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अगले जन्म मोहे मजदूर न कीजो - ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना

गरीब असहाय मजदूरों के दर्द पर अविराम चलेगी मेरी कलम...✍️
-ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना 



अगले जनम मोहे मजदूर न कीजो ! 
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-ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना,
 न्यूज ऐडीटर सच की दस्तक राष्ट्रीय मासिक पत्रिका वाराणसी 

आज हर तरफ लॉकडाउन की कराह सुनी जा सकती है और यह परिस्थिति झेलना हर व्यक्ति की मनोस्थित पर निर्भर करता है। परिस्थिति इतनी भयाावह है कि हर वक्त टीवी न्यूज पर कोरोनावायरस की खबरों सेे तरबतर छोटे -छोटे कमरों में कैद तमाम जिंदगियों का दम घुटने लगा है और वह मानसिक रूप से बीमार होने की तरफ़ तेेजी से बढ़ते जाते जा रहे हैं। क्योंकि देश की बहुत बड़ी आबादी इतने छोटे-छोटे कमरों में कैद है कि न उसके पास टहलने को खुला आंगन है और न ही पेड़ों की छांव लेने के लिये बाहर बरामदा या लॉन। एक तो शहरों में बस्तियां इतनी घनी बसी हैं कि वहां इंसान सिर्फ़ अपनी गरीबी को ओढ़ कर तिरस्कारपूर्ण घुटन की श्वांस लेता है। वह गरीब तो कोरोना से मरे या घुटन भरी बेरोजगारी की लानतभरी जिंदगी से, बात एक ही है। दोस्तों! हम उन किस्मत के मारों की बात कर रहे हैं जिनका सरकारी रिकार्ड तक नहीं होता पर सच में वो होते सच्चे मजदूर ही हैं। साहिब! कभी देखो! आकर सड़कों के किनारे कच्चे घरोंदे और उस लकड़ी की गाड़ी को जिसमें गरीब अपनी पूरी गृहस्थी समेटें जीता है। जो मजबूरी वश खुले में नहाने और खुले में शौच जाने व सड़क पर बिन मौत खुद पर किसी रईसजादे की गाड़ी के नीचे दबकर मरने पर मजबूर हैं। दुर्भाग्य से हमारे देश का कानून इतना महान है कि यहां अमीरों को बेल मिलती है और गरीबों को तारीख और रईसजादों के लिए न्याय का
समय इतना लंबा खिंचवाया जीता है कि तब तक वह गरीब जिंदा ही न बचे। यह कैसा न्याय है जो देर से मिले और जो अमीर गरीब में भेद करे फिर क्यों न इसे निर्णय नाम दिया जाये। ताज्जुब होता है यह सुनकर कि देश में कोरोनावायरस के कारण पूरे देश में घोषित लॉकडाउन पर सरकार द्वारा 43दिन बाद शराब की दुकानें खोल दीं जाती हैं और वहां लोग स्टाक करने के लिए शराब की दुकानों पर ऐसे टूट पड़ते हैं कि मानों अमृत मुफ्त बिक रहा हो। वहीं शराब कारोबारियों की मानें तो यूपी में सोमवार को 300 करोड़ रुपये से ज्यादा की शराब और बियर बिकी। लखनऊ में साढ़े छह करोड़ रुपये से ज्यादा की शराब बिकी। यूपी लिकर सेलर वेलफेयर असोसिएशन के महासचिव कन्हैया लाल मौर्य के अनुसार गौतमबुद्धनगर, मुजफ्फनगर, गाजियाबाद, मुरादाबाद, वाराणसी, गोरखपुर, आजमगढ़, प्रयागराज जैसे दर्जन भर जिलों में पांच करोड़ रुपये से ज्यादा की शराब 6 मई को बिकी वहीं राजस्थान में दो घंटे में 59 करोड़ की बिक्री हुई। जिससे उमड़ी भीड़ ने लॉकडाउन की धज्जियां उड़ा दीं। हद है कि सरकार नशा बेचे तो राजस्व बढ़ेगा और गरीब पापी पेट के लिए नशा बेचे तो सीधे जेल की हवा खायेगा यानि गलत काम करो तो सरकार की मंजूरी लो, लाईसेंस लो फिर करो। अरे! भाई शराब, खैनी, तम्बाकू, किसी तरह का नशा सब बेन करने की चीजें हैं। पर यह केवल लिखने की बातें हैं क्योंकि कुछ बंद नहीं होता सब चलता रहता है। गरीब क्या करे जब जिंदगी के दर्द से हार जाता है तो नशे की रहस्यमयी गोद में सो जाता है क्योंकि सुबह मजदूरी पर जाना है। औरंगाबाद में प्रवासी श्रमिकों की दर्दनाक रेल दुर्घटना खून से सनी रोटियाँ ने पूरे सिस्टम को झकझोर कर रख दिया है। अब इसके विषय में देश भर के मुख्यमंत्रियों के मध्य सामंजस्य तो छोड़िये, बड़ा टकराव ही दिख रहा है। इस स्थिति में यह समस्या देश को कोरोना के सामुदायिक फैलाव की विस्फोटक स्थिति में लाकर खड़ा कर सकती है।

