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नैमीषारण्य भगवान श्री चित्रगुप्त मंदिर जीर्णोद्धार की आस में -






नैमीषारण्य तीर्थ में सतयुग कालीन भगवान श्री चित्रगुप्त मंदिर  जीर्णोद्धार की आस में -





नैमीषारण्य नैमिषारण्य हिन्दुओं का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। जो उत्तर प्रदेश में लखनऊ से लगभग 80 किमी दूर सीतापुर जिले में गोमती नदी के तट पर बायीं ओर स्थित है। नैमिषारण्य सीतापुर स्टेशन से लगभग एक मील की दूरी पर चक्रतीर्थ स्थित है। यहीं पर सर्वप्रथम भागवत कथा हुई थी। यहां चक्रतीर्थ,महर्षि व्यास, मनु-सतरूपा तपोभूमि और हनुमान गढ़ी प्रमुख दर्शनीय स्थल भी हैं। यहां प्रसिद्ध पवित्र प्राचीन सरोवर है जिसका मध्य का भाग गोलाकार के रूप में बना हुआ है जहां भक्तगढ़ अपने पाप धोने के उद्देश्य से स्नान आचमन आदि करते हैं। 

यहां के ये हैं प्रमुख तीर्थ-

काशी कुंड के समीप सतयुग कालीन भगवान श्री चित्रगुप्त मंदिर तपोस्थली - 

काशी कुंड के निकट समस्त ब्रह्मांड के प्राणियों का लेखा-जोखा लिखने वाले भगवान श्री चित्रगुप्त जी की तपोस्थली है। जहां भगवान श्री चित्रगुप्त जी ने भगवान शिव की 11 हजार वर्ष कठिन तपस्या की थी और भगवान शिव ने प्रकट होकर उनसे कहा था कि हे! कभी न विश्राम करने वाले चित्रगुप्त! आप सम्पूर्ण ब्रह्मांड के प्राणियों के कर्मों का लेखा-जोखा लिखते हैं। ऐसा क्या हुआ जो आपने मेरी इतनी कठिन तपस्या की। तब भगवान श्री चित्रगुप्त जी ने कहा कि मैनें किसी भी कारण या लोभवश आपकी आराधना नहीं की। मैनें आपके प्रति सिर्फ़ अपनी अटूट आस्था व्यक्त की है। इस तप का फल भी मुझे नहीं चाहिये। आपके दर्शन से मैं अत्यंत प्रसन्न हूं मैं धन्य हुआ। और तभी श्री चित्रगुप्त जी ने तेज कदमों से निकट के ही कुंड से दोनों हाथों की उंजली में जल भर कर भगवान शिव को बड़े ही प्रेम से समर्पित करके कहा! हे! प्रभु यह जल स्वीकार करें।मुझे पता है कि आप ़इतने वर्षों से समाधिस्थ थे और आज जैसे ही आपकी समाधि भंग हुई तो आप सीधे ही मेरे पास चले आये इस बीच आपने जल तक गृहण नहीं किया। इस पर भोलेनाथ ने मुस्कुराते हुए कहा कि आपकी माता पार्वती ने विनती की आप कठिन तप कर रहे हैं और मैं मेरी समाधि से जल्द बाहर आ जाऊं। इस पर श्री चित्रगुप्त जी ने कहा, ''नारदमुनि ने मुझे कहा था कि इस समय आप समाधि में प्रवेश कर गये हैं और अनंत समय तक समाधिस्थ रहेगें इसलिये विचार कर तपस्या का संकल्प लें। पर हे! प्रभु सोच विचार कर तप किया जाये वो साधना कैसी? अब आप यह जल गृहण करें। इस पर भोलेनाथ अत्यन्त भावुक होकर बोले! हे चित्रगुप्त आप देव हैं अपनी शक्तियों से