ATUNK KE SAAY
आतंक के साये
(सोचो )
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चोटें लगतीं हैं पिघलती जाती है यादें
कोई जात पे वार करता है
कोई देशों पर वार करता है
पत्थर तो दिन- रात बरसते है
सोचो ये पत्थर बनते कहाँ।।
कहीं जलते है मकां,कहीं बुझते है चिराग
कहीं सुलगते हैं अरमां,कहीं लाशों के धुऐं
कोई कहता है कहीं, सच दिखता नहीं
सिन्दूर उड़ रहा है आज गलियों मैं
सोचो ये मुद्दे जाते कहाँ ।।
सूजी रहतीं है आंखें तस्वीरों के सामने
ख़ामोशी जो देखें घर बन गए शमशान
कोई दोष देता है खुद को, कोई सरकारों को
कफ़न की दुकानें दिन -रात जागतीं हैं
सोचो वो काफिले जाते कहाँ ।।
जिस्मानी ज़ख्म सह लेते है हम
रूह की खरोंचें सही जाती नहीं
कोई छुपाता है कसक,कोई लुटता है हर दिवस
बच्चों का व्यापर पार तक है जाता
'' सोचो '' हम सभलें भी तो जायें कहाँ ।।
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आकांक्षा सक्सेना
बाबरपुर, औरैया
उत्तर प्रदेश
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