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भौतिक विज्ञान, भारतीय ऋषियों की देन

Today's entire physics is based on the amazing unimaginable knowledge and skills of Indian sages.  Indian sages had written long ago that the earth is round.

यूँहि भारत को विश्व गुरु नहीं कहते दोस्तों! चाहे गति के नियम हों जिन्हें युगों पहले महर्षि कणाद ने लिखे यहां तक की परमाणु कण के विषय में सर्वप्रथम ऋषि कणाद ने 600 बीसी में ही लिख दिया था । सच कहती हूं पूरी भौति विज्ञान यानि फिजिक्स भारत के ऋषियों की ही देन है बाकि विदेशियों ने भारत में घुस कर यहां के ग्रंथों को लूट कर केवल अपना लेबल लगाया है। इसी कड़ी में नाम आता है ऋषि वराहमिहिर का । आप सोच रहे होगें आज ही वराहमिहिर जी की याद क्यों आयी तो बता दूं कि आज 8 जनवरी है और विदेशी कहते हैं कि उन्होंने आज के ही दिन पृथ्वी के परिभ्रमण काल की खोज की पर सच तो यह है कि ऋषि वराहमिहिर यह खोज बहुत पहले ही कर चुके थे जिन्हें नक्षत्र विज्ञान का नक्षत्र ऋषि तक कहा जाता है। 

भारत में ज्योतिष के विद्वानों की लम्बी परम्परा में वराहमिहिर का स्थान आकाश में उदित होने वाले ज्योतिष्मान् नक्षत्र की भांति है। उन्होंने प्राचीन विद्वानों के ज्योतिर्विज्ञान को समेटते हुए अनेक नए अन्वेषण किये तथा बहुमूल्य जानकारियां प्रदान की। वराहमिहिर ने पृथ्वी सहित ग्रहों का सही परिभ्रमण काल की सटीक गणना प्रस्तुत की है। इस देश में प्राचीन काल से ज्योतिष के विद्वानों का अत्यधिक सम्मान रहा है। वेद की एक सूक्ति में कहा है- प्रज्ञानाय नक्षत्रदर्शम् (यजुर्वेद 30.10) अर्थात् सबसे बढिय़ा विज्ञान, सबसे अच्छी प्रतिभा प्राप्त करनी हो तो ‘नक्षत्रदर्श’ के पास जाओ। सचमुच, इस तथ्य की तो कोई गणना ही नहीं कि ग्रहों, नक्षत्रों की गति काल आदि को जानने के लिये ज्योतिष के विद्वानों ने नक्षत्रों की ओर अपलक आँखों से कितनी हजार रात्रियाँ बिताई थी।

आज उपलब्ध परम्परा में वराहमिहिर ने सर्वप्रथम पृथ्वी की परिधि की सही माप बताई थी तथा उसका अपनी कक्षा में परिभ्रमण काल अर्थात् वर्ष का भी सबसे शुद्ध निरूपण किया था। वराहमिहिर ने पृथ्वी की परिधि को कैसे नापा, इसका हम अन्य लेखों में निरूपण करेंगे। यहाँ उनके इस अन्वेषण प्रयोग का परिणाम प्रस्तुत है। उन्होंने पृथ्वी का वर्णन करते हुए 1600 योजन इसका व्यास तथा 1600 ग10 का वर्गमूल अथवा 1600 गपाई इसकी भूपरिधि बताया है। श्लोक इस प्रकार है।

योजनानि शतान्यष्टौ भूकर्णो द्विगुणानि तु।
तद् वर्गतो दशगुणात् पदं भूपरिधिर्भवेत्।।
– सूर्यसिद्धान्त मध्यमाधिकार, श्लोक 59

