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Loksabha Election 2019 - अबकी बार किसकी सरकार ✍️ ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना


चुनावी घमासान - 2019
अब की बार किसकी सरकार? 

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-आकांक्षा सक्सेना 
न्यूज ऐडीटर सच की दस्तक 


निर्वाचन आयोग की ओर से लोकसभा चुनाव 2019 की घोषणा कर दी गई है। पूरे देश में 11 अप्रैल से लेकर 19 मई तक 7 चरणों में चुनाव होंगे। इस खबर से चुनावी घमासान टीका-टिप्पणियों का दौर जोरों पर है। वहीं पार्टी के नेताओं के बीच टिकट को लेकर खींचतान शुरू हो गई है। बीजेपी सांसद साक्षी महाराज ने टिकट को लेकर अपनी पार्टी को ही धमकी दे डाली। उन्होंने यूपी बीजेपी अध्यक्ष महेंद्र नाथ पांडे को पत्र लिखकर कहा कि अगर उन्हें टिकट नहीं दिया गया तो इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा।अब बात करें कि पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने बीएसपी को उखाड़ दिया था। 

एक सर्वे के मुताबिक एनडीए को 268 से 272, यूपीए को 132 से 136 और अन्य को 137 से 141 सीटें दी गई हैं। हालांकि अगर महागठबंधन होता है तो एनडीए को नुकसान उठाना होगा। सर्वे के मुताबिक NDA का वोट शेयर 34% और UPA का 28% रह सकता है क्योंकि 2014 के आम चुनाव में बीजेपी का वोटशेयर 31.3% था। बीजेपी ने 71 और सहयोगी अपना दल ने 2 सीटें जीती थीं। लेकिन इस बार बीजेपी से टकराने के लिए एसपी और बीएसपी साथ आ गए हैं। ऐसे में अगर बीएसपी, एसपी और आरएलडी का गठबंधन बना रहता है तो बीजेपी को 33 से 37 सीटों से संतोष करना पड़ सकता है। हालांकि इसकी भरपाई पश्चिम बंगाल और उत्तर-पूर्व के राज्यों से होती दिख रही है। 



एसपी-बीएसपी गठबंधन को 41 से 45 और अन्य को 01 से 03 सीटें मिलने का अनुमान है। सीटों के मामले में बीजेपी को अकेले 220 सीटें और उसके गठबंधन सहयोगियों को 44 सीटें मिल सकती हैं। यदि एनडीए वाईएसआर कांग्रेस, मीजो नैशनल फ्रंट (एमएनएफ), बीजेपी और टीआरएस से चुनाव बाद गठबंधन करता है तो उसकी सीटों की संख्या 301 हो जाएगी। जनता का मूड देखने लायक होगा जो बदलाव की साक्षी रही है। बता दें कि वोटों की गिनती 23 मई को होगी। चुनाव की घोषणा के बाद एक सर्वे में दिखाया जा है कि देश की कुल 543 सीटों में से 41 प्रतिशत सीट अर्थात 264 एनडीए के खाते में, 31 प्रतिशत अर्थात 141 सीट यूपीए के खाते में और 28 प्रतिशत अर्थात 138 अन्य के खाते में जाती दिख रही है। बता दें कि सरकार बनाने के लिए कुल 272 सीटों की जरूरत होगी। 



लोगों से की गई बातचीत के आधार पर उत्तर प्रदेश में एसपी-बीएसपी गठबंधन बीजेपी का नुकसान भी कर सकता है। क्योंकि एसपी, बीएसपी वोट बैंक काफी मजबूत है और शत् प्रतिशत वोट करता है पर इससे भी हम इनकार नहीं कर सकते कि देश का एक बहुत बड़ा वर्ग नोटा का पक्षधर भी है जो सब पर भारी पड़ सकता है। 

मौजूदा हालात में यह तो तय है कि आम चुनाव उस परिदृश्य से भिन्न् होगा, जिसका अनुमान लगाया जा रहा रहा था। पहले 14 फरवरी को पुलवामा में एक आतंकी हमले में सीआरपीएफ के 40 जवानों की शहादत के बाद देश का माहौल बदला। फिर इस हमले का बदला लेने के लिए 26 फरवरी को भारतीय वायुसेना की ओर से की गई एयर स्ट्राइक ने दुनिया को चौंका दिया। 

पाकिस्तान ने इस सैन्य कार्रवाई का जवाब देने की कोशिश की, लेकिन उसे नाकामी का सामना करने के साथ भारतीय पायलट विंग कमांडर अभिनंदन को जिनेवा समझौता के तहत लौटाना पड़ा।इस पूरे घटनाक्रम से देश का माहौल और जनता का मूड बिल्कुल बदल गया है। एक तरफ़ ममता बनर्जी ने पुलवामा आतंकी हमले चुनाव के आस-पास क्यूँ हुआ कहकर मोदी जी पर सियासी निशाना लगाने से नहीं चूंकी। वही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी मोदी जी को चोर कहने में नहीं चूके। वही दिग्विजय सिंह ने पाक के पीएम इमरान खान को इमरान जी कहकर शहीदों के शौर्य पर कालिख पोतने का काम किया वहीं नवजाेत सिंह सिद्धू ने एयर स्ट्राइक का सबूत मांग कर पूरे देश के जनमानस की भावनाओं को आहत किया। उन्हें पाकिस्तान भेजने के नारे लगे। 