नाना प्रकार की वस्तुएं मंगा कर मुझे समर्पित कर सकते थे पर आप भक्ति की पराकाष्ठा हो जो स्वंय के देवरूप को भूल कर साधारण मनुष्य की तरह बच्चे की तरह दौड़कर उंजली में जल ले आये। मैं आपकी निर्मल कोमल अंहकारविहीन अनन्य भक्ति से अत्यन्त प्रसन्न हूं। इस पर भगवान भोलेनाथ ने उन्हें अपने अर्धनारीश्वर रूप सहित समस्त रूपों के दर्शन करवायें। फिर भोलेनाथ ने कहा, '' आज तक अकारण प्रेम और आस्था के लिए किसी ने मेरी तपस्या नहीं की हे! चित्रगुप्त। आप पहले और अंतिम देव रहेगें जो इस सीमा तक बिल्कुल निस्वार्थ भाव से मेरे प्रति प्रेम से समर्पित रहे। इसलिए हे! समस्त प्राणियों का लेखा-जोखा लिखने वाले चित्रगुप्त के तपस्या रूप हृदय यानि चित्त में तुम्हारी निस्वार्थ भक्ति को नमन करता हूं और आप समस्त प्राणियों के चित्त में गुप्त रहकर सब के कर्मों का सुचारू लेखा-जोखा रखते हैं अब से मैं आपके हृदय में गुप्त निवास करूंगा हे! चित्रगुप्त। और यह वरदान देता हूं इस कुंड के जल आपने मुझे जो अर्पित किया है आज से इसे काशी कुंड के नाम से जाना जायेगा। और आपका यह स्थान काशी की तरह ही पवित्र तीर्थ होगा। जहां मेरा अर्थात शिव व शक्ति का सदा निवास होगा। जो भी भक्त नैमीषारण्य तीर्थ में आकर बिना आपके दर्शन और पूजन के लौटेगा उसे नैमीषारण्य तीर्थ का और मेरी भक्ति का भी पूर्ण फल कभी प्राप्त नहीं होगा और इसके अलावा उसका लेखन कार्य व हिसाब-किताब में मनवांछित सफलता नहीं मिलेगी और मृत्यु के बाद उसे अपने कर्म बंधनों से भी वह आपकी दया का अधिकारी न होगा। और जो भी भक्त नैमीषारण्य आकर पूरी श्रद्धा से पहले आपका दर्शन व पूजन करेगा उसके बाद मेरा दर्शन करे। तो उस भक्त का यह लोक व परलोक में शांति व मोक्ष की प्राप्ति होगी। इतना कहकर जैसे ही भोलेनाथ प्रस्थान करने को हुए कि माता जगत जननी पार्वती प्रगट होकर बोलीं आप दोनों ही सर्वप्रथम भोजन कर लें। रसोई इसी स्थान पर बनायेगें। इस पर श्री चित्रगुप्त जी ने कहा कि मैं पास के गांव से कुछ भोजन सामग्री मांग लाता हूं। तब तक आप दोनों विश्राम करें। थोड़ी ही देर में श्री चित्रगुप्त जी बेसन, आटा, मसाले लिए वहां पहुंचे और चित्रगुप्त जी ने अपने हाथों से बेसन के गट्टे की सब्ज़ी जिसे कायस्थ परिवार के लोग टका पैसा की सब्जी कहते हैं। वही सब्जी बनाकर तैयार की और माता पार्वती ने रोटी और पूड़ियां बनायीं। तभी वहां मां शाकम्भरी देवी प्रकट हुईं और उन्होंने उस सब्जी में अदरक और धनियां मिलाकर कहा कि अब यह बहुत स्वादिष्ट बन गयी है। सब्ज़ी की सुगंध अत्यंत दिव्य थी और माता ने तुरंत थोड़ी सब्जी भगवान श्री हरि विष्णु व माता लक्ष्मी और गणेश, कार्तिकेय जी के