प्राचीन काल में योजन का मान अनिश्चित रहा है। पर सूर्यसिद्धांत की टीका में बर्गीज ने लिखा है कि ह्वेनसांग के एक विवरण के अनुसार 16000 क्यूबिट या हस्त का एक योजन होता है। डेढ़ फीट का एक हस्त सर्वत्र मान्य है। इस प्रकार 24,000 फीट का एक योजन होगा। इंग्लिश माप के अनुसार 4854 फीट का एक मील होता है। इस प्रकार 4.94 मील का एक योजन सिद्ध होता है। इस गणना के अनुसार 7904 मील पृथ्वी का व्यास तथा 24994 मील भूपरिधि बनती है। इसे आठ बटे पांच से गुणित करने पर 39991 कि.मी. भूपरिधि सिद्ध होती है। यह आधुनिक मान्यता के लगभग बराबर है। इस प्रकार वराहमिहिर ने अपनी रीति से भूपरिधि का सही माप प्राप्त करने में सफलता पाई थी।
पृथ्वी के अपनी कक्षा में एक बार परिभ्रमण का काल अर्थात् वर्षमान को भी उन्होंने अपनी रीति से प्रकट किया है। इसके लिये श्लोक इस प्रकार है-

मानामष्टाक्षिवस्वद्रित्रिद्विद्व्यष्टशेरन्दव:।
भोदया भगणै: स्वै स्वैहनी स्वस्वोदया युगे।।
सूर्यसिद्धान्त, मध्यमाधिकार, श्लोक 34

इसके अनुसार एक महायुग के नाक्षत्र दिवसों 1582237828 में से उसके सौर वर्ष को घटाने पर सौर दिवस ज्ञात होते हैं। अतएव – 1582237828-4320000 = 1577917828 सौर दिवस इस प्रकार 4320000 महायुग के सौर वर्षों में 1577917828 सौर दिवस अत: 1 सौर वर्ष में 1577917828/4320000 = 365.2587564 सौर दिवस अर्थात् 365 दिन 6 घण्टा 12 मिनट, 36 सेकेंड होता है। आधुनिक खगोल विज्ञान की गणना के अनुसार भी एक वर्ष में 365 दिन 6 घण्टा, 9 मिनट 10 सेकेंड होता है। इस प्रकार पूर्वोन्त गणना में केवल 3 मिनट का अन्तर है। इससे स्पष्ट प्रकट होता है कि प्राचीन ज्योतिष के विद्वान वर्ष के सामान्य परिमाप अनुसार 360 दिन तथा सर्वशुद्ध परिमाप अनुसार 365 दिन से भी सर्वथा परिचित थे।
ज्योतिष के विद्वान् इस तथ्य को इस प्रकार कहते हैं कि पृथ्वी एक भगण चक्र में अर्थात् अपनी कक्षा में एक परिभ्रमण चक्र को पूरा करने में 365 दिन लेती है। यह एक परिभ्रमण चक्र पृथ्वी का एक वर्ष है। अत: यह कहना आसान है कि एक वर्ष में 365 दिन होते हैं। बुध आदि ग्रह अपने एक परिभ्रमण चक्र को पूरा करने जितने दिन लेते हैं, वह बुध का वर्ष कहा जाएगा। वराहमिहिर ने महायुग के पूर्वोक्त सौर दिवसों में बनने वाले बुध आदि ग्रहों के कुल वर्षों का भी निर्देश किया है। अर्थात् उन्होंने यह भी बताया है कि बुध आदि के कितने पूर्वोक्त सौर दिवसों के समतुल्य होते है। इससे अनुपात विधि से बुध के एक वर्ष में पृथ्वी के सौर दिवसों की संख्या ज्ञात होती है।


एक महायुग में पृथ्वी के सौर दिवसों की संख्या 1577917828 नियत है। निम्र श्लोक में इस नियत सौर दिवसों में बुध आदि ग्रहों की संख्या बताई गई है।

