कविता - उसे...
उसे......
जो पद के लिये पागल, उसे ज्ञानी कहते हो
जो रब के लिए पागल, उसे जाहिल कहते हो
तुम्हारी सोच को क्या नाम दूँ ऐ! इंसा
जिसे तुम प्रेम कहते हो वह जिस्मों पर खत्म
बस इत्ती सी यात्रा तेरी,
बस इत्ते पर अंहकार का डेरा
जिसकी मंजिल हो निरूत्तर
ऐसी यात्रा का क्या प्रयोजन?
जो भाषा आँसुओं की न जाने
ऐसे से मैं अनपढ़ ही अच्छा..
खिलती धूप की तरह
चाँद बेइंतहा खूबसूरत है
तो चाँदनी रातें इतनी बदनाम क्यूँ है?
चिरागों की रोशनी कभी धुंधली न होगी
अगर सोच का दीपक पाक हो जाये।
शायद कुछ जल रहा है भीतर..
शायद तीली जलाकर,
वह बुझाना भूल गये होगें...
खुद ने कहा फुर्सत में कभी
खुद से भी बात कर...
बहुत भटका है बाहर
एक यात्रा भीतर की भी कर...
अगर गहरे उतरा तो 'उसे' पायेगा
न उतरा तो खुद की
असली सूरत तो देख पायेगा....!!
सुंदर रचना....
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव.....
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