लिए अलग निकाल कर रख ली उसके बाद सभी ने भरपेट भोजन किया। पर माता ने देखा कि सब्जी तो अब भी उतनी ही है यह तो खत्म ही नहीं हो रही। इस पर शंकर जी ने कहा हे! पार्वती तुमने शंका की कि कहीं सब्जी खत्म न हो जाये बस यह इसी का परिणाम है। इसका उपाय भी अब तुम्हीं खोजो। तब नारदजी ने सब देवी-देवताओं से कहा कि जाओ तुम सब भी पृथ्वी पर जाकर श्री चित्रगुप्त जी के कर कमलों से बना प्रसाद गृहण करो जाकर। तब सब देवताओं ने कहा कि सुगंध तो आ रही है पर वह स्थान श्री चित्रगुप्त जी ने गुप्त कर रखा है वहां हम पहुंचे कैसे? इस पर सब ने भगवान श्री हरि विष्णु जी से गुहार लगाई तो भगवान श्री हरि विष्णु जी ने अपना सुदर्शन चक्र वहां से छोड़ दिया और कहा कि यह जहां भी जाकर बैठ जाये उसी स्थान पर वह सब लोग आपको मिलेगें।जब सब देवी-देवता वहां पहुंचे तो सब ने प्रसाद गृहण किया पर वह सब्जी जस की तस रही। तब मां पार्वती उस सब्जी से भरे बर्तन को भगवान श्री हरि और माता लक्ष्मी जी के सामने रखते हुए बोलीं कि भाई इस लीला का अंत करो। तब भगवान श्री हरि विष्णु और माता लक्ष्मी ने उस सब्जी को पूडियों के साथ बडे ही चाव से खाया और वहीं श्री गणेश और कार्तिकेय जी को भी खिलाया। सबने खाने के बाद कहा कि हे! चित्रगुप्त आपने भक्तिभाव से इतना स्वादिष्ट भोजन हमें खिलाया है तो हे! चित्रगुप्त आपके भक्तों के घर में धन धान्य स्थिर लक्ष्मी मान सम्मान अन्न भंडार की कभी कोई कमी नहीं रहेगी और जो कोई आपके भक्तों के घर में भोजन करेगा उसका भी जीवन धन्य हो जायेगा। तब माता पार्वती को याद आया कि भोजन करने के बाद मुझे भी चित्रगुप्त जी को कोई विशेष उपहार आशीर्वाद देना चाहिए। तो माता पार्वती ने घोषणा कि जो तलवार मैनें रंड चंडी महाकाली रूप में धारण की थी जिसकी शक्ति अनंत है आज से वह तलवार मैं मेरे पुत्र रूप श्री चित्रगुप्त को भेंट करती हूँ और आज से चित्रगुप्त के भक्त कलम के साथ तलवार की भी पूजा करेगें। इससे चित्रगुप्त के कार्यों में कोई भी शक्ति विघ्न न डाल सकेगी। फिर माता ने बर्तन की तरफ देखा तो बर्तन फूलों से भरा हुआ था जिसे भगवान श्री चित्रगुप्त जी ने माता को समर्पित किये थे। माता शक्ति ने जैसे ही वह बर्तन उठाने को हाथ बढ़ाया तो माता लक्ष्मी और भगवान नारायण ने उनसे प्रार्थना कि हे! बहन यह अत्यंत पवित्र पात्र बैकुंठ में ही रहने दीजिए। जो हमें आज कि लीला की याद दिलाता रहेगा जब दो भूखे प्यासे तपस्वी आपके के साथ  मिलकर भोजन बनाया। इसकी पवित्रता अत्यंत महान और दिव्य है। सहस्त्रों अक्षय पात्र भी इस पात्र की महिमा तक नहीं पहुंच सकते। इस पर माता शक्ति ने कहा कि इस पात्र की पूरी कथा विस्तार से