। जो लोग अपने पूर्वजों के मोक्ष की कामना से 'गया' जाकर पिण्ड दान, तर्पण आदि अंतिम विधि-विधान करते हैं, उनको भी एक बार इस स्थान पर आने का विधान बताया गया है। प्राचीन धर्म ग्रंथों के अनुसार अगर किसी व्यक्ति की अकाल मृत्यु हो जाती है और उसके परिवारजनों को वह व्यक्ति बार-बार स्वप्न में दिखता हो तो उस परिवार को इस स्थान पर जरूर आना चाहिए क्योंकि भगवान श्री कृष्ण जी के अनुसार इस स्थान पर जो मां सरस्वती नदी बहती हैं उनके आशीर्वाद से हर आत्मा मोक्ष को प्राप्त होती है।

इस लेख में आप भगवान श्री कृष्ण जी द्वारा सुझाये गये उस दिव्य स्थान के बारे में जानेगें और साथ ही पितरों के क्षेत्रानुसार भिन्न-भिन्न चिन्ह पूजन जानकारी को भी पढ़ सकेगें.... तो जुड़े रहियेगा अपनी प्राचीन, विराट गौरवमयी संस्कृति से और पढ़ते रहिये आपकी अपनी सच की दस्तक
           धन्यवाद 🙏

पितरों की रहस्मयी दुनिया

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_आकांक्षा सक्सेना, न्यूज ऐडीटर 


साथियों! आपने प्रतिवर्ष पितृपक्ष में ब्राह्मण भोज सुना होगा, पितृदोष शब्द भी सुना होगा।उत्तर प्रदेश में आपने खेतों या सड़क के किनारे छोटे से कुछ चौकोर आकार में ईंटें लगाकर पक्के और कच्चे थान देखें होगें। जिनपर ग्रामीण लोग प्रसादी चढ़ाकर प्राकृतिक आपदाओं से अपने खेत-खलिहान की रक्षा हेतु पूजा प्रार्थना करते हैं। यूपी में चौकोर छोटे चबूतरे के आकार में थान मिलते हैं और वहीं राजस्थान में पत्थर पर आकृति उकेरे हुए । तथा कुरूक्षेत्र में झोपड़ी की तरह दो ईंटें जोड़कर हाथ जोड़ आकृति के थान मिला करते हैं। यह अपने प्रत्येक राज्य के अपने पितृ प्रतीक चिन्ह हैं। 


पितरों के प्रतीक चिह्न : पालिया

स्थानीय के कथनानुसार यह पितृ प्रतीक चिन्ह जिसे वह पालिया कहते हैं। उन्होंने बताया कि अप्राकृतिक मौत के बाद यह माना  जाता है कि उस आत्मा का मोक्ष नही होता और उसके परिजन उसकी प्रतिमा बना कर खेत या कुए पर चबूतरे बना कर स्थापित की जाती हैं जिससे उस व्यक्ति की मुक्ति हो सके। 

इसी क्रम में जब हमने गुजरातियों से बात की तो उन्होंने बताया कि हमारे गुजरात में तो इसे थान न कहकर पाळीया अथवा खांभी कहते है जिन का स्थान तो हर देश प्रदेश में विभिन्न स्थलों पर विभिन्न नामों से मिलता है। उन्होंने कहा कि देख रीयो जन दोई की लीखी लीखावट है सामने पण पढे़ सो पंडित होई । 