इन्दो रसाग्रित्रित्रीषु सप्तभूघरमार्गणा:।
दस्रत्र्याष्टरसांकाक्षिलोचनानि कुजस्य तु।
बुधशीघ्रस्य शून्यर्तुखाद्रित्र्यंकनगेन्दन:।
बुहस्पते: खदस्राक्षि वेद षड् वह्नयस्तथा।
सितशीघ्रस्य षट्सप्त त्रियमाश्विखभूघरा।
शनेर्भुजंगषट्पंचरसवेद निशाकरा:।।
– सूर्य सिद्धान्त, मध्यमाधिकार 30/3

अर्थात् महायुग में पृथ्वी के सौर दिवसों 1577917828 के मध्य
बुध की अपनी कक्षा में परिभ्रमण संख्या अर्थात् बुध का वर्ष – 17937060
शुक्र की अपनी कक्षा में परिभ्रमण संख्या अर्थात् शुक्र का वर्ष – 7022376
मंगल की अपनी कक्षा में परिभ्रमण संख्या अर्थात् मंगल का वर्ष – 2296832
बृहस्पति की अपनी कक्षा में परिभ्रमण संख्या अर्थात् बृहस्पति का वर्ष – 364220
शनि की अपनी कक्षा में परिभ्रमण संख्या अर्थात् शनि का वर्ष – 146568
इन सूचनाओं के आधार पर बुध आदि के एक परिभ्रमण को पूरा करने में कितने दिन लगते है, इसे आसानी से जान सकते हैं।
बुध के 17937060 वर्षों में पृथ्वी के सौर दिवस 1577917828। अत: बुध के 17937060 वर्षो में पृथ्वी का सौर दिवस 1577917828/17937060।
यह उल्लेख बहुत सुखद है कि इस विधि से जो परिणाम प्राप्त होते हैं, आधुनिक खगोल विज्ञान की गणना भी उसके निकटतम समतुल्य ही है।
यह उल्लेख कितना सुखद एवं रोचक है कि प्राचीन ज्योतिष के विद्वानों ने विविध ग्रहों के वर्षमान को अतिसूक्ष्मता से ज्ञात करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। उनके इन मानों में आधुनिक विज्ञान से केवल कुछ मिनटों का अन्तर है। उन्होंने इन मानों को प्रतिदिन के वेध के आधार पर प्राप्त किया था। कोई ग्रह जब किसी नक्षत्र के सापेक्ष पुन: जब उसी स्थिति में दृष्टिगोचर होता है। तब उस ग्रह का एक वर्ष पूरा होता है। इस कार्य के लिये विद्वानों को कई पीढियों तक वेध करना पड़ा होगा। उनका यह परिश्रम अकल्पनीय है। हम आज नवीन उपकरणों के युग में उनके इस महान परिश्रम को जल्दी सोच भी नहीं करते।


महाराजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के काल के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री।

 वराह मिहिर का जन्म उज्जैन के समीप कपिथा गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम आदित्यदास था। उन्होंने उनका नाम मिहिर रखा था जिसका अर्थ सूर्य होता है, क्योंकि उनके पिता सूर्य के उपासक थे। इनके भाई का नाम भद्रबाहु था।

 पिता ने मिहिर को भविष्य शास्त्र पढ़ाया था। मिहिर ने राजा विक्रमादित्य द्वितीय के पुत्र की मृत्यु 18 वर्ष की आयु में होगी, इसकी सटीक भविष्यवाणी कर दी थी।

इस भविष्यवाणी के कारण मिहिर को राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने बुलाकर उनकी परीक्षा ली और फिर उनको अपने दरबार के रत्नों में स्थान दिया।  मिहिर ने खगोल और ज्योतिष शास्त्र के कई सिद्धांत को गढ़ा और देश में इस विज्ञान को आगे बढ़ाया। इस योगदान के चलते राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने मिहिर को मगध देश का सर्वोच्च सम्मान 'वराह' प्रदान किया था। उसी दिन से उनका नाम वराह मिहिर हो गया।

वराह मिहिर ही पहले आचार्य हैं जिन्होंने ज्योतिष शास्त्र को सि‍द्धांत, संहिता तथा होरा के रूप में स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया। 