सुनायें नारायण। तो नारायण ने कहा आपसे क्या छुपा हे! बहन पर मेरे ही मुंह से सुनना है तो सुनो जब श्री चित्रगुप्त महादेव के लिए भोजन सामग्री के लिए उस भयानक जंगल के किनारे गांव में पहुंचे तो श्री चित्रगुप्त जी की दोनों धर्म-परायण पत्नियों और सभी बच्चों ने बिना विश्वकर्मा जी की मदद से सिर्फ़ अपने तपस्वी पिता की मदद के लिये उसी एक पहर में पूरा गांव बसा दिया था और सबने मिलकर बड़ी ही मेहनत से चाक पर यह बर्तन बनाये और उस दिव्य चाक की रचना विश्वकर्मा जी ने की थी।फिर अग्निदेव ने इन बर्तनों को बहुत मजबूती से पका दिया था। इसके बाद श्री चित्रगुप्त जी की धर्म-परायण पत्नियों ने बहुत मेहनत से बेसन पीसा था और सारी खाद्य सामग्री जुटाई थी जिसे जब श्री चित्रगुप्त जी भिक्षुक की तरह मांगने पहुंचे तो जैसे आपने मुझे अन्नपूर्णा बनकर काशी में चावल का दान दिया था ठीक उसी तरह श्री चित्रगुप्त जी को उनकी पत्नियों ने बेसन आदि खाद्य सामग्री का दान दिया कि उनके पति का कार्य निर्विघ्नं सम्पन्न हो। इसीलिए बहन यह पात्र अत्यन्त दिव्य है और इस लीला में प्रयोग हर चीज बैकुण्ठ में संरक्षित रहनी चाहिए। इसपर माता शक्ति मुस्कुरायीं कि आपकी लीला आप ही जाने पर इस पात्र में जो सुन्दर दिव्य फूल हैं वह थोड़े मुझे दे दो जिसे मैं कैलाश ले जा सकूं। तो माता लक्ष्मी जी ने कुछ फूलों का गजरा बनाकर माता भगवती शक्ति के सुन्दर बालों में लगा दिया। 
     सारी लीला के बाद जब भगवान शिव और माता कैलाश पहुंचे तो माता ने भगवान शिव से कहा कि हे! नाथ आपको क्या लगता है कि सरल हृदय चित्रगुप्त जी कभी उग्ररूप धारण कर मेरी तलवार धारण करेगें कभी। तो शिव जी ने कहा,''हां, पार्वती, त्रेता युग में जब भगवान श्री हरि विष्णु श्री राम अवतार में अपने विवाह का निमंत्रण का जिम्मा ऋषि वशिष्ठ को सौंपेगें और ऋषि वशिष्ट के शिष्य यमपुरी से डरत हुए श्री चित्रगुप्त जी तक यह निमंत्रण नहीं पहुंचा सकेगें जिससे श्री चित्रगुप्त जी की धर्म-परायण पत्नियों की जिव्हां /जीभ पर भगवती सरस्वती बैठ कर उनसे श्री चित्रगुप्त जी को उलाहना दिलवा देगीं कि कलम का शायद महत्व कम है इसलिए आपको नहीं बुलाया। तब श्री चित्रगुप्त जी भयंकर क्रोध में कुछ समय के लिए अपनी दिव्य कलम ही रख देगें और आपकी भयावह तलवार धारण करेगें। जिससे तीनों लोक कांपेगें और सृष्टि के प्राणियों के कर्मों के लेख में उथल-पुथल मच जायेगी। पापी स्वर्ग जा रहे होगें साधू नर्क जा रहे होगें। इस पर माता ने कहा फिर क्या होगा महादेव? तो महादेव ने कहा, श्री राम प्रेमपूर्वक अयोध्या में श्री चित्रगुप्त मंदिर पहुंचे जहां चित्रगुप्त मूर्ति भी उन्हें खंडित मिलेगी। तब