इसी तरह झाबुआ म. प्र. के लोगों ने बताया कि 
झाबुआ एवं अलीराजपुर में थान की जगह 'गाता' बनाए जाते है जो अधोगति और असामयिक मृत्यु होने पर बनाते है ।इसे स्थापित करते समय स्वजन बंधु बुलाते है बहुत पुराने समय में बलि और मदिरा चढ़ाने का भी प्रावधान था पर अब नहीं। राजस्थान बाड़मेर, मध्यप्रदेश आदी, आदिवासी क्षेत्र के लोगों ने बताया कि यह प्रथा हम लोगों में भी मिलती है।पितरों की याद में लगाये गये पत्थरों को आप अगर ध्यान से देखें तो एक और विशेषता होती है जिस तरह  स्थान के साथ नाम जुड़े है।यहाँ पर व्यक्ति की मृत्यु कैसे हुई, इसका अंकन पत्थर पर चित्र उकेरकर करते है,जैसे गाड़ी से दुर्घटना हुई तो गाड़ी के साथ व्यक्ति का चित्र अंकित होता है। हर घटना का साक्षी बनते है ये पूजनीय पत्थर। जिन्हें हम पितर मानकर पूजा करते हैं और उनकी मोक्ष की कामना करते हैं। 

सच तो यह है कि हमारी सनातन संस्कृति में पितरों को जल देने, ब्राह्मण भोज खिलाने, कौओं भोज की परम्परा है जो हमें हमारे पूर्वजों के प्रति अपनी कर्तव्यनिष्ठा को उनकी यादों से जोड़े रखती है और उनके द्वारा किये गये महान कार्यों से नवीन पीढ़ियों को पूरे मान सम्मान के साथ अवगत कराने की यह अनूठी रीति है, अद्भुत परम्परा है। गौरतलब है कि 
पितृों की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के ये लोक उपक्रम स्तुत्य हैं। हर परिवेश के अपने अपने तौर - तरीके, रिवाज़ - परंपराएं अनूठी हैं। जेम्स टॉड की रिसर्च बुक्स के हिंदी अनुवाद में भी  मालवांचल में भी पत्थर गाड़ने और नियमित उनकी पूजा की रीति का वर्णन है। उन्होंने पितर चिन्हों को अपनी किताब के माध्यम की सार्थकता को द्विगुणित किया है। जिससे वह निसंदेह साधुवाद के हक़दार हैं। कुछ लोग यह भी प्रश्न उठाते हैं कि आखिर! पितृ चिन्ह पत्थरों के ही क्यों बनाये जाते हैं । आप गौ गोबर, नदियों की पवित्र काली मिट्टी का क्यों नहीं बनाते? तो इसका एक सटीक जवाब यह है कि परिवार विशेष के दिवंगत, पितर होकर पाषाणमय हो जाते हैं। खासकर वे जिनकी प्राकृतिक तरीके से मृत्यु न हुई हो यानि अकाल, उनकी स्मृति को पाषाण की लेखा या रेखा ही बचा सकती है। और, यह मान्यता मानव समुदाय के साथ उस काल से जुड़ी है जबकि वह यादों को सहेजने का ज्ञान समझने लगा था। इसी दौर में वह स्वाद के लिए पेड़, कृषि और उसके उत्पादों को चिन्हित करने लगा था। 

पितरों को महत्व देना पारिवारिक संबंधों को प्रगाढ़ बनाना और उनको अपने हृदयासन में अमर/ चिरायु रखने का भाव है, यह पूरी दुनिया में है और यही बाद में जनजातीय विशेषता भी समझी गई। और, उन्हीं से अन्य समुदायों ने भी स्वीकार किया। ( कला की काल कथा : श्री कृष्ण, पश्चिम भारत की यात्रा : जेम्स टॉड)

यों तो पाहन या पत्थर से बने होने से ये चिह्न पाहनिया या पाल्या या पालिया कहे जाते हैं। जहां पर स्थापित होते हैं, उनके आधार पर भी इनके नाम होते हैं। प्रायः खेत और खेत की पाली, तालाब, महल, मार्ग स्थान और श्मशान पर स्थापित होते हैं वहां इन्हें मसान बाबा भी कहकर पूजा जाता है जो परिवार की अकाल मौत से रक्षा कर सकें, इससे पहले उनका उद्धार हो। इसी कारण इनके नाम भी होते हैं। यथा :

