'सवर्ग' 10% आरक्षण या एक चुनावी दवा - Reservation of 10% Reservation to Classes Or an electoral drug -
कवर स्टोरी -
सवर्ण को सम्मान 10% आरक्षण
या एक चुनावी दवा -
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- ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना
न्यूज ऐडीटर सच की दस्तक
जब भी आरक्षण के नाम पर वाद-विवाद हावी होता है तो वह दिन याद आता है जो कि 24 सितंबर 1932 को पुणे की यरवदा जेल में महात्मा गाँधी और भीमराव अम्बेडकर के बीच एक अभूतपूर्व समझौता हुआ था।इस समझौते को भारत में आरक्षण व्यवस्था की पहली सीढ़ी के तौर पर याद किया जाता है क्योंकि यहीं से पहली बार भारत में किसी विशेष वर्ग को जाति के आधार पर कुछ विशेषाधिकार दिए गए थे। साफ कहें तो इस समझौते के साथ ही देश में आरक्षण व्यवस्था की शुरुआत हो गयी थी।
जिसके तहत भारत के विधानमंडलो में दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए अलग से सीटें आरक्षित करने और मतदाताओं को दोहरे मताधिकार देने का प्रस्ताव रखा था। इस नियम के तहत सभी पिछड़े वर्गों के लोगों के लिए सामान्य उम्मीदवारों के साथ-साथ अलग से भी सीटों के आरक्षण का प्रावधान रखा गया था।
भीमराव अम्बेडकर अंग्रेज़ों के इस प्रस्ताव के समर्थन में थे लेकिन गांधी जी ने इसे विघटनकारी और भेदभावपूर्ण प्रस्ताव कह कर कड़ा विरोध किया। गांधी जी जानते थे कि यह नियम हिंदू समाज को टुकड़ों में बाँट देगा और उन्होंने पुरज़ोर तरीक़े से यह दलील सबके सामने रखी। जब ब्रिटिश सरकार ने गांधीजी की दलीलों को नहीं माना तो गांधीजी 20 सितंबर से इस प्रस्ताव के विरोध में आमरण अनशन पर बैठ गए ।
जब गांधी जी की तबियत बिगड़ने लगी तो गांधी जी और अम्बेडकर के बीच पुणे की यरवदा जेल में ही एक समझौता हुआ जिसे ‘पूना पैक्ट’ के नाम से जाना जाता है और इस समझौते के तहत सभी पिछड़े वर्गों को दोहरे अधिकार देने के बजाय उनके लिए सामान्य मत प्रणाली में ही सीटें बढ़ाकर आरक्षित कर दी गयी। हालाँकि पूना समझौता मूल प्रस्ताव से भिन्न था लेकिन यही समझौता भारत में आरक्षण प्रणाली का जनक माना गया।
यहाँ से शुरू हुआ आरक्षण का यह सिस्टम कुछ बदलावों के साथ आज भी धडल्ले से चला आ रहा है। जब भारत का संविधान लिखा गया तब भी भारत में आरक्षण को केवल शुरुआती 10 सालों के लिए रखा गया था लेकिन आने वाली सभी सरकारों ने इसे अपने राजनैतिक फ़ायदे के लिए इसे बंद ना करना ही उचित समझा और इसे अपना चुनावी ब्रह्मास्त्र बना लिया । समय बीतने के साथ साथ भारतीय राजनीति का स्वरूप बदलता और राजनीति धर्म और जाति में केंद्रित होती गयी ।
आयोग ने 1930 के जनसंख्या आंकड़ों के आधार पर 1,257 समुदायों को पिछड़ा घोषित करते हुए उनकी आबादी 52 प्रतिशत निर्धारित की। 1980 में कमीशन ने अपनी रिपोर्ट सौंपते हुए इसमें पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी शामिल करते हुए कोटे की मौजूदा व्यवस्था को 22 प्रतिशत से बढ़ाते हुए 49.5 प्रतिशत तक करने का सुझाव दिया। इसमें ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत का प्रावधान किया गया। 1990 में वीपी सिंह की सरकार ने इसके सुझावों को लागू किया।
इसके विरोध में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की गई। कोर्ट ने आरक्षण व्यवस्था को वैधानिक ठहराते हुए व्यवस्था दी कि आरक्षण का दायरा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। आज मौजूदा दौर में जब बीजेपी ने जनरल कैटगरी में आर्थिक रूप से कमज़ोर तबक़े के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण लागू करने की बात कही है तो इसे भी 2019 के लोक सभा चुनाव से पहले मोदी सरकार का एक बड़ा मास्टर स्ट्रोक बताया जा रहा है और हो भी क्यों न कि बीजेपी मंत्री रविशंकर प्रसाद जी ने लोकसभा में सभी के सामने कहा था कि अभी और छक्के लगने बाकी है। जाहिर है बीजेपी अपने पत्ते सही समय सही तरीके से खोलने की आदी रही है चाहे वह नोटबंदी हो या फिर सर्जिकल स्ट्राइक।
बीजेपी के इस क़दम को भी मास्टर स्ट्रोक इसीलिए कहा जा रहा है क्योंकि कोई भी दल इसका विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा कि सभी पार्टियों को सभी जातियों के वोट जो चाहिए। इसलिए हर पार्टी अपनी दबी जुबान से मोदी जी के इस सवर्ण आरक्षण बिल के साथ दिखाई देने के अतिरिक्त और कोई विकल्प ही नहीं है।
