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नक्सलवाद पर लगे भावे-जेपी वाली लगाम - ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना




नक्सलवाद पर लगे भावे-जेपी वाली लगाम - 
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-ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना 
न्यूज ऐडीटर सच की दस्तक 


प्राचीन भारतीय परंपरा में डाकुओं और बागियों (वाल्मीकि से लेकर अंगुलिमाल) तक के हृदय-परिवर्तन की कई प्रचीन कथाएं हम पढ़ते बड़े हुए हैं। लेकिन आधुनिक भारत ने भी ऐसा ही एक पूरा दौर देखा जिसकी मिसाल दुनिया में शायद और कहीं भी दिखाई नहीं देती। यह दौर था विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण (जेपी) के अहिंसक व्यक्तित्व और जीवन-संदेशों से प्रभावित होकर उनके सामने देश के सबसे खूंखार हथियारबंद दस्तों ने एक के बाद एक आत्मसमर्पण कर दिया था। गौरतलब है कि तकरीबन 500 डाकुओं का आत्मसमर्पण करवाने वाले जयप्रकाश नारायण ने उस दौर के सबसे खूंखार माने-जाने वाले इनामी डाकू माधोसिंह को अपने घर में भी पनाह देकर साबित कर दिया था कि डाकू भीं इंसान है और उन्हें सही मार्गदर्शन मिले तो उनमें भी आत्मसमर्पण करने की भावना, बदले हुए भविष्य की क्रांति जगाई जा सकती है। बता दें कि 19 मई, 1960 को डाकू-डकैत गिरोहों के 11 मुखियाओं ने लुक्का के नेतृत्व में विनोबा के चरणों में अपने हथियार रखते हुए लुक्का ने अश्रुपूरित आंखों से कहा था- ‘अब तक हमने बहुत से बुरे काम किए हैं। उन पर हमें दुःख हो रहा है.’ यही लुक्का आगे चलकर पंडित लोकमन के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने बाद में जेपी के साथ मिलकर कई वर्षों तक अन्य डाकुओं से आत्मसमर्पण कराने में भी अहम भूमिका निभाई। जिसमें जय प्रकाश नारायण ने तो मुसहरी प्रखंड (बिहार) में किए गए अपने प्रयोगों से यहां तक साबित कर दिया कि नक्सलियों के साथ भी अहिंसक संवाद और रचनात्मक पहल संभव है क्योंकि अंहिसा किसी समस्या का हल नहीं हो सकती। आज देश पर हावी हो चुके नक्सलवाद पर भावे - जेपी वाली लगाम लगायी जा सकती है जिससे नक्सलवाद की जड़ पर चोट की जाये केवल पत्तों पर हमला करने से क्या होगा? 


       
         इस भावे और जेपी की लगाम होने के कारण 14 - 16 अप्रैल, 1972 को कुल मिलाकर लगभग पांच सौ से ज्यादा बागियों ने जेपी को अपना भगवान समान मान कर उनकी उपस्थिति में महात्मा गांधी के चित्र के सामने अपने हथियार डालकर आत्मसमर्पण करके खुद को बदनामी के अंधेरे से निकाल कर शांति और सम्मान के उजालों का रूख किया था। इस बारे में जेपी ने कहा था, ‘12 साल पहले विनोबाजी ने जो बीज बोया था, उसी का यह पौधा निकला है।विनोबाजी ने बड़े साहस से प्रेम का एक प्रयोग किया था ...और वह साबित कर सके थे कि अपराधों के मामले में काम करने की एक मानवीय और अधिक सभ्य रीति यह भी है.’। जेपी मानते थे कि हर प्रकार की हिंसक बगावत की जड़ें बहुत गहरी होती हैं, इतिहास में, भूगोल में, मनोविज्ञान में, समाज और राज्यतंत्र की रचना में और राजनीति के चाल, चेहरे और चरित्र में दबीं होती हैं। इसलिए ऐसी समस्याओं को सुलझाने का काम किसी अकेले जयप्रकाश की शक्ति के बाहर है अगर सारा समाज सभी स्तरों पर इस समस्या का अंत करना चाहे और उसके लिए ईमानदारी से प्रयास करे, तो ही कुछ हो सकता है।