अब यक्ष प्रश्न यह  है कि विभिन्न महानगरों में बसे प्रवासी मजदूरों को किस प्रकार उनके गृह राज्यों में वापिस भेजा जाये। कुछ राज्यों से हजारों बसों और रेलगाड़ियों से मजदूर घर वापिस भेजे भी जा रहे हैं। श्रमिकों को घर भेजने की चिंता समयोचित है, किंतु क्या यह भी सही नहीं है कि इन्हें गांवों मे तत्काल रोजगार नहीं मिलेगा और आने वाले दिनों में जैसे ही लॉकडाउन खुलेगा वैसे ही ठप्प पड़े उत्पादन तंत्र को सक्रिय करने हेतु इन्हीं मजदूरों की बड़ी आवश्यकता पड़ेगी। लॉकडाउन पूरा खुले या आंशिक, दोनों स्थितियों में इतना तय है कि केंद्रीय शासन देश भर की उत्पादन इकाइयों को चालू करने का खाका देखने लायक होगा । 

देश में लगभग 12 करोड़ प्रवासी मजदूर हैं जो नगर, महानगर में जाकर असंगठित क्षेत्रों से कमाकर जीवन यापन करते हैं। सुविधा के नाम पर इनके पास अधिकतम किराये की कोठरी, साइकिल, रिक्शा या मोटरसाइकिल और एक मोबाइल रहता है। इनका यह पूरा सामान शौक या सुविधा के लिये नहीं अपितु रोजगार की जरूरतों के लिये खरीदा जाता है। इनमें से अधिकांश के पास जो स्मार्ट या सादा मोबाइल फोन है वही संकट की इस घड़ी में इनके लिये भगवान बने हुए हैं पर आज जिस प्रकार की इनकी स्थिति होती है उसमें यह स्पष्ट है कि इन्हें मोबाइल रिचार्ज कराने के लिये हाथ में नगदी लेकर रिचार्ज की दुकान तक चलकर जाना होता है तब ही इनका फोन रिचार्ज हो पाता है। न तो इन्हें फोन पर घर बैठे फोन रिचार्ज वाउचर उधार मिलता है और न ही ये लोग ऑनलाइन रिचार्ज करा सकते हैं। अब परिस्थिति यह है कि रिचार्ज की दुकानें बंद हैं और यदि किसी समय में इन्हें खुली मिलती भी हैं तो इनके पास रिचार्ज कराने को छोड़िए खाने और बस की टिकिट के भी पैसे नहीं हैं। अब इस हाल में महामारी से उपजे संकट, भूख, बेरोजगारी व भय की दुखद परिस्थितियों में अपनों से संवाद नहीं हो पाना एक बड़ी मानसिक बीमारियों को उत्पन्न कर सकता है। 

नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़े कहते हैं कि अपने यहां लगभग 326 मिलियन, यानि बत्तीस करोड़ साठ लाख इंटरनल माइग्रेंट्स लेबर हैं। इनमें से बड़ी संख्या सीजनल माइग्रेंटस होते हैं जिसमें बड़ी संख्या इंट्रा डिस्ट्रिक्ट व इंट्रा डिस्ट्रिक्ट यानि आसपास के जिलों में जाने वालों की होती है और शेष लगभग 12 करोड़ प्रवासी ऐसे होते हैं जो एक राज्य से दूसरे राज्य मे मजदूरी करने जाते हैं। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंस के अनुसार लेबर और माइग्रेशन पर काम करने वाली संस्था “आजीविका” इन आंकड़ों की पुष्टि करती है। आजीविका के अनुसार इसमें से 4 करोड़ श्रमिक भवन निर्माण में, 2 करोड़ घरेलू कार्यों में, 1 करोड़ दस लाख टेक्सटाइल से, ईंट भट्टों पर 1 करोड़ और बाकी ट्रांसपोर्ट खदानों और कृषि क्षेत्रों मे कार्यरत हैं। इनमें सर्वाधिक प्रवासी मजदूर उत्तर प्रदेश, असम, ओडीशा और बिहार से होते हैं। ड्राइविंग, डिलीवरी, सिक्योरिटी, हाउसकीपिंग के कार्यों में लगे इन मजदूरों का 40% बंगलुरू, 15% गुड़गांव, 14% हैदराबाद, 12% दिल्ली, 6% मुंबई, 4% चेन्नई और 4% नोएडा मे रहता है। इस प्रकार इनकी रखरखाव की योजना बनाना इन बड़े साधन संपन्न नगरों हेतु बड़ा दुष्कर है किन्तु असम्भव नहीं है। 