जैसे कि मंडल आयोग को उसकी घोषणा होने के कुछ सालों बाद ही लागू किया जा सका था. उसी तरह आरक्षण से जुड़े इस नए बिल को लागू करने में भी कुछ वक़्त तो ज़रूर लगेगा। पहला तो देश में सवर्णों की संख्या बहुत ज़्यादा नहीं है और दूसरा यह वर्ग पहले से ही बीजेपी का वोटर रहा है।
उत्तर भारतीय राज्यों की राजनीति में सवर्ण जातियां अहम किरदार अदा करती हैं जबकि इस बात का कोई आधिकारिक आंकड़ा अभी तक नहीं है कि अलग-अलग राज्यों में कितने प्रतिशत सवर्ण मौजूद हैं। अगर हम सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ डेवेलपिंग सोसाइटी (सीएसडीएस) के सर्वे की बात करें तो उसके अनुसार देश के अलग-अलग राज्यों में सवर्ण जातियों के लोगों की संख्या 20 से 30 प्रतिशत के बीच है। हिंदी भाषी राज्यों की बात करें तो बिहार में 18 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 22 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 25 प्रतिशत, दिल्ली में 50 प्रतिशत, झारखंड में 20 प्रतिशत, राजस्थान में 23 प्रतिशत, हरियाणा में 40 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 12 प्रतिशत सवर्ण जातियों के लोग हैं।
इसके अलावा कुछ ग़ैर हिंदी भाषी राज्यों में भी सवर्णों की संख्या ठीक समझी जाती है. जैसे, असम में 35 प्रतिशत, गुजरात में 30 प्रतिशत, कर्नाटक में 19 प्रतिशत, केरल में 30 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 30 प्रतिशत, ओडिशा में 20 प्रतिशत, तमिलनाडु में 10 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 48 प्रतिशत और पंजाब में 48 प्रतिशत है।
इसके अलावा प्रस्तावित बिल में आरक्षण के लिए जो मानक तय किए गए हैं उसका आधार इतना विस्तृत है कि उसमें सवर्ण जातियों का एक बड़ा तबक़ा समाहित हो जाएगा। अगर हम प्रस्तावित बिल के तय मानकों पर नज़र डालें तो उसके अनुसार जिस परिवार की सालाना आय 8 लाख रुपए से कम होगी, या जिनके पास 5 हेक्टेयर से कम कृषि योग्य ज़मीन होगी, या जिनके पास 1000 वर्ग फुट से कम का मकान होगा या जिनके पास नगरपालिका में शामिल 100 गज़ से कम ज़मीन होगी या नगरपालिका में ना शामिल 200 गज़ से कम ज़मीन होगी। ये तमाम लोग आर्थिक आधार पर मिलने वाले आरक्षण के योग्य होंगे।
इस तरह से सवर्ण जातियों के लगभग 85 से 90 प्रतिशत लोग इस आरक्षण को प्राप्त करने के योग्य हो जाएंगे। अब सोसलसाईट पर युवाओं की एक बड़ी संख्या सवाल उठा रही है कि स्वर्णों को आर्थिक आधार पर बाकियों को जातिगत आधार पर। यह कैसी समानता? जाति गरीब नहीं हाँ व्यक्ति विशेष हर जाति हर धर्म में गरीब है।
मात्र 10% आरक्षण वह भी नौकरियों में व शिक्षण संस्थानों में व प्राइवेट सेक्टर में। अब वह स्टूडेंट क्या करें जो कि शिक्षक पात्रता परीक्षा यूपीटैट सीटैट में एससी के लिए 75,ओबीसी के लिए 82,और जनरल के लिए 90 अंक लाना अनिवार्य है। कोई 75,82 अंक में शिक्षक बन जाये और जनरल 75,82में बाहर कर दिया जाये, तो आप गुणवत्ता की बात क्यों करतें हैं और किस बात की परीक्षा। जबकि भारत में समानता का अधिकार है, संविधान के भाग तीन में समानता के अधिकार की भावना निहित है।
इसके अंतर्गत अनुच्छेद 15 में प्रावधान है कि किसी व्यक्ति के साथ जाति, प्रजाति, लिंग, धर्म या जन्म के स्थान पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। जबकि आज चुनावी बुखार के हर महकमें में भेदभाव चरं पर है जो कि युवाओं को बेरोजगारी की लानत को झेलने को आतुर है। सविंधान के 15(4) के मुताबिक यदि राज्य को लगता है तो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लिए वह विशेष प्रावधान कर सकता है।
अनुच्छेद 16 में अवसरों की समानता की बात कही गई है। 16(4) के मुताबिक यदि राज्य को लगता है कि सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह उनके लिए पदों को आरक्षित कर सकता है। समानता की बात करें तो मोदी जी के द्वारा 10% सवर्ण या कहें सर्व आरक्षण बिल सवर्णों के क्रोध नोटा रूप पर कितनी राहत का काम करता है और वह उसे गरीबी की दवा के रूप में स्वीकारतें हैं या यह सिर्फ़ एक चुनावी दवा ही सिद्ध होता है। अब समानता की बात तो साफ है कि हमारे देश में समानता का पूरा अधिकार है पर इस अधिकार को पुरजोर तरीके से लागू करने का अधिकार सरकार पर है पर अपने अधिकारों के लिये जागना यह आपकी जिम्मेदारी है कि सरकारें आयेगीं जायेगीं पर याद रह जायेगा तो सिर्फ सत्य और न्याय।
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