 आर्यभट्ट के प्रभाव के चलते वराह मिहिर की ज्योतिष से खगोल शास्त्र में भी रु‍चि हो गई थी। आर्यभट्ट वराह मिहिर के गुरु थे। आर्यभट्ट की तरह वराह मिहिर का भी कहना था कि पृथ्वी गोल है। विज्ञान के इतिहास में वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया कि सभी वस्तुओं का पृथ्वी की ओर आकर्षित होना किसी अज्ञात बल का आभारी है। सदियों बाद 'न्यूटन' ने इस अज्ञात बल को 'गुरुत्वाकर्षण बल' नाम दिया।

वराहमिहिर के बृहत्संहिता ग्रंथ में 75 वें अध्याय के श्लोक -

वाल्लभ्यमायाति विहाय मानं दौर्भाग्यमापादयतेअभिमानः। कृच्छ्रेण संसाधयतेअभिमानी कार्याण्ययत्नेन वदन् प्रियाणि॥ तेजो न तद्यत्प्रियसाहसत्वं वाक्यं न चानिष्टमसत्प्रणीतम्। कार्यस्य गत्वान्तमनुद्धता ये तेजस्विनस्ते न विकत्थना य् । यः सार्वजन्यं सुभगत्वमिच्छेद्गुणान् स सर्वस्य वदेत्परोक्षम् प्राप्नोति दोषानसतोअप्यनेकान् परस्य यो दोषकथां करोति॥ सर्वोपकारानुगतस्य लोकः सर्वोपकारानुगतो नरस्य् कृत्वोपकारं द्विषतां विपत्सु या कीर्तिरल्पेन न सा शुभेन् ।

लोगों की मदद करते रहें
बृहत्संहिता ग्रंथ का कहना है कि प्राण और पैसों से परोपकार करना चाहिए। क्योंकि दूसरों की मदद से जो पुण्य मिलता है, वो सौ यज्ञों को करने से भी नहीं मिल पाता है। इसके साथ ही दुश्मन का मुश्किल समय हो तब भी उसकी मदद करना महान काम है। लोगों की मदद करने वाले को सभी पसंद करते हैं। ऐसा इंसान कभी परेशानियों में नहीं उलझता।

दूसरों की बुराई न करें
जो दूसरों की बुराई करता है उस पर झूठे आरोप भी लगते हैं। जिससे दूसरों का अपमान हो, ऐसी बातें नहीं बोलनी चाहिए। अपने दोस्तों की गलतियां या बुराइयों की बातें भी अकेले में करनी चाहिए। लेकिन तारीफ सबके सामने करनी चाहिए।

घमंड नहीं करें
आचार्य वराहमिहिर का कहना है कि घमंड करने वाला इंसान दुखी ही रहता है। ऐसा इंसान अपने काम मुश्किल से ही पूरे कर पाता है। सही और गलत की पहचान नहीं कर पाता है। इस कारण कई तरह की बुराई में फंस जाता है। इसलिए घमंड से दूरी बनानी चाहिए।

विनम्रता को अपनाएं
जो इंसान विनम्र होता है वो ही धैर्य से काम करता है। ऐसा इंसान गुस्से पर जीत हासिल कर पाता है। विनम्रता के कारण ही वो अच्छे और बुरे की पहचान कर पाता है। जिससे वो कभी गलत काम नहीं करता। इस कारण ऐसे इंसान को लोग पसंद करते हैं।

हमेशा सच बोलें
आचार्य वराहमिहिर ने अपने ग्रंथ में कहा है कि झूठ बोलने की आदत से इंसान परेशान रहता है। एक झूठ की वजह से किए गए सौ अच्छे कामों का फल भी खत्म हो जाता है। ऐसे इंसान को कभी सम्मान नहीं मिलता है। झूठ बोलने वाले पर कोई भरोसा नहीं करता है। इस तरह सफलता नहीं मिल सकती।

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