१. खेत पर लगे पितृ, देव चिह्न : खेतला 
२. पाल या पाली पर लगे : पालिया
३. ताल पर लगे हुए : तालिया
४. महलों पर लगे : मालिया
५. श्मशान पर लगे हुए : मसानिया।

यही हैं साथियों! स्मृतियों की स्मृतियां।पितृ यानि पूर्वजों की पूजा के अनेक तौर तरीके हैं, जैसा घर और समुदाय, वैसा ही उसका पितर, पूर्वज। कार्तिक पूनम और उससे पहले चतुर्दशी को पितरों के नाम जागरण होते हैं। पालियों को स्नान करवाया जाता है, घी का लेपन किया जाता है। इससे पाषाण घिया होता है और घिया होकर दिया ! कुछ औघड़ बताते हैं कि राम और कृष्ण भी हम हिन्दुओं के पितर ही हैं । हमें उनकी पूजा करने से पितृदोष नहीं लगता और हमारा भी उद्धार होता है। जब हम किसी के पितरों के लिए मोक्ष की कामना करते हैं चाहे हरिद्वार में पिंडदान करके, या केदारनाथ, बद्रीनाथ में पिंडदान करके या हरिद्वार में मंशा देवी के सामने नाग जोड़ी चढ़ाकर अगर पितृ नाग विष से मरा है तो मंशा देवी, हरिद्वार में जाकर विधिवत पूजा करने से पितृदोष का निवारण होता है और हम सब पितृ ऋण से भी मुक्ति होते हैं। बता दें कि देश में एक ऐसा स्थान है जिसे पितरों की दुनिया के नाम से जाना जाता है। जोकि कुरुक्षेत्र के प्रसिद्ध सन्निहित सरोवर के किनारे कुंवारे पूर्वजों (भौरखों) की दुनिया। देश में संभवत: अपनी तरह का यह इकलौता अद्भुत स्थान है। पितृ पक्ष व त्योहारों पर यहां दीपक-ज्योत जलाने वालों की भीड़ रहती है। शादी में लोग इनसे आशीर्वाद भी लेते हैं। ग्रामीण बताते हैं कि जब किसी घर में कोई कुंवारा ही मर जाता है तो उसकी आत्मा को घर से दूर रखने के लिए खेत या कहीं बाहर पितर का थान बनाने की हरियाणा में परंपरा बरसों से चली आ रही है। कुरुक्षेत्र एरिया में रहने वाले लोगों ने ऐसे पितर थान सन्निहित सरोवर तीर्थ के घाट पर बना रखे थे। देखने से यह पितृलोक जैसा नज़ारा लगता है या ये कहें कि यह पितरों की अद्भुत रहस्यमयी दुनिया लगती है। क्योंकि ये थान यहां दशकों पहले से बनते आ रहे हैं। लेकिन यह जगह कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड (केडीबी) की है और अब यह दुनिया हटाने की कवायद शुरू है। बता दें कि सन्निहित सरोवर के पूर्वी घाट पर कई दशक से भौरखों, पितरों व सतियों के निमित्त छोटे-छोटे अनगिनत थान बने हैं। कुछ लोगों को कहना है कि इनमें से कुछ तो आजादी के पहले के भी हैं। ये स्थान उन लोगों ने बनाए, जो कभी दूसरे जिलों, गांवों से आकर शहर में बसे हैं। त्योहारों, शादी विवाह जैसे खुशी के मौकों पर पितर पूजन की परंपरा है। इसके लिए लोगों को पैतृक गांव में पितरों के स्थान पर जाना पड़ता था। ऐसे में कुछ लोगों ने सन्निहित किनारे खाली पड़ी जगह पर पितरों के निमित्त थान बना दिए। ब्राह्मण एवं तीर्थोंद्वार सभा के प्रधान पवन शर्मा पौनी कहते हैं कि पहले कुछ ही लोगों ने थान बनाए था। अब यहां पैर रखने तक की जगह नहीं है पर शासन प्रशासन ने सौन्दर्यीकरण के नाम पर इन को हटाकर कहीं और ले जाने का अल्टीमेटम देकर यहां तोड़फोड़ की है जिससे लोगों की भावनाएं आहत हैं। इस जगह का इतना महत्व इसलिये भी है कि 