आज आत्मसमर्पण के सरकारी प्रयास और आयोजन बार-बार कई बार भी हुए। कश्मीर से लेकर बिहार और छत्तीसगढ़ तक में हुए पर जय प्रकाश नारायण वाली सफलता नहीं मिली क्योंकि आज के नेताओं के पास वह इच्छाशक्ति वह बदलाव की भावना नहीं बची। उन्होंने हर काम पीएम के सिर डाल रखा है, वह खुद कभी खुद से प्रयास नहीं करते कि एक पैनल बनाये जो नक्सलियों से उनकी बात सुने कि उन्होंने क्यों आतंक का रास्ता अपनाया हुआ है और वह यह भी जांचे कि आखिर! नक्सलियों पर आधुनिक हथियार आते कहां से? कौन है जो उन्हें हिंसा के लिए उकसा रहा? क्या सिर्फ़ उन्हें मारकर इस विकराल समस्या पर पुख्ता लगाम लग सकती है। यह बात किसी से छिपी नहीं कि नक्सली अपने क्षेत्र के माहिर हैं जिन्हें पता है घने जंगलों की भाषा क्या है और वह जंगलों में रहते ही नहीं उसे जीते भी है, वह छिप कर कहीं से भी वार कर सकते हैं जब हम अथक मेहनत के बाद चार नक्सली मारते हैं तब वह आसानी से हमारे 15 जवान एक साथ शहीद कर देते हैं। इससे होता यह है कि नक्सलवाद पर कोई असर नहीं पड़ता बल्कि 15 परिवार जरूर बिखर जाते हैं जिन्हें मैडल और पैसों से भरमाया नहीं जा सकता साहिब। इस नक्सलवाद नामक कैंसर और कोढ़ नामक बीमारी की फुल प्रूफ इलाज करना जरूरी है। अगर यह आत्मसमर्पण से माने तो ठीक वरना इनपर रहम करने की कोई आवश्यकता नहीं। बता दें कि आखिरकार नक्सलवाद की शुरूआत कहां से हुई - तो साथियों नक्सलवाद शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी गांव से हुई थी। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारु माजूमदार और कानू सान्याल ने 1969 में सत्ता के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन शुरु किया। माजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बड़े प्रशसंक थे। इसी कारण नक्सलवाद को ‘माओवाद’ भी कहा जाता है। 1968 में कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ मार्क्ससिज्म एंड लेनिनिज्म का गठन किया गया जिनके मुखिया दीपेन्द्र भट्टाचार्य थे। यह लोग मार्क्स और लेनिन के सिद्धांतों पर काम करने लगे, क्योंकि वे उन्हीं से ही प्रभावित थे।



       वर्ष 1969 में पहली बार चारु माजूमदार और कानू सान्याल ने भूमि अधिग्रहण को लेकर पूरे देश में सत्ता के खिलाफ एक व्यापक लड़ाई शुरू कर दी। भूमि अधिग्रहण को लेकर देश में सबसे पहले आवाज़ नक्सलवाड़ी से ही उठी थी। आंदोलनकारी नेताओं का मानना था कि ‘जमीन उसी को जो उस पर खेती करें’। नक्सलवाड़ी से शुरु हुआ इस आंदोलन का प्रभाव पहली बार तब देखा गया जब पश्चिम बंगाल से कांग्रेस को सत्ता से बाहर होना पड़ा। इस आंदोलन का ही प्रभाव था कि 1977 में पहली बार पश्चिम बंगाल में कम्यूनिस्ट पार्टी सरकार के रूप में आयी और ज्योति बसु मुख्यमंत्री बने।

सामाजिक जागृति और हक की भावना के लिए शुरु हु्ए इस आंदोलन पर कुछ सालों के बाद राजनीति का वर्चस्व बढ़ने लगा और आंदोलन जल्द ही अपने मुद्दों और राह से भटक गया। जब यह आंदोलन फैलता हुआ बिहार पहुंचा तब यह अपने मुद्दों से पूरी तरह भटक चुका था। । अब यह लड़ाई जमीनों की लड़ाई न रहकर जातीय वर्ग की लड़ाई शुरू हो चुकी थी। यहां से शुरु होता है उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग के बीच का उग्र संघर्ष जिससे नक्सल आन्दोलन ने देश में नया रूप धारण किया। श्रीराम सेना जो माओवादियों की सबसे बड़ी सेना थी, उसने उच्च वर्ग के खिलाफ़ सबसे पहले हिंसक प्रदर्शन करना शुरू किया जो आज  आतंक का पर्याय  बन चुका है वहीं सरकार, प्रशासन और सुरक्षाबलों के गले की फांस बन चुका है।  सरकार ने इस फांस को निकालने के लिए कई अभियान चलाये  

:  (1)- स्टीपेलचेस अभियान - यह अभियान वर्ष 1971 में चलाया गया। इस अभियान में भारतीय सेना तथा राज्य पुलिस ने भाग लिया था। अभियान के दौरान लगभग 20,000 नक्सली मारे गए थे। (2)ग्रीनहंट अभियान-यह अभियान वर्ष 2009 में चलाया गया। नक्सल विरोधी अभियान को यह नाम मीडिया द्वारा प्रदान किया गया था। इस अभियान में पैरामिलेट्री बल तथा राष्ट्र पुलिस ने भाग लिया। यह अभियान छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र प्रदेश तथा महाराष्ट्र में चलाया गया। 

(3) - प्रहार - 3 जून, 2017 को छत्तीसगढ़ राज्य के सुगमा जिले में सुरक्षा बलों द्वारा अब तक के सबसे बड़े नक्सल विरोधी अभियान ‘प्रहार’ को प्रारंभ किया गया। सुरक्षा बलों द्वारा नक्सलियों के चिंतागुफा में छिपे होने की सूचना मिलने के पश्चात इस अभियान को चलाया गया था। इस अभियान में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के कोबरा कमांडो, छत्तीसगढ़ पुलिस, डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड तथा इंडियन एयरफोर्स के एंटी नक्सल टास्क फोर्स ने भाग लिया। 



