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खत्म होती कांग्रेस - ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना






-ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना 
न्यूज ऐडीटर सच की दस्तक 

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यह बात सच है कि कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है जिसमें कभी नेताजी सुभाष चंद्र बोस, गांधी जी भी थे पर कांग्रेस की गलत नीतियों के चलते सब लोग एक-एक करके इसे अलविदा कह गये। दुखद तो यह रहा कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के अलविदा कहदेने के बाद भी कई ऐंजेंसियों का दावा है कि कांग्रेस यानि नेहरू ने नेताजी श्री सुभाष चंद्र जी की बीस सास जासूसी करायी थी और ऐंजेंसियों ने यह भी कहा कि नेहरू और गांधी क्रांतिकारियों को बचा सकते थे पर उनका फांसी पर चढ़ना मानो उन्होंने कहीं न कहीं ब्रिटिश गवर्नमेंट का साथ ही दिया और कई राजनीतिक विशेषज्ञ यह तक कहते हैं कि देश की जमीन को बांटने का हक किसी को नहीं तो जिन्ना को पाकिस्तान क्यों दे दिया गया? इन्हीं तर्कों के कारण कांग्रेस अपना अस्तित्व खोती चली गई।

बता दें कि कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश राज में 28 दिसंबर 1885में हुई थी। इसके संस्थापकों में ए ओ ह्यूम (थियिसोफिकल सोसाइटी के प्रमुख सदस्य) जिसमें दादा भाई नौरोजी और दिनशा वाचा भी शामिल थे।१९वीं सदी के बाद और शुरूआती से लेकर मध्य २०वीं सदी में, कांग्रेस भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में, अपने १.५ करोड़ से अधिक सदस्यों और ७ करोड़ से अधिक प्रतिभागियों के साथ, ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरोध में एक केन्द्रीय दल बनी।१९४७ में आजादी के बाद, कांग्रेस भारत की प्रमुख राजनीतिक पार्टी बन गई। 

आज़ादी से लेकर 2019 । अतः,अब तक कुल52 वर्षों तक वह केन्द्र सरकार का हिस्सा रही। भारत में, कांग्रेस के सात प्रधानमंत्री रह चुके हैं; पहले जवाहरलाल नेहरू(१९४७-१९६५) थे और हाल ही में मनमोहन सिंह(२००४-२०१४) थे। २०१४ के आम चुनाव में, कांग्रेस की जमींदोज होने की शुरूआत हो चुकी थी जब ५४३ सदस्यीय लोक सभा में केवल ४४ सीट जीती। तब से लेकर अब तक कांग्रेस विवादों की कालिख से पुतती चली गयी जिसका समय-समय पर विभिन्न ईमानदार नेताओं ने कड़ा विरोध किया और उसे हटाने के लिये बहुत संघर्ष किया।इनमें राममनोहर लोहिया जो जवाहरलाल नेहरूके कट्टर विरोधी थे। इसके अलावा जयप्रकाश नारायण ने तो इंदिरा गांधी की सत्ता को ही उखाड़ फेंक कर एक नवीन रूप विश्वनाथ प्रताप सिंह के रूप में मिला जिन्होंने  बोफोर्स दलाली काण्ड को लेकर राजीव गांधी को सत्ता से हटा दिया था, यह बात सन् 1987 में  सामने आयी थी जब स्वीडन की हथियार कम्पनी बोफोर्स ने भारतीय सेना को तोपें सप्लाई करने का सौदा हथियाने के लिये 80 लाख डालर की दलाली चुकायी थी। उस समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकार व उसके प्रधानमन्त्री राजीव गांधी थे। स्वीडन रेडियो ने सबसे पहले 1987 में इसका जबरदस्त खुलासा किया था। 
      