क्योंकि इसे पिहोवा (पृथुदक) तीर्थ की उपाधि मिल चुकी है। गौरतलब है कि महाभारत युद्ध भूमि कुरुक्षेत्र के पास बसी एक ऐसी नगरी जहां से पितरों को मुक्ति मिलती है। माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण, युधिष्ठिर और अन्य पांडवों ने महाभारत के युद्ध के बाद अपने सगे संबंधियों और जो युद्ध में मारे गए थे उनका श्राद्ध और पिंडदान पिहोवा (पृथुदक) तीर्थ में करवाए गए थे। क्योंकि यह देव भूमि युग युगांतरों से मृत आत्माओं की सद्गति एवं शांति के लिए शास्त्रों व पुराणों में वर्णित रही है। आज भी हजारों यात्री दूर-दूर से श्राद्ध पक्ष में अपने पितरों की तृप्ति के लिए इस तीर्थ पर श्राद्ध करने आते हैं। पृथुदक तीर्थ पर करीब 250 तीर्थ पुरोहित हैं जिनके पास करीब 200 साल पुरानी वंशावली उपलब्ध है। अपने पितरों के पिंडदान के लिए कई बड़ी हस्तियां पिहोवा तीर्थ पर पहुंच चुकी हैं। इनमें गुरुनानक देव जी के वंशज, गुरुगोबिंद सिंह जी के वंशज, गुरु अमरदास जी के वंशज, गुरु तेग बहादूर, गुरु हरगोबिंद, महाराजा रणजीत सिंह, पटियाला के महाराजा के वंशज, हिमाचल से नूरपुर महाराजा के वंशज, स्वामी ज्ञानानंद की वंशावली सहित फिल्मी हस्तियां सुनील दत्त आदि शामिल हैं।हरियाणा साधू समाज के प्रदेशाध्यक्ष एवं श्री दक्षिणा कालीपीठ के महंत बंसी पुरी ने श्राद्ध के महत्व के बारे में बताया कि देश, काल तथा पात्र में श्रद्धा द्वारा जो भोजन व दान ब्राह्मणों को दिया जाए, उसे ही श्राद्ध कहा जाता है। वैसे तो श्राद्ध किसी भी स्थान पर श्रद्धा के अनुसार किया जा सकता है। परंतु किसी तीर्थ विशेष पर श्राद्ध का फल अधिक पुण्यदायी व कल्याणकारी है। अश्विन मास में प्रतिवर्ष कृष्ण पक्ष को श्राद्ध मनाए जाते हैं। इस अवधि में प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक श्राद्ध मनाए जाते हैं।आगें कहते हैं कि यदि कोई श्रद्धालु पिहोवा पिंडदान किए बिना 'गया' तीर्थ चला जाता है तो उसे वहां भी पहले पृथुदक बेदी की पूजा करनी पड़ती है, गया से पहले यहां आना चाहिए। हिंदू धर्मग्रंथों में कहा गया है कि जो स्वजन अपने शरीर को छोड़कर चले गए हैं चाहे वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, उनकी तृप्ति और उन्नति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध है। माना जाता है कि सावन की पूर्णिमा से ही पितर मृत्यु लोक में आ जाते हैं और नवांकुरित कुशा की नोकों पर विराजमान हो जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितृ पक्ष में हम जो भी पितरों के नाम का निकालते हैं, उसे वे सूक्ष्म रूप में आकर ग्रहण करते हैं। केवल तीन पीढ़ियों का श्राद्ध और पिंड दान करने का ही विधान है।