प्रवासी मजदूरों की इस समस्या की गंभीरता को इससे भी समझा जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र के अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन आईएलओ ने भी इनकी वर्तमान हालत पर चेतावनी दी है। आईएलओ ने अपनी रिपोर्ट “कोविड-19 और वैश्विक कामकाज” में कोरोना वायरस संकट को दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे भयानक संकट बताया है। रिपोर्ट में कहा गया है, “भारत में अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करने वालों की हिस्सेदारी लगभग 90 प्रतिशत है, इसमें से करीब 40 करोड़ श्रमिकों के सामने गरीबी में फंसने का संकट है।'' अब ILO के महानिदेशक गाई राइडर ने अपनी हाल ही में 18 मार्च को प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट ILO मानीटर संस्करण-2 में कहा है कि– “हमें तेजी से, निर्णायक रूप से और एक साथ आगे बढ़ना होगा। सही, जरूरी, उपाय, अस्तित्व और पतन के बीच अंतर कर सकता है। यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सबसे बड़ा व खराब वैश्विक संकट है। उन्होंने कहा, "आज हम जो विकल्प चुनते हैं, वह सीधे तौर पर इस संकट को प्रभावित करेगा और इससे अरबों लोगों का जीवन प्रभावित होगा। 

आंकड़ें  तो यह भी बताते  हैं कि देश में लगभग 45 करोड़ मजदूरों का बड़ा वर्ग निवास करता है।परिवार के पेट की भूख के खातिर ये देश छोड़कर परदेश चले जाते हैं।एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में चले जाते है।श्रम के बदले भूख के वास्ते पैसा कमाते है।छोटेेे-बड़े कल कारखानों में नौकरी करते है।ये ऐसे मजदूर होते है कि सरकार के रजिस्टर में कहीं दर्ज नही होते हैं।ऐसे में सरकार के पास इनके रिकार्ड रखने का एक मात्र उपाय क्या है? इसके लिए सरकार क्या करे न करे यह यक्ष प्रश्न है।वैसे सरकार ने आधार कार्ड बनवाकर इनका डिटेल रखने का काम बखूूबी किया है।
      मौजूद समय में कोविड 19 से पूरा देश यहां तक कि पूरा विश्व लड़ रहा है प्रतिदिन 1000 की संख्या में कोरोना पॉजिटिव मरीज निकल रहे हैं।कोरोना एक वायरस है जो यकीनन चीन का जैविक हथियार है जिसे चीन ने अपनी वैश्विक स्तर पर शक्तिशाली देश की छवि बनाने के लिए विकसित किया है और अमेरिका ऐड़ी चोटी के जोर से भी चीन की लेब तक नहीं पहुंच पा रहा। यह इसलिए कि चीन एक वीटो पावरफुल मुल्क है। काश! कि भारत के स्व. पीएम. जवाहरलाल नेहरू भारत की मिलने वाली वीटो चीन के पास जाने से रोक लेते तो आज भारत भी सशक्त देश होता और रोज-रोज मुंह चिढ़ाने वाला पाकिस्तान भारत की तरफ आंख उठाने में सौ बार सोचता पर ऐसा हो न सका। यह विचारणीय है जहां एक ओर विश्व मानवता को बचाने में लगा हुआ है वहीं पाकिस्तान के आतंकी क्रूर कंटीली झांड़ी और नुकीले रेंगने वाले पत्थर हृदय के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। जबकि हर देश में मजदूर परेशान हैं जिनपर ध्यान के लिए कभी-कभी विपक्ष की वक्र दृष्टि का सहारा होता है। जो सरकार की तंद्रा भंग करवा कर सच दिखलाती कि है कि मजदूरों का कम से कम किराया तो माफ कर दो। 
    आज भारत में कोरोना से मौत का आंकड़ा भी 840 से अधिक है और यह हर दिन बढ़ता ही जा रहा है।भारत सरकार ने समय रहते साहसी कदम उठाते हुए 24 मार्च से लॉक डाउन लागू कर दिया था और 15 अप्रैल से लॉक डाउन 2.0 चालू हो गया है।इनके कारण करीब 25 हजार अभी तक आंकड़े के अनुसार प्रभावित हुए हैं।जबकि साढ़े 5 हजार के आसपास कोरोना रोग से लोग मुक्ति भी पा चुके हैं। 