वह अपने हाथों से श्री चित्रगुप्त जी की मूर्ति बनाकर ऋषि वशिष्ठ के साथ उनकी स्तुति करेगें और जब चित्रगुप्त अपने रोद्ररूप में होगें तो ऋषि वशिष्ठ तक वह रूप देखकर अपनी आंखें बंद कर लेगें। तब श्री राम कहेगें हे! देव  पृथ्वी पर मानवों से भूल हो जाया करतीं हैं। आप तो यमों के यम, धर्मराज भगवान हैं। जिन अष्टलक्ष्मी और मुझ नारायण को पूरा ब्रह्मांड ध्यान करता है तो हे! चित्रगुप्त उसी बैकुंठ में विराजित मैं और मेरी अर्धाांगिनी अष्टलक्ष्मी आपके तप तेेज से पवित्र उस तेजस्वी पवित्र प्रसाद वाले बर्तन का नित्य दर्शन करते हैं और उस लीला का ध्यान करते हैं जब आप तपस्वी ने भूखे प्यासे रहकर आदियोगी भगवान शिव व आदिशक्ति माँ अन्नपूर्णा सहित हम सबको भी अपने हाथ से प्रसाद बनाकर खिलाकर तृप्त कर दिया जोकि अत्यंत विलक्षण है। आपकी शक्ति का कोई पार नहीं है प्रभु। मैं इस समय मानव रूप में हूं। अतः हे! भगवन हम सब की त्रुटियों को क्षमा करें और सपरिवार अयोध्या में सदा सदा के लिये वास करें। तब श्री चित्रगुप्त जी,, भगवान श्री राम से बोले कि हे! लीलाओं में पारंगत प्रभु अपनी यह सब लीला समेट कर मुझे भी मुक्त करें और यह बतायें कि जो प्राणियों के कर्मों के लेखा-जोखा बिगड़ा है उसका क्या होगा? तो भगवान श्री राम अपने विष्णु रूप में प्रगट होकर बोले कि आप उन सबको मोक्ष की सूची में रख दीजिए और आपकी कलम से सबका उद्धार कीजिए, क्षमादान दीजिए । तब श्री चित्रगुप्त जी बोले उसमें तो कुछ बड़े अधर्मी है तो भगवान श्री हरि विष्णु बोलें कि वह सब अपने अनेकों जन्मों में मेरे और मेरे अराध्य शिव - शक्ति के अन्नय भक्त रहे हैं और आप सबके  सभी अपराधों को क्षमा कर दीजिए। तो श्री चित्रगुप्त जी बोले कि आप और शिवजी अपने भक्तों के लिए कैसी - कैसी लीलायें रचते हैं और मुझे भी मुश्किल में डाल देते हैं तो भगवान विष्णु जी ने मुस्कुकुराते हुए कहा हे! चित्रगुप्त उसी सूची में आपके भी अनेकों भक्त हैं। सबका उद्धार करो। कृपा करके अपनी दिव्य कलम पुन: धारण करें। तब श्री चित्रगुप्त जी ने अपनी दिव्य कलम पुन: धारण की और अपनी कलम से भगवान के समस्त भक्तों को मोक्ष प्रदान किया। बाद में भगवान श्री राम ने इस प्राचीन मंदिर का नाम अपने नाम में मिलाकर नया नाम दिया श्री धर्महरि चित्रगुप्त मंदिर, 
अयोध्या । हे! पार्वती यह है अतिगूढ़ भविष्यकथा जो मैंने तुम्हें बताई है।इसलिए कि भविष्य में यह ब्रह्मांड भी कलम की शक्ति से परिचय हो।श्री चित्रगुप्त की महान शक्ति से परिचित हो। इसलिये यह सब लीला मेरे आराध्य भगवान विष्णु जी की इच्छा से योगमाया रचतीं हीं रहती हैं। इसके बाद भगवान शिव पुन: समाधिस्थ हो गये। 

