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Hindi journalism day : विश्ववास खोती पत्रिकारिता - ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना








हिंदुस्तानियों के हित के हेत' इस उद्देश्य के साथ 30 मई, 1826 को भारत में हिंदी पत्रकारिता की नींव रखी गयी थी । पत्रकारिता के अधिष्ठाता देवर्षि नारद के जयंती प्रसंग (वैशाख कृष्ण पक्ष द्वितीया) पर हिंदी के पहले समाचार-पत्र 'उदंत मार्तंड' का प्रकाशन समाजहित व राष्ट्रहित में शुरू हुआ । इस सुअवसर पर हिंदी पत्रकारिता का सूत्रपात होने पर संपादक पंडित युगलकिशोर समाचार-पत्र के पहले ही पृष्ठ पर उदंत मार्तंड का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा था 'हिंदुस्तानियों के हित के हेत'। 

 उस समय में आज की तरह सिर्फ़ निज स्वार्थ साधना उस समय की पत्रकारिता का उद्देश्य नहीं था। भारत की स्वतंत्रता से पूर्व प्रकाशित ज्यादातर समाचार-पत्र आजादी के आंदोलन के बेहतरीन माध्यम बने और इतिहास साक्षी है कि वह अंग्रेज सरकार के विरुद्ध मुखर रहे। यही रुख उदंत मार्तंड ने भी अपनाया। अत्यंत कठिनाईयों के बाद भी पंडित युगलकिशोर पूरी ईमानदारी और निष्ठा सेे निष्पक्ष उदंत मार्तंड का प्रकाशन करते रहे। किंतु, यह संघर्ष लंबा नहीं चला। हिंदी पत्रकारिता के इस निष्पक्ष बीज की आयु मात्र 79 अंक और लगभग डेढ़ वर्ष ही रही। इस बीज की जीवंंतता से प्रेरणा लेकर बाद में हिंदी के अन्य समाचार-पत्र प्रारंभ हुए। 

आज भारत में हिंदी के समाचार-पत्र सबसे अधिक पढ़े जा रहे हैं। प्रसार संख्या सहित विश्वसनीयता की दृष्टि से शीर्ष पर हिंदी के समाचार-पत्र ही हैं। किंतु, आज हिंदी पत्रकारिता में वह बात नहीं रह गई, जो उदंत मार्तंड में थी। संघर्ष और साहस की कमी कहीं न कहीं दिखाई देती है। दरअसल, उदंत मार्तंड के घोषित उद्देश्य 'हिंदुस्तानियों के हित के हेत' का अभाव आज की हिंदी पत्रकारिता में दिखाई दे रहा है। 

हालाँकि, यह भाव पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है, लेकिन बाजार और राजनैतिक दबाव के बोझ तले दब गया है। व्यक्तिगत तौर पर मैं कह सकत हूँ कि जब तक अंश मात्र भी 'देशहित' पत्रकारिता की प्राथमिकता में है, तब तक ही पत्रकारिता जीवित है, अन्यथा यह पत्रकारिता नहीं।  

समय आ गया है कि एक बार हम ईमानदारी से अपनी पत्रकारीय यात्रा का सिंहावलोकन करें। अपनी पत्रकारिता की प्राथमिकताओं का मंथन करें और जो समय के थपेडों के साथ आयीं राजनैतिक विषंगतियों को दूर करें। आज समाचार-पत्रों या कहें पूरी पत्रकारिता यानि लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को अपना अस्तित्व बचाना बहुत आवश्यक है और उदंत मार्तंड के उद्देश्य को व्यवहार में लाना होगा। अन्यथा राष्ट्र की समूची पत्रकारिता पर अप्रासंगिक होने का खतरा मंडरा ही रहेगा।


