18 जून वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई बलिदान दिवस पर विशेष -
अनुकरणीय है महारानी लक्ष्मी बाई का व्यक्तित्व -
साभार-गूगल
[जिसने मात्र 23 वर्ष की आयु में विश्व को बता दिया कि भारत की बेटियां भारतमाँ की लाज बचाने के लिए किसी तोफ से कम नहीं, वह थीं महारानी लक्ष्मीबाई और आप बेटियों को गर्भ में मारने जैसा ज्ञघन्य अपराध करते हो, धिक्कार है आप जैसे लोगों पर जो खुद को खुदा समझते हो]
----- ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना
भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली भारत की बेटी झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई वास्तविक अर्थ में आदर्श बेटी, पत्नी, माँ व वीरांगना थीं। वह कभी आपत्तियों से नहीं घबरायीं। उन्होंने हमेंशा कर्तव्य पालन की अनूठी मिशाल कायम की, उनका लक्ष्य सत्यवादी, उदार और उच्च था। उनका चरित्र प्रत्येक नारी के लिये अनुकरणीय है। वह अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति हेतु सदैव आत्मविश्वासी, कर्तव्य परायण, स्वाभिमानी और धर्मनिष्ठ रहीं। यह महागाथा है हमारी भारतीय वीरांगना लक्ष्मीबाई जी की जिसे पाकर भारतभूमि धन्य हो गयी और जिन्हें खोकर इतिहास रो पड़ा। उनकी यह वीरगाथा युगयुगांतर तक लिखी और गाया जाती रहेगी ।
भारत में जब भी महिलाओं के सशक्तिकरण की बात होती है तो महान वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की चर्चा जरूर होती है।रानी लक्ष्मीबाई शख्स नहीं शख्ब्सियत थीं। आज वह हर भारतीय की आदर्श हैं। देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली रानी लक्ष्मीबाई के अप्रतिम शौर्य से चकित अंग्रेजों ने भी उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। वह महारानी का लोहा मान गये थे। वह जन्म से देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत थीं और विलक्षण प्रतिभाओं की खान थीं। वह अपनी अद्भुत वीरता और तेजोमय युद्ध कौशल व राष्ट्र भक्ति के जूनून से बालिका मनु एक कालजयी वीरांगना लक्ष्मीबाई बन गई। ऐसी वीरांगना से आज भी राष्ट्र गर्वित एवं पुलकित है। उनकी देश भक्ति की ज्वाला को काल भी बुझा नहीं सका और भारतीय इतिहास में वह अमर हो गयीं। रानी लक्ष्मीबाई के जीवन संघर्ष को शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। उनकों शब्दों के माध्यम से याद करने का यह छोटा सा प्रयासभर है.........
महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी में 19 नवंबर 1835 को हुआ। इनके पिता मोरोपंत ताम्बे चिकनाजी अप्पा के आश्रित थे। इनकी माता का नाम भागीरथी बाई था। महारानी के पितामह बलवंत राव के बाजीराव पेशवा की सेना में सेनानायक होने के कारण मोरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रहने लगी। लक्ष्मीबाई अपने बाल्यकाल में मनुबाई के नाम से जानी जाती थीं।
इधर सन् 1838 में गंगाधर राव को झांसी का राजा घोषित किया गया। वे विधुर थे। सन् 1850 में मनुबाई से उनका विवाह हुआ। सन् 1851 में उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। झांसी के कोने-कोने में आनंद की लहर प्रवाहित हुई, लेकिन चार माह पश्चात उस बालक का निधन हो गया।सारी झांसी शोक सागर में निमग्न हो गई। राजा गंगाधर राव को तो इतना गहरा धक्का पहुंचा कि वे फिर स्वस्थ न हो सके और 21 नवंबर 1853 को चल बसे।यद्यपि महाराजा का निधन महारानी के लिए असहनीय था, लेकिन फिर भी वे घबराई नहीं, उन्होंने विवेक नहीं खोया। राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंगरेजी सरकार को सूचना दे दी थी। परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया।