इतनी फझियत झेल चुकी कांग्रेस तब बेहद कमजोर हो पड़ गई जब सोलहवीं लोकसभा के चुनावों के समय नरेन्द्र मोदी ने डंके की चोट पर 'कांग्रेसमुक्त भारत' का नारा बुलंद किया जोकि काफी प्रभावी रहा जिसका परिणाम यह हुआ कि चुनावों में कांग्रेस की सीटें मात्र ४४ पर आकर सिमट गयीं, जिसे विपक्षी दल का दर्जा तक प्राप्त नहीं हो सका। ऐसा ही आज, लोकसभा चुनाव 2019 में देखने को मिला जब भोपाल से प्रत्याशी प्रज्ञा ठाकुर ने नाथूराम गोडसे को क्रांतिकारी देशभक्त कह दिया जिसमें गांधी परिवार को काफी ठेस लगी पर कमल हसन ने जब पहला हिन्दू आतंकवादी शब्द गोडसे के लिए प्रयोग किया तब गांधी परिवार के मुंह में दही जम गयी थी और यही बयानबाजी युवाओं में  क्रांतिकारियों के उस दर्द को जिंदा कर गयी। कांग्रेस, मोदी प्रण 'कांग्रेस मुक्त भारत' के भय से ग्रसित लोककसभा चुनाव 2019 में कांग्रेस चौकीदार चोर और राफेल का इल्जाम लगाकर भी अच्छा प्रदर्शन करने में फेल साबित हुई फलस्वरूप 543 सीटों में से कांग्रेस सिर्फ 52 सीटें ही जीतने में कामयाब हो सकी। कांग्रेस मात्र 52 सीटें पाकर एक बार फिर मुख्य विपक्षी दल के पद से वंचित रही, बल्कि 17 प्रदेशों एवं केंद्र शासित क्षेत्रों में खाता तक ना खोल सकी। नौ प्रदेशों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र आदि में तो कांग्रेस को मात्र एक-एक सीट से ही मनसंतोष करना पड़ा। बता दें कि उत्तर प्रदेश  की सबसे अहम सीटों में शुमार अमेठी लोकसभा सीट 2019 पर सन् 2014 के चुनाव में कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने जीत दर्ज की थी। उन्हें 4,08,651 वोट मिले थे, जबकि BJP उम्मीदवार स्मृति ईरानी 3,00,748 वोट लेकर दूसरे नंबर पर रही थीं। 

अमेठी लोकसभा सीट सन् 1967 में अस्तित्व में आई थी। सन् 1967-77 तक यह सीट कांग्रेस के हाथ में रही थी। उसके बाद सन् 1977-80 तक यहां जनता पार्टी जीती। इसके बाद सन् 1980-98 के बीच इस सीट पर फिर कांग्रेस का परचम लहराता रहा।सन् 1998 में बीजेपी की गर्जन ने पहली बार इस सीट पर अपना खाता खोला कर बदलाव की विजय पताका लहरा दी थी, लेकिन इसके बाद 1999 से ही यहां फिर कांग्रेस का प्रभुत्व कायम हो गया और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी यहां से तीन बार सांसद चुने जा चुके हैं।उन्होंने सन् 2004 में पहली बार यहां से चुनाव जीता था। उनसे पहले इस सीट से उनकी मां सोनिया गांधी सांसद थीं। उत्तर प्रदेश की अमेठी सीट परम्परागत रूप से कांग्रेस, और विशेषकर गांधी परिवार का गढ़ यानि किला माना जाता रहा है, और अब तक कुल मिलाकर हुए 15 चुनावों में 13 बार कांग्रेस प्रत्याशी ही यहां से जीते हैं। इस सीट पर पहली बार 1967 में चुनाव हुआ था, जब कांग्रेस के विद्याधर बाजपेयी ने जीत हासिल की थी, और वही 1971 में भी जीते। इमरजेंसी के बाद 1977 में हुए अगले चुनाव में जनता पार्टी के रवींद्र प्रताप सिंह ने इस सीट पर कब्ज़ा कर लिया, लेकिन 1980 में इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी को यहां से लड़ाया गया, और वह जीते।

उनके निधन के बाद उनके बड़े भाई राजीव गांधी को इस सीट पर उपचुनाव लड़वाया गया, और 1991 में अपने निधन तक वह चार बार इस सीट से सांसद रहे और राजीव गांधी के निधन के बाद गांधी परिवार के करीबी सतीश शर्मा इस सीट पर दो बार चुनाव जीते, लेकिन 1998 में BJP के संजय सिंह ने इस सीट पर कब्ज़ा कर लिया. हालांकि यह कब्ज़ा लम्बा नहीं चला, और अगले ही साल दिवंगत राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी ने इस सीट से चुनाव लड़ा, और जीतीं। 