सच तो यह है कि आज की पत्रकारिता के समक्ष अनेक प्रकार की चुनौतियां मुंहबांए खड़ी हैं। यह चुनौतियां पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों और विचारों से डिगने के कारण उत्पन्न हुई हैं। आज की पत्रकारिता अपने उद्देश्यों से भटक चुकी है और वह भी पूरी तरह प्रोफेशनल होती जा रही है और आज के आर्थिक युग में जब हम तय सिद्धांतों की मर्यादाओं से हटते हैं तब स्वाभाविक तौर पर अनेकों चुनौतियां हमें घेर लेती हैं और नैतिकता के प्रश्न भी खड़े होने लगते हैं। यही आज मीडिया के साथ घटित हो रहा है। आज मीडिया के समक्ष अनेकों प्रश्न खड़े हैं जैसे- स्वामित्व का प्रश्न? भ्रष्टाचार का प्रश्न? मीडिया संस्थानों में काम करने वाले पत्रकारों का शोषण? पक्षपात का प्रश्न?  किसी राजनैैतिक दल को बढ़ावा देने का प्रश्न?स्वाभिमान और स्वतंत्रता के प्रश्न? वैचारिक पक्षधरता के प्रश्न हैं? 'भारतीयता के भाव' को तिरोहित करने का प्रश्न? और गोदी मीडिया कहलाने का दाग लिये सबसे बड़ा - विश्वसनीयता का प्रश्न? 

यह सब प्रश्न उत्पन्न हुए हैं, आज की मंहगाई, बेरोजगारी से पिसता हर आम और खास यानि पूँजीवादी युग के आज के माहौल से। सच तो यह है कि बड़े लाभ के लिए बड़ा पूँजी निवेश करना पड़ता है और अखबार चलाने के लिये सरकारी विज्ञापन जरूरी, चाहे वो फिर कोई दल दे। वहीं न्यूज चैनल का संचालन के लिए बड़ा पूंजी निवेश जरूरी है। इसी कारण  मौजूदा दौर में मीडिया पूँजीपतियों की कठपुतली वाला खेल हो गया। एक समय में पत्रकारिता के व्यवसाय में पैसा 'बाय प्रोडक्ट' था। लेकिन, उदारीकरण के बाद 'बाय प्रोडक्ट' को प्रमुख मान कर अधिक से अधिक धन उत्पन्न करने के लिए धन्नासेठों ने समाचारों का ही बेधड़क व्यवसायीकरण कर दिया है। यही कारण है कि मीडिया में कभी जो छुट-पुट भ्रष्टाचार था, अब उसने संस्थागत रूप ले लिया है।यह सब देखकर यह कहना गलत ना होगा कि कुछ तथाकथित समाचारपत्र - पत्रिका पहले 'छपते' थे फिर 'बिकते' थे और आज पहले 'बिक' जाते हैं फिर 'छपते' हैं। यही आचरण ईमानदार समाचारपत्रों पर भी हावी होता दिखता रहा है। भ्रष्टाचार का वह मामला वर्ष 2009-10 में सामने आया कि समाचार के बदले अब मीडिया संस्थान ही पैसा लेने लगे हैं। स्थिति यह बनी की देश के नामी-गिरामी समाचार-पत्रों को 'नो पेड न्यूज' का ठप्पा लगाकर समाचार-पत्र प्रकाशित करने पड़े। सच तो यह हैकि, समाचारपत्र मालिकों के आर्थिक स्वार्थ, समाज हितैषी पत्रकारिता पर हावी नहीं होते, तब यह स्थिति ही नहीं बनती।

केवल मालिकों की धन लालसा के कारण ही मीडिया की विश्वसनीयता और प्राथमिकता पर प्रश्न नहीं उठ रहे हैं, बल्कि पत्रकारों की भी इसमें अहम भूमिका है। इस लोकसभा चुनाव 2019 में राजनीति से रंगरेज होती पत्रकारिता का रूप सबने देखा जहां कुछ पत्रकार राजनीतिक पार्टियों के फुल टाईम प्रवक्ता बने हुए हैं। केवल ऑन स्क्रीन ही नहीं, बल्कि ऑफ स्क्रीन भी न्यूज रूम में वह आपस में राजनीतिक प्रवक्ताओं की भांति संबंधित पार्टी का पक्षधर हैं। देखा गया कि कांग्रेस बीट कवर करने वाला पत्रकार कांग्रेस को और भाजपा बीट देखने वाला पत्रकार भाजपा को सही ठहराने के लिए भिड़ गये। वामपंथी पार्टियों के प्रवक्ता तो और भी अधिक हैं। भले ही देश के प्रत्येक कोने से कम्युनिस्ट पार्टियां खत्म हो रही हैं, लेकिन मीडिया में अभी भी कम्युनिस्ट विचारधारा के समर्थक पत्रकारों की संख्या वहीं है। 