27 फरवरी 1854 को लार्ड डलहौजी ने गोद की नीति के अंतर्गत दत्तकपुत्र दामोदर राव की गोद अस्वीकृत कर दी और झांसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। पोलेटिकल एजेंट की सूचना पाते ही रानी के मुख से यह वाक्य प्रस्फुटित हो गया, 'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी'। 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंग्रेजों का अधिकार हुआ। झांसी की रानी ने पेंशन अस्वीकृत कर दी व नगर के राजमहल में निवास करने लगीं। यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता की चिंगारी भडंक उठी। अंगरेजों की राज्य लिप्सा की नीति से उत्तरी भारत के नवाब और राजे-महाराजे क्रोधित व असंतुष्ट हो गए और सभी में विद्रोह की आग धधक उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने इसको स्वर्णावसर माना तथा अंगरेजों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, स्वयं मुगल सम्राट बहादुर शाह, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह और तात्या टोपे आदि सभी महारानी के इस कार्य में सहयोग देने का प्रयत्न करने लगे। यह देख पूरे देश में क्रांति की लौ और भी तेज होती गयी। अब पूरे देश में सुसंगठित और सुदृढ रूप से क्रांति को कार्यान्वित करने की तिथि 31 मई 1857 निश्चित की गई, लेकिन इससे पूर्व ही क्रांति की लौ ने ज्वाला का रूप धारण कर लिया और 7 मई 1857 को मेरठ में तथा 4 जून 1857 को कानपुर में, भीषण विप्लव हो गए। कानपुर तो 28 जून 1857 को पूर्ण स्वतंत्र हो गया। अंग्रेजों के कमांडर ह्यूरोज ने अपनी सेना को सुसंगठित कर विद्रोह दबाने का प्रयत्न किया।उन्होंने सागर, गढ़कोटा, शाहगढ़, मदनपुर, मडखेड़ा, वानपुर और तालबेहट पर अधिकार कियाऔर नृशंसतापूर्ण अत्याचार किए। फिर झांसी की ओर अपना कदम बढ़ाया और अपना मोर्चा कैमासन पहाड़ी के मैदान में पूर्व और दक्षिण के मध्य लगा लिया। लक्ष्मीबाई पहले से ही सतर्क थीं और वानपुर के राजा मर्दनसिंह से भी इस युद्ध की सूचना तथा उनके आगमन की सूचना प्राप्त हो चुकी थी। 23 मार्च 1858 को झांसी का ऐतिहासिक युद्ध आरंभ हुआ। कुशल तोपची गुलाम गौस खां ने झांसी की रानी के आदेशानुसार तोपों के लक्ष्य साधकर ऐसे गोले फेंके कि पहली बार में ही अंग्रेजी सेना के छक्के छूट गए। रानी लक्ष्मीबाई ने सात दिन तक वीरतापूर्वक झांसी की सुरक्षा की और अपनी छोटी-सी सशस्त्र सेना से अंग्रेजों का बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया। रानी ने खुलेरूप से शत्रु का सामना किया और युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया। वे अकेले ही अपनी पीठ के पीछे दामोदर राव को कसकर घोड़े पर सवार हो गयीं और अंग्रेजों से युद्ध करती रहीं। बहुत दिन तक युद्ध का क्रम इस प्रकार चलना उचित न था। अत:, सरदारों का आग्रह मानकर रानी ने कालपी प्रस्थान किया। वहां जाकर वे शांत नहीं बैठीं।उन्होंने नाना साहब और उनके योग्य सेनापति तात्या टोपे से संपर्क स्थापित किया और विचार-विमर्श किया। रानी की वीरता और साहस का लोहा अंग्रेज मान गए, लेकिन फिर भी उन्होंने रानी का बहुत पीछा किया। इस बीच रानी का घोड़ा बुरी तरह घायल हो चुका था और अंत में वीरगति को प्राप्त हुआ, लेकिन रानी ने धैर्य नहीं त्यागा और अदम्य साहस व शौर्य का परिचय दिया, जिसे इतिहास में कभी भुलाया नहीं जा सकता।