उसके बाद वर्ष 2004 में राजीव और सोनिया के पुत्र तथा कांग्रेस के मौजूदा अध्यक्ष राहुल गांधी को अमेठी सीट से प्रत्याशी बनाया गया, और तब से लगातार वह जीतते चले आ रहे थे और अमेठी पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार का भ्रम पाल बैठे थे जोकि इस बार के लोकसभा चुनाव 2019 में पूरी तरह टूट गया। जब तीसरी बार अमेठी का कांग्रेस का किला विरोधियों की चुनावी बिसात पर ढ़ह गया। 

मतगणना के बाद भाजपा की स्मृति जुबिन ईरानी को अमेठी के लोकसभा के विजय प्रत्यााशी घोषित कर दिया गया। इस बार तो अमेठी मेंं गांधी परिवार का जनता का ना भावनात्मक रिश्ता काम आया और ना ही  प्रियंका गांधी का जादू जनता के सिर चढ़कर बोला। बल्कि अमेठी की जनता के साथ स्मृति ईरानी 'दीदी' का रिश्ता जोड़ने में कामयाब हो गईं। मतगणना के शुरूआती चक्र में ही जो बढ़त स्मृति ने राहुल पर बनाई वह कुछ एक चक्रों को छोड़कर अन्त तक कायम रही। जिससे जीत का अन्तर बढ़ता गया। मतगणना समाप्त होने के बाद घोषित किए गए आंकड़ों के मुताबिक भाजपा की स्मृति जुबिन ईरानी को 468514 मत मिले। जबकि इनके निकटतम प्रतिद्वन्दी रहे कांग्रेस के राहुल गांधी को 413394 मत मिले।श्रीमती ईरानी ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को  55 हजार 120 मतों से जबर्दस्त शिकस्त देकर करीब-करीब अमेठी का किला फतह कर लिया। कुछ चुनावी विशेषज्ञ मानते हैं कि 1984 में अपने दो सीट से लोकसभा चुनाव का श्रीगणेश करने वाली भारतीय जनता पार्टी का वोट प्रतिशत 2019 में करीब 38 फीसद से अधिक हो चुका है। 

आमतौर पर माना जाता है कि इसने कांग्रेस के जनाधार रूपी किले में पूरी तरह ही बंगाल की तरह सेंध लगाई। लेकिन आंकड़े एक और भी तस्वीर दिखाते हैं। ये बताते हैं कि 1984 के बाद कांग्रेस का वोट शेयर तो गिरा ही, साथ ही क्षेत्रीय दलों की वोट हिस्सेदारी भी करीब 51 का शीर्ष स्तर छूने के बाद 43 पर सिमट चुकी है। 1984 के बाद हुए चुनाव में गैर कांग्रेस-भाजपा दलों का यह सबसे कम वोट हिस्सेदारी है। कांग्रेस का वोट शेयर 48.1 फीसद से गिरकर 19.5 फीसद पर सिमट चुका है। 2019 के नतीजों में भाजपा ने तीन क्षेत्रीय दलों तृणमूल, राजद और बीजद पर सर्वाधिक असर डाला है। 

इस हताशा और निराशा का परिणाम यह है कि लोकसभा चुनाव 2019 में बड़ा प्रचार-प्रसार के बावजूद मिली करारी हार के बाद कांग्रेस आंतरिक संकट से जूझ रही है। हार के बाद राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफे की पेशकश भी कर चुके हैं, लेकिन उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं हुआ। इन सबके बीच राजस्थान में कांग्रेस की बुरी हार के बाद प्रदेश के नेतृत्व को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं।राहुल गांधी की कथित टिप्पणी की वो कई जगह नहीं चाहते थे की मुख्यमंत्री के बेटे चुनाव लड़े को गहलोत की तरफ़ इशारा माना जा रहा है। अशोक गहलोत के बेटे वैभव ने जोधपुर से चुनाव लड़ा, जहां से ख़ुद मुख्यमंत्री विधायक हैं और पांच बार MLA रह चुके हैं। हालांकि वैभव दो लाख से ज़्यादा मतों से बुरी तरह हारे और अपने पिता के गृह क्षेत्र सरदारपुर से भी अठारह हज़ार वोटों से पिछड़े लेकिन दिल्ली में अशोक गहलोत सफाई देते नज़र आए।