कोरोनावायरस को देखते हुए मजदूर को ध्यान में रखकर ऐसे तो केंद्र सरकार द्वारा कई महत्वपूर्ण योजनाएं चलाई जा रही हैं लेकिन वर्तमान में जो मजदूर पंजीकृत नहीं है और वह केंद्र सरकार की गरीबी की चार्ट में भी नहीं हैं तो उसे देखकर इनकी योजनाएं फ्लॉप ठहराई जा सकती हैं। कड़वी हकीकत तो यह है कि केंद्र सरकार द्वारा चलाई गयीं योजनाएं गरीबों के लिए मजदूरों के लिए ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं।

यह सच है कि कोरोना महामारी में सबसे प्रभावित मजदूर वर्ग है। उनका सरकारी भोजन पैकेट से गुजारा चलना असंभव है। वहां एक ओर भोजन के लाले पड़े हैं और दूसरी ओर लॉक डाउन। इस भयंकर परिस्थिति में मजदूरों का पलायन और उनके फटे तलवे जिनमें रिसता कराहता लहू कोई भुला नहीं सकता। यह उस अज्ञात गुनाह की सजा थी जो गुनाह उन्हें पता ही नहीं। दुख होता है जब हैलीकॉप्टरों से फूल बरसायें जाते हैं पर जो यह गरीबों के फूल से बच्चे मीलों चल कर घर की दहलीज़ पर पहुंचते-पहुंचते मर गये उनका सवाल कौन करे? यह भी सच है कि यह पलायन दिल्ली से गुजरात से मुम्बई से कर्नाटक तेलगाना से हुआ। जिस कारण कोरोना फैलने की बात कही गई पर खबर तो यह भी आयी कि भारत में कोरोनावायरस फैलाने का सबसे बड़ा कारण तबलीगी जमात का नेटवर्क रहा और बाद इन  लोगों को इनके डॉक्टरों से अभद्रता करने के कारण रासूका के तहत जेल हुई । 
 यह भी सच है कि भारत सरकार ने मजदूरों,गरीबों के लिए अपने खजाने खोलने का दावा किया लेकिन फिर भी पलायन नही रुका। यह विचारणीय है कि सरकार की योजना तो नोश्चित तौर पर सही है प्रयास भी ठीक है लेकिन इन योजना का लाभ उन मजदूरों उन जरूरतमंदों को नही मिल रहा है जिसे वास्तव में इसकी जरूरत है।जिसके कारण इनकी भूख प्यास रोजगार सब लॉक में डाउन हो चुका है, बर्बाद हो चुका है। सच कहें तो लॉकडाउन में पूरा प्राईवेट सेक्टर में काम करने वाला बर्बाद हो गया है जबकी सरकारी कर्मचारी का भी वेतन काट लिया गया है। हर कोई परेशान है बस वह कहे किससे इस जालिम! कोरोना ने चार लोगों को आपस में गले डालकर बैठने लायक नहीं छोड़ा। यह सचमुच भयंकर डिवाइड एंड रूल है जिसके भविष्य में कड़वे परिणाम ही होगें क्योंकि सारी मिठास कोरोना द्वारा सोख ली गयी है। 
अब यदि  देखें तो कोरोना महामारी से देश को लम्बी लड़ाई लड़नी है ऐसे में भारत सरकार क्या नये कदम उठाती है, ये तो देखना होगा।
भारत सरकार से मेरा विनम्र निवेदन है जो लाखों मजदूर सरकारी पत्रावलियों में दर्ज नहीं हैं जिनका कहीं नाम निशान नही है उनकी किसी भी तरह मदद करवायी जाये जिससे कम से कम वह इस लॉकडाउन में जिंदा तो रह सकें। साहिब! ज्यादातर मजदूर  फैक्ट्रियों में काम करते है जैसे ही लॉक डाउन का आपने अचानक फैसला लिया।वैसे ही फैक्ट्रियों के मालिकों ने इन्हें नौकरी से निकालना शुरू कर दिया। क्योंकि यह उनके लिये सिर्फ़ मशीन समान हैं। रही बची कसर उनके निर्दयी मकान मालिकों ने पूरी कर दी कि उन्होंने भी इन्हें किराये बृद्धि की आड़ में भगाना शुरू कर दिया। जिस कारण यह गरीब भूखे और लाचार मजदूर लॉकडाउन के बावजूद भूख और कोरोना महामारी से बचने के लिए 1000 किमी दूर अपने घरों की तरफ पैदल ही पुलिस की लाठी खाते सहते निकल पड़े और अब भी निकल रहे हैं । एक घटना ऐसी हुई जिसे सुनकर दिल रो पड़ता है।तेलगाना राज्य से एक मजदूर परिवार छत्तीसगढ़ के लिए चला दूरी काफी अधिक थी ।रात दिन चलते रहने के कारण उस मजदूर परिवार की 12 वर्षीय बिटिया ने अपने घर पहुचने के कुछ किलोमीटर पूर्व ही दम तोड़ दिया और भूखा प्यासा परिवार बिलख - बिलख कर रोकर बिखर गया। क्या इस बच्ची को उसकी इस वीरता के लिए मरणोपरांत पद्मश्री मिलेगा? दूसरी यह खबर कि आज भी देश में गरीब पानी जो मूल जरूरत है उसके लिये पसीना बहाने को मजबूर है। हम बात कर रहे महाराष्ट्र के वाशिम जिले के कारखेड़ा गांव के एक दंपति गजानन पकमोड़े जो मजदूरी कर अपना घर चलाते हैं, वे दुखी लॉकडाउन के कारण काम पर जा नहीं सकते थे और  पूरे क्षेत्र में पानी की त्राहि-त्राहि से जूझते देख उन दोनों पति-पत्नी ने मिलकर अपने घर के आंगन में कुआं खोदना शुरू किया जिसके परिणामस्वरूप उन्हें 21 दिन में 25 फीट की गहराई में मीठा पानी मिल गया। अब क्यों न इसी कुएं के चुल्लू भर पानी में सिस्टम को शर्म से डूब जाना चाहिए कि गरीब के वोट की कीमत यही है कि उसे पानी के लिए स्वंय ही कुआं खोदना पड़ जाये! 
लॉक डाउन तो हर मजदूर का काल हो गया है एक तरफ कोरोना का कहर तो दूसरी तरफ भूख आखिर! हर हाल में गरीब मरने को मजबूर है।ऐसे में कोई अफवाह फैला दे कि ट्रैन चलने वाली है तो दुखी लोग स्टेशन की तरफ दौड़ ही पड़ते हैं। कि कैसे भी घर पहुंच जाएं और भरपेट खाना मिल जाये, यह समाजसेवी वाले पैकेटों से न भूख मिटती है और न ही पेट भरता है बस राहत जरूर मिलती है पर वह काफी नहीं होती । ऐसे में यू. एन ने भी कहा है कि विश्व में 25 करोड़ लोगों की भूख से मौत हो सकती है जो सत्य ही दिख रहा है।