बाद में कालपी में महारानी और तात्या टोपे ने योजना बनाई और अंत में नाना साहब, शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह आदि सभी ने रानी का पूरा सहयोग किया। रानी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और वहां के किले पर अधिकार कर लिया। लोग विजयोल्लास मनाने में मगन हो गये लेकिन रानी इसके विरुद्ध थीं कारण यह समय खुशी मनाने का नहीं था बल्कि अपनी शक्ति को सुसंगठित कर अगला व मजबूत कदम बढ़ाने का था।इधर सेनापति सर ह्यूरोज अपनी सेना के साथ संपूर्ण शक्ति से रानी का पीछा करता रहा और आखिरकार वह दिन भी आ गया जब उसने ग्वालियर का किला अपनी चालों व युद्ध नीति से अपने कब्जे में ले लिया। रानी लक्ष्मीबाई इस युद्ध में भी अपनी कुशलता का परिचय देती रहीं। फिर, 18 जून 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ और रानी ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया। वे घायल हो गईं और अंततः उन्होंने वीरगति प्राप्त की।रानी लक्ष्मीबाई ने स्वातंत्र्य युद्ध में अपने जीवन की अंतिम आहूति देकर देशवासियों को चेतना प्रदान की और स्वतंत्रता के लिए बलिदान का संदेश दिया। पर, कहते हैं न अच्छाई और सच्चाई कभी नही मरती व अजर अमर है। ठीक उसी तरह हमारी सभी की आदर्श महारानी या यूं कहें मर्दानी, वीरांगना लक्ष्मीबाई जी हर भारतीय के दिलों में आज भी अजर अमर अमिट हैं और उनकी शोर्यगाथा युगयुगांतर लिखी, गायी न सुनायी जाती रहेगी।
आज लोग गर्भ में ही बेटियों की हत्या कर देते हैं। उनको वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई जी के जीवन से सीख लेनी चाहिए कि महारानी ने बहुत कम उम्र मात्र 23 वर्ष में स्वंय को साबित कर दिया था। वह बेहतरीन बेटी, महारानी, पत्नी व माँ तथा कुशल प्रशासक, योग्य सेनापति सिद्ध हुईं। वह स्वंय की तरह हर भारतीय बेटी को सशक्त होते देखना चाहतीं थीं। जिस कारण उन्होंने अपनी सेना में महिलाओं की भर्ती की थी।
आज कुछ लोग जो खुद को महिला सशक्तिकरण की खोखली बातें करते हैं। वह भी स्त्रियों को सेना आदि में भेजने के खिलाफ हैं पर इन सब के लिए रानी लक्ष्मीबाई जी एक अनुपम व अनुकरणीय उदाहरण हैं कि अगर महिलाएं चाहें तो भूगोल बदल सकती है और नवीन इतिहास लिख सकती हैं व भारत की तकदीर व तश्वीर बदलने का माद्दा रखतीं हैं बस चाहिए तो आपका उनपर यकीन।
---ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना
18 जून महारानी लक्ष्मीबाई जी के बलिदान दिवस पर विशेष – http://www.bbclive.in/?p=1962
ON 18TH JUNE, ON THE SACRIFICE DAY OF MAHARANI LAXMIBAI JI – http://www.bbclive.in/?p=1966
http://indiainside.org/post.php?id=2985 अनुकरणीय है महारानी लक्ष्मी बाई का व्यक्तित्व
✍🏼...आकांक्षा सक्सेना
अनुकरणीय है महारानी लक्ष्मी बाई का व्यक्तित्व, ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना
http://pradeshajjtak.com/?p=10416
18 जून वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई बलिदान दिवस पर विशेष -
Reviewed by Akanksha Saxena
on
June 16, 2018
Rating: 5
Reviewed by Akanksha Saxena
on
June 16, 2018
Rating: 5
































No comments