नो ट --विडम्बना है कि इतने पवित्र मंदिर की हालत इतनी बुरी है कि लिखने में भी आंसू निकल पड़ते हैं। आप लोग अपने जीवन की व्यस्त दिनचर्या से थोडा समय निकालकर अपने आराध्य भगवान श्री चित्रगुप्त मंदिर नैमीषारण्य जरूर पहुंचे और जो जिस तरह प्रयास कर सके, वह प्रयास करे जिससे यह पवित्र मंदिर का जल्द से जल्द जीर्णोद्धार प्रारंभ हो सके। 






   
पंच प्रयाग सरोवर

यह एक पक्का सरोवर है। इसके किनारे अक्षयवट नाम का एक वृक्ष हैं।

ललितादेवी मंदिर

यह इस स्थान का एक प्रसिद्ध मंदिर है। इसके साथ ही गोवर्धन महादेव, क्षेमकाया देवी, जानकी कुंड, हनुमान एवं काशी के एक पक्के सरोवर पर मंदिर है। साथ ही अन्नपूर्णा, धर्मराज मंदिर तथा विश्वनाथजी के भी मंदिर स्थित है। जहां पिण्डदान किया जाता है।

व्यास-शुकदेव के स्थान

एक मंदिर के अन्दर शुकदेव की और बाहर व्यास की गद्दी है तथा उसी के पास में मनु और शतरूपा के चबूतरे भी बने हुए हैं।

दशाश्वमेध टीला/पाण्डव किला

टीले पर एक मंदिर में श्रीकृष्ण और पाण्डवों की मूर्तियां भी बनी हुई हैं।

सूतजी का स्थान

एक मंदिर में सूतजी की गद्दी भी स्थित है। वहीं राधा-कृष्ण तथा बलरामजी की मूर्तियां भी बनी हुई हैं।

यहां स्वामी श्रीनारदनंदजी महाराज का आश्रम तथा एक ब्रह्मचर्याश्रम भी है, जहां ब्रह्मचारी प्राचीन पद्धति से शिक्षा प्राप्त करते हैं।आश्रम में साधक लोग साधना की दृष्टि से रहते हैं। धारणा है कि कलयुग में समस्त तीर्थ नैमिष क्षेत्र में ही निवास किया करते हैं।

नैमीषारण्य नाम कैसे पड़ा? 

नैमिषारण्य तीर्थस्थल के बारे में कहा गया है कि महर्षि शौनक के मन में दीर्घकाल व्यापी ज्ञानसत्र करने की इच्छा थी। विष्णु भगवान उनकी आराधना से प्रसन्न होकर उन्हें एक चक्र दिया था और उनसे यह भी कहा कि इस चक्र को चलाते हुए चले जाओ और जिस स्थान पर इस चक्र की नेमि (परिधि) नीचे गिर जाए तो समझ लेना कि वह स्थान पवित्र हो गया है। जब महर्षि शौनक वहां से चक्र को चलाते हुए निकल पड़े और उनके साथ 88000 सहस्र ऋषि भी साथ में चल दिए। जब वे सब उस चक्र के पीछे-पीछे चलने लगे। चलते-चलते अचानक गोमती नदी के किनारे एक वन में चक्र की नेमि गिर गई और वहीं पर वह चक्र भूमि में प्रवेश कर गया। जिससे चक्र की नेमि गिरने से वह क्षेत्र नैमिष कहा जाने लगा। इसी कारण इस स्थान को नैमिषारण्य भी कहा जाने लगा है।

नैमिषारण्य की परिक्रमा का महत्व - 

सीतापुर में स्थित नैमिषारण्य की परिक्रमा 84 कोस की है। यह परिक्रमा प्रतिवर्ष फाल्गुन की अमावस्या से प्रारंभ होकर पूर्णिमा तक पूरी होती है। नैमिषारण्य की छोटी (अंतर्वेदी) में यहां के सभी तीर्थ उनके समक्ष आ जाते हैं।

हे! ईश्वर आप सभी की मनोकामनाएं पूर्ण करें। सबका अच्छा हो।
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