हालात यह हैं कि मौजूदा दौर में समाचार माध्यमों की वैचारिक धाराएं स्पष्ट दिखाई दे रही हैं। देश के इतिहास में यह पहली बार है, जब आम समाज यह बात कर रहा है कि फलां टीवी चैनल/अखबार कांग्रेस का है, वामपंथियों का है और फलां टीवी चैनल/अखबार भाजपा-आरएसएस की विचारधारा का है। समाचार माध्यमों को लेकर आम समाज का इस प्रकार चर्चा करना पत्रकारिता की विश्वसनीयता के लिए बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न है। 

कोई समाचार माध्यम जब किसी विचारधारा के साथ नत्थी कर दिया जाता है, तब उसके समाचारों के प्रति दर्शकों/पाठकों में एक पूर्वाग्रह रहता है। वह समाचार माध्यम कितना ही सत्य समाचार प्रकाशित/प्रसारित करे, समाज उसे संदेह की दृष्टि से देखेगा। समाचार माध्यमों को न तो किसी विचारधारा के प्रति अंधभक्त होना चाहिए और न ही अंध विरोधी। 

हालांकि यह भी सर्वमान्य तर्क है कि आज के अर्थ युग में तटस्थता सिर्फ सिद्धांत ही है इसलिये पूरी तरह निष्पक्ष रहना संभव हो ही नहीं सकता।

हालांकि भारत में पत्रकारिता का एक सुदीर्घ सुनहरा इतिहास रहा है, जिसके अनेक पन्नों पर दर्ज है कि पत्रकारिता पक्षधरिता नहीं है। निष्पक्ष पत्रकारिता संभव है। कलम का जनता के पक्ष में चलना ही उसकी सार्थकता है। यदि किसी के लिए निष्पक्षता संभव नहीं भी हो तो न सही पर राष्ट्रवादी कलम का होना बेहद जरूरी है। यह बात इसलिये कह रही हूँ कि पाकिस्तान की जेल में यातना भुगत रहा हिन्दुस्तानी जाधव को बचाने के लिए जब अंतर्राष्ट्रीय अदालत हैग में केस गया तो पाकिस्तानियों ने हिन्दुस्तान के समाचारपत्रों में जाधव के खिलाफ़ लिखे लेख बतौर सबूत प्रस्तुत कर दिए। 

इसलिए भारतीय समाज को पक्षधरता भी स्वीकार्य है लेकिन, उसमें राष्ट्रीय अस्मिता की चुनौती नहीं होनी चाहिए। किसी का पक्ष लेते समय और विपरीत विचार पर कलम तानते समय इतना जरूर ध्यान रखें कि राष्ट्र की प्रतिष्ठा पर आँच न आए और हमारी कलम से किसी निर्दोष की जान न जाये। और हमारी कलम से बहने वाली पत्रकारिता की धारा भारतीय स्वाभिमान, सम्मान और सुरक्षा के विरुद्ध न हो। कहने का अभिप्राय इतना-सा है कि हमारी पत्रकारिता में भी 'राष्ट्र सबसे पहले' का भाव जागृत होना चाहिए। 

वर्तमान पत्रकारिता में इस भाव की अनुपस्थिति दिखाई दे रही है। यदि पत्रकारिता में 'राष्ट्र सबसे पहले' का भाव जाग गया तब पत्रकारिता के समक्ष आकर खड़ी हो गईं ज्यादातर चुनौतियां स्वत: ही समाप्त हो जाएंगी। 

हिंदी के पहले समाचार पत्र उदंत मार्तंड का जो ध्येय वाक्य था- 'हिंदुस्थानियों के हित के हेत'। अर्थात् देशवासियों का हित-साधन। यही तो 'राष्ट्र सबसे पहले' का भाव है। समाज के सामान्य व्यक्ति के हित की चिंता करना। उसको न्याय दिलाना। उसकी बुनियादी समस्याओं को न्यायपूर्ण तरीके से हल करने में सहयोगी बनना। 

-ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना 
न्यूज ऐडीटर सच की दस्तक 


रंगरेज होती पत्रकारिता 
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                     ससम्मान आभार 🙏🙏🙏💐

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