इसके आलावा  संयुक्त राष्ट्र के श्रम प्रभाग ने चेतावनी दी है कि भारत में ही कोरोना से  भारत के 40 करोड़ मजदूर गरीबी में फंस सकते हैं और 20 करोड़ की नौकरी जा सकती है।और अनुमान है कि इस साल दुनिया भर में 19.5 करोड़ लोगों की पूर्णकालिक नौकरी छूट सकती है।जो आंकलन किये जा रहे है उससे साफ पता लग रहा है कि सरकार ने गंभीरता पूर्वक योजना इन गरीबों के विषय में नही बनायी नहीं तो निश्चय ही कोरोना और बेरोजगारी के कारण लाखों मजदूर भूख से मर जायेंगे।वैश्विक कामकाज में कोरोना वायरस संकट  दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे भयानक संकट  है और मजदूरों को कोई हल्के में न ले यह देश की व्यवस्था की धुरी होते हैं पर  आज यही बुनियादी धुरी व्यवस्था की कठपुतली बन परेशान मजबूरीवश अब यह कहने को मजदूर है कि अब अगले जनम मोहे मजदूर न कीजो ! 
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नोट : एक तरफ भारत में कोरोना संक्रमितों की संख्या पुष्टि किए गए केस 67,152 और ठीक हो गए 20,917 तथा 2,206 मौतें हुईं हैं। वहीं दूसरी तरफ मजदूर, मजबूरी से मर रहा है। हे! सर्वशक्तिमान परमात्मा इस कोरोना महामारी से अपनी इस सुन्दर दुनिया की रक्षा करो॥🙏🙏💐💐



















ससम्मान आभार : आप सभी समाचपत्रों के संपादक जी का बहुत-बहुत धन्यवाद। 🙏💐

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