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न्यायपालिका की स्वाधीनता व अनुशासन गम्भीर खतरे में -





भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दर्ज, ''हम भारत के लोग'' के स्थान पर, ''हम भारत के नागरिक'' दर्ज करवाने व स्वंय करने के लिए, भारत के निर्वाचन आयोग के द्वारा समस्त मतदाता सूचियों में दर्ज मतदाताओं की नागरिकता की जांच करवाने व स्वंय करने के लिए, समस्त भारतीय नागरिकों को भारतीय नागरिक होने की पहचान का सबूत भारतीय नागरिकता का पहचानपत्र व प्रमाणपत्र अर्थात भारतीय पासपोर्ट दिलवाने व स्वंय देने के लिए, भारत की न्यायपालिका में काफी लम्बे समय से अब तक करोड़ों मुकदमें के विचाराधीन मामले तत्काल निष्पक्ष स्वच्छ व सम्पूर्ण रूप से निस्तारित करवाने व स्वंय करने के लिए क्या भारत की स्वाधीनता से लेकर अब तक के किसी भी राष्ट्रीय सर्वोच्च मुख्य स्व:विवेकवान न्यायाधीश ने, भारत के किसी भी शासक से, अपने भारतीय सर्वोच्च मुख्य विद्वान अधिवक्ता पेशकार साहब को पाने की मांग कर इस मांग को अब तक पूरा करवाया है? यदि नहीं तो क्या यही भारत की न्यायपालिका की स्वाधीनता व अनुशासन है? इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारत के अब तक के समस्त राष्ट्रीय सर्वोच्च स्व:विवेकवान मुख्य न्यायाधीशों की रस्सी तो जल गयी परन्तु उनका ऐंठ नहीं गया। ऐसी स्थिति में भारत के समस्त न्यायाधीशों की प्रतिष्ठा भला कैसे कायम रह सकती है। भारतीय संविधान यदि इतना ही अच्छा होता तो इसके निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर इसे, कानून मंत्री का पद व हिन्दूधर्म त्याग कर बौद्ध भिक्षु ना बन जाते। 



- ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना 

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