पुराणों के अनुसार मुताबिक मृत्यु के देवता यमराज श्राद्ध पक्ष में जीव को मुक्त कर देते हैं, ताकि वे स्वजनों के यहां जाकर तर्पण ग्रहण कर सकें। श्राद्ध पक्ष में मांसाहार पूरी तरह वर्जित माना गया है। श्राद्ध पक्ष का माहात्म्य उत्तर व उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है। तमिलनाडु में आदि  अमावसाई, केरल में करिकडा,वावुबली और महाराष्ट्र में इसे पितृ पंधरवडा नाम से जानते हैं। श्राद्ध स्त्री या पुरुष, कोई भी कर सकता है। श्रद्धा से कराया गया भोजन और पवित्रता से जल का तर्पण ही श्राद्ध का आधार है। ज्यादातर लोग अपने घरों में ही तर्पण करते हैं।श्राद्ध का अनुष्ठान करते समय दिवंगत प्राणी का नाम और उसके गोत्र का उच्चारण किया जाता है। हाथों में कुश की पैंती (उंगली में पहनने के लिए कुश का अंगूठी जैसा आकार बनाना) डालकर काले तिल से मिले हुए जल से पितरों को तर्पण किया जाता है। मान्यता है कि एक तिल का दान बत्तीस सेर स्वर्ण तिलों के बराबर है। परिवार का उत्तराधिकारी या ज्येष्ठ पुत्र ही श्राद्ध करता है। जिसके घर में कोई पुरुष न हो, वहां स्त्रियां ही इस रिवाज को निभाती हैं। परिवार का अंतिम पुरुष सदस्य अपना श्राद्ध जीते जी करने के लिए स्वतंत्र माना गया है। संन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवन में कर ही लेते हैं।पितृ पूजन की पुराणों में महिमा गायी गयी है। जिसमें मत्स्य पुराण, यमस्मृति, भविष्य पुराण, ब्रह्म पुराण, आदित्य पुराण, कर्म पुराण, गरुड पुराण, स्कंद पुराण आदि में विस्तार से की गई है। इसके अतिरिक्त बृहस्पति, महर्षि जाबालि, महर्षि काठणरजिनी तथा महर्षि सुमंतु ने भी श्राद्ध की अपार महत्ता का वर्णन किया है। परंतु सभी का निष्कर्ष निकालने पर श्राद्ध निम्‍नलिखित 12 प्रकार के माने गए हैं:- नित्य श्राद्ध, नैमितिकश्राद्ध, वृद्धि श्राद्ध, काम्‍य श्राद्ध, सपिंडन श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, गोष्ठी श्राद्ध, शुद्धार्थ श्राद्ध, कर्माग श्राद्ध, दैविक श्राद्ध, यायार्थ श्राद्ध तथा पुष्टार्थ श्राद्ध।श्राद्ध पक्ष में शुभ कार्य, श्रंगार आदि का नया सामान लेना जैसे कार्य वर्जित माने गए हैं। श्राद्ध का समय दोपहर साढे़ बारह बजे से एक बजे के बीच उपयुक्त माना गया है। यात्रा में जा रहे व्यक्ति, रोगी या निर्धन व्यक्ति को कच्चे अन्न से श्राद्ध करने का आदेश किया गया है। कुछ लोग कौओं, कुत्तों और गायों के लिए भी अंश निकालते हैं। कहते हैं कि ये सभी जीव यम के काफी नजदीकी हैं और गाय जीवन रूपी वैतरणी पार कराने में सहायक है। इसलिए सनातन संस्कृति में गौ पूजन को सर्वश्रेष्ठ माना गया है, मुक्ति का द्वार माना गया है। आगें हम यही कहेगें कि सच की दस्तक का उद्देश्य अंधविश्वास दिखाना व लिखना नहीं है वरन् हर उस प्राचीन परम्परा और उससे जुड़े प्राचीन इतिहास को आपके बीच रखना है । क्योंकि दुनिया का शायद ही कोई धर्म या व्यक्ति होगा जो पूर्वजों के सम्मान की बात न कहता हो। 









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