उन्होंने कहा कि राहुल गांधी ने अगर कुछ कहा है ग़लत हुआ है तो वो उनका हक़ है। क्योंकि राजस्थान में कांग्रेस सिर्फ़ 25 लोकसभा सीटें ही नहीं हारी है, विधान सभा के 200 विधानसभा क्षेत्रों में से 185 पर लीड भी नहीं ले पायी है अगर गहलोत की सीट सरदारपुर से वैभव 18000 मतों से पिछड़े हैं तो टोंक में सचिन पाइलट भी कांग्रेस उम्मीदवार को 22000 की मात से नहीं बचा पाए।वहीं दिल्ली में सातों लोकसभा सीटों पर हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष शीला दीक्षित ने पार्टी आलाकमान को अपना इस्तीफा भेज दिया है। हालांकि उन्होंने अंतिम फैसला राहुल गांधी पर छोड़ दिया है। साथ ही शीला ने चुनावी नतीजों की समीक्षा के लिए एक कमेटी गठित करने का भी निर्णय लिया है। इस कमेटी की रिपोर्ट पर प्रदेश कांग्रेस में भी बड़े फेरबदल के आसार हैं। 

दिल्ली की सात में से पांच सीटों पर दूसरे नंबर पर आने के बावजूद कांग्रेस के उम्मीदवार भाजपा के उम्मीदवारों से काफी अधिक मतों से पराजित हुए हैं। पार्टी की इस हार के लिए प्रदेश इकाई के शीर्षस्थ नेताओं पर भी अंगुली उठ रही है। अभी एक दिन पहले ही पार्टी के कार्यकर्ताओं ने कार्यकारी अध्यक्ष राजेश लिलोठिया को हटाने की मांग भी कर डाली। ऐसे में शीला ने सातों सीटों पर हुई हार की जिम्मेदारी स्वयं ली है।

इधर गहलोत के करीबी मंत्री ने सोशल मीडिया पर अपना इस्तीफा भेज दिया है और वो अब लापता बताये जा रहे हैं तथा दो और मंत्रियो ने राजस्थान में हार के आंकलन की बात कही है। वहीं दूसरे और मंत्री ये भी मानते हैं अकेले गहलोत नहीं पूरा प्रदेश नेतृत्व हार की ज़िम्मेदारी ले। इन लोकसभा चुनाव 2019 के ऐतिहासिक चुनावी आंकड़ों और विपक्ष की बेतुकी बयानबाजी, झींटाकसी और कांग्रेस में स्तीफे देने की होड़ से साफ पता चलता है कि देश से अब कांग्रेस खत्म होने की कगार पर है क्योंकि देश की जनता ने कांग्रेस के बहत्तर हजार की रिश्वत को सिरे से नकार दिया है और वह राष्ट्रहित, राष्ट्रभक्ति, राष्ट्र के विकास में सहयोगी होना चाहता है वह विकासशील नहीं बल्कि विकसित वीटो भारत चाहता है।वह मोदीजी के सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास पर विश्वास कर चुका है। सच कहूँ तो भाजपा की यह ऐतिहासिक जीत को यानि यह लोकसभा चुनाव 2019 को राष्ट्रभक्ति की पराकाष्ठा व बद्जुबानी की पराकाष्ठा दोनों के लिए याद रखा जायेगा। 

... कहना गलत ना होगा कि प्रधानमंत्री मोदी जी के प्रभावशाली नेतृत्व ने इस लोक सभा चुनाव 2019 में राष्ट्र की राष्ट्रभक्ति को चरम पर पहुंचा दिया। जिसे जनता ने मोदी इज फियरलेस बाकि सब को डेस डेस डेस कर दिया।  



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