      यह अभियान चिंतागुफा पुलिस स्टेशन के क्षेत्र के अंदर स्थित चिंतागुफा जंगल में चलाया गया जिसे नक्सलियों का गढ़ माना जाता है। इस अभियान में तीन जवानों ने शहादत दी तथा कई घायल हुए। अभियान के दौरान 15 से 20 नक्सलियों के मारे जाने की सूचना सुरक्षा बल के अधिकारी द्वारा दी गई। खराब मौसम के वजह से  25 जून, 2017 को इस अभियान को समाप्त करना पड़ा । अगर वहां की जनता और जनप्रतिनिधि पूरा साथ देते तो यह अभियान अपनी पराकाष्ठा पर होता पर वहीं ढ़ाक के गो पात की आमजन  डर के कारण उतना साथ नहीं देते, इसका एक बड़ा कारण अशिक्षा और उनपर नक्सलियों का अन्याय बड़ा कारण है।



 विचारणीय और हृदय विदारक बात तो यह है कि 2009 से 2019 अब तक हुए आठ बड़े नक्सली हमलों में कम से कम  हमारे 200 जवान शहीद हो चुके हैं और हाल हीं में 1मई 2019 को मुम्बई महाराष्ट्र के गढ़चिरौली पुलिस के एक नक्सल विरोधी दस्ते C-60 के 16 जवान नक्सलियों की साजिशों से भरी बारूदी सुरंग विस्फोट में शहीद हो गए। सच कहूँ तो नक्सलवाद एक सिरफिरे लोगों का भटका हुआ आंदोलन है जिसमें मानवता का कहीं कोई जिक्र नहीं। 

आज इनमें से कई आयोजनों पर तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं, क्योंकि ऐसे प्रयासों का पूरी तरह से सरकारीकरण यानि राजनैतीकरण कर दिए जाने के बाद इनमें तरह-तरह की विकृतियां पैदा हो गयीं है। नक्सलवाद प्रभावित 20 राज्यों के 223 जिले नक्सलवाद से प्रभावित हैं जिनमें 2005 से 2010 तक नक्सली हिंसा में 10,268 लोग मारे गए है और बड़ी संख्या में सरकारी प्रतिष्ठानों को निशाना बनाया गया और आईडीएसए की रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2009 से जुलाई 2012 के बीच नक्सलियों ने देश के आठ नक्सल प्रभावित राज्यों में 150 से अधिक स्कूली इमारतों को निशाना बनाया, 67 पंचायत भवनों और 14 खान को निशाना बनाया गया। 

 वहीं छत्तीसगढ़ जैसे नक्सल प्रभावित राज्यों में मौजूदा संघर्षो से ऐसी ही खबरें आती रहती हैं जहां निरीह आदिवासियों का गांव का गांव महिलाओं और बच्चों समेत आत्मसमर्पण करता बताया जाता है। जबरन, फर्जी और केवल दिखावटी आत्मसमर्पण तक की खबरें बना दीं जाती हैं और ब्रेकिंग न्यूज बन जाती है कि हमने नक्सलवाद पर लगाम लगा ली है। फिर एक धमाका होता है और यह ब्रेकिंग खबर दूसरी खबर में बदल जाती है। 



आज कल के नेताओं  के बद्जुबानी वाले व्यवहार से जनता कि उम्मीदें दम तोड़ती दिखाई दे रहीं है क्योंकि वह नित टीवी डिबेट में जिसतरह सांप - नेवले की लड़ाई लड़ते दिख रहे हैं उसे देख यही लगता है कि क्या ऐसा कमजोर नेतृत्व, खूंखार नक्सलियों को शांति और आत्मसमर्पण का हृदय परिवर्तन का भरोसा दिला पाने में सक्षम हैं? 

इसका एकमात्र कारण यही जान पड़ता है कि अब हमारे बीच शायद वैसे लोग ही नहीं रहे जिनपर सभी पक्षों को भरोसा और श्रद्धा हो। तो क्या अहिंसक साधनों से हृदय-परिवर्तन का वह दौर जेपी और विनोबा जैसों के साथ ही चला गया? या फिर ऐसे लोग इस युद्धोन्मादी दौर में मौन हो गये ? कहना गलत न होगा कि जब मन - मस्तिष्क और दिलों में धसते राजनैतिक प्रोपेगेंडा से लेकर सैन्य-कार्रवाइयों तक का राजनीतिकरण या कहें कि चुनावीकरण होने लगे तो भविष्य में अंहिसा और हृदय परिवर्तन जैसे विचार कौंधना बंद न हो जायेगें और नक्सलवाद, मओवाद, आतंकवाद दस मारो बीस पैदा जैसे रक्तबीजों पर पार पाना बहुत मुश्किल होगा जिसको फिर मानवता के आँसू से कभी धोया न जा सकेगा।















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