वहीं विंग कमांडर अभिनंदन जी की वापसी पर भी इमरान के पक्षधर इमरान को धन्यवाद देते दिखे और मोदी जी का खुलकर विरोधी ट्वीट करने से नहीं चूके। इसमें पाक परस्त महबूबा मुफ्ती कहां पीछे रहने वाली थीं। महबूबा मुफ्ती ने तो जयहिंद कहना मोदी जी के चुनाव जीतने की तरकीब में शामिल बताया।उनकी इस सोच ने जयहिंद जैसे देशभक्ति के पवित्र नारे को भी अपनी गंदी राजनीति के तराज में तौल दिया और रही बची कसर सोशल मीडिया और टीवी चैनलों ने यह कहकर पूरी कर रखी है कि चुनावी मौसम में पवित्र नवरात्रि व पाक रमजान शुरू रहा है जिससे राजनीति वोट गणित गड़बडा सकता है। इस हिन्दू-मुस्लिम त्यौहारों को चुनावी घमासान से जोड़कर उन तथाकथित कुछ टीवी चैनलों का जमकर विरोध भी होता दिखा। क्या यह सब लांछन लगाना है या प्रश्न पूछना या फिर देश की राजनीति यहां तक गिर गयी कि शीर्ष पदों पर बैठे लोग ही अमर्यादित भाषा यूज करेगें तो आमजन क्या सीखेगा।

हाँ यह एक तथ्य है कि राफेल सौदे को विवादास्पद बताने के लिए झूठ गढ़े गये। राफेल फाइल चोरी हो गई यह बात भी खूब उझाली गयी। जबकि  राफेल डील से जुड़े कुछ दस्तावेज चोरी हो गए, अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सफाई देते हुए कहा कि राफेल दस्तावेज रक्षा मंत्रालय से चुराए नहीं गये और सुप्रीम कोर्ट में उनकी बात का मतलब यह था कि याचिकाकर्ताओं ने आवेदन में उन ‘मूल कागजात की फोटोकॉपियों' का इस्तेमाल किया जिसे सरकार ने गोपनीय माना है।इस बयान के बाद न सिर्फ सरकार की आलोचना हुई। हां ये सच है कि कागज चोरी शब्द यूज करते समय अटार्नी जनरल को सोच लेना चाहिए था जो आज उनकी सफाई कोई काम नहीं आ रही। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी इतने संवेदनशील कागजात के चोरी होने पर सरकार पर निशाना साधा और जांच की मांग की। 

पर इस बात ने सियासत गर्मा गयी और गालीगलौज के तीर आर-पार होने लगे। समझ नहीं आता कि जब पार्टी प्रमुख ऐसा करते हैं तो कार्यकर्ता और अधिक बेलगाम हो जाते हैं। वे सोशल मीडिया पर भद्दी और ओछी टिप्पणियां करके आमजन को भ्रामक स्थति में डालते हैं और एक-दूसरे से होड़ करते दिखते हैं। दुर्भाग्यवश कुछ ऐसी ही होड़ पान की दुकान से लेकर खेतों और कॉलेज तक पहुंच गयी और इस चुनावी घमासान के आरोप-प्रत्यारोप के कारण आमजन भी आपसी सम्बन्ध खराब कर रहे हैं और समाज में तनाव फैल रहा है। पूरे साल केवल चुनावी जंग छिड़ी रहती है। 




 यह बदला हुआ माहौल आम चुनाव पर भी असर डालता दिख रहा है। पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए की गई कार्रवाई पर देश की जनता न केवल सरकार के साथ खड़ी है। उसे यह पता है कि मोदी सरकार ने राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए दो बार पाकिस्तान पर धावा बोला- पहले सर्जिकल स्ट्राइक के रूप में और फिर एयर स्ट्राइक के रूप में। ये दोनों सैन्य कार्रवाइयां पिछली सरकारों के रवैये के उलट रहीं। आम लोग इस राजनीतिक इच्छाशक्ति के कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष में हैं। 

इसका मोदी को राजनीतिक लाभ मिलता भी दिख रहा है। यह सही है कि विपक्षी दल भाजपा का मुकाबला करने के लिए गठबंधन की राजनीति पर बल दे रहे हैं, लेकिन वे इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि बालाकोट हमले के बाद देश में जो माहौल बना है, उसमें औसत मतदाता जाति-मजहब के आधार पर वोट देने की मानसिकता से ऊपर उठकर मतदान कर सकता है। दूसरी तरफ़ सामाान्य जन को दस फीसदी आरक्षण देकर व देेश के अन्नदाताओं के खात मेंं डायरेक्ट धनराशि पहुंचाकर, उज्जवला योजना से हर गरीब के रसोईगैस व हर गांव बिजली पहुंचाकर मोदी जी ने काफी हद तक लोगों का दिल जीता है और पाक पर की गई  कार्रवाई से देशवासी गदगद हैंं। 

 विपक्ष के सामने समस्या केवल यह नहीं है कि चुनाव के ठीक पहले मोदी एक मजबूत नेता के तौर पर फिर से उभर आए हैं, बल्कि यह भी है कि राष्ट्रीय दल के रूप में जहां कांग्रेस बेहद कमजोर है, वहीं क्षेत्रीय दल केवल अपने-अपने गढ़ तक ही सीमित हैं। वे अपने गढ़ों में कांग्रेस को ज्यादा सीटें देने को भी तैयार नहीं। इससे इनकार नहीं कि कुछ क्षेत्रीय दल अपने-अपने राज्य में पहले जैसे मजबूत दिख रहे हैं, लेकिन राष्ट्रीय मसलों और खासकर महिला सुरक्षा को लेकर उनके पास कोई ठोस विचार नहीं। आज का वोटर बहुत सजग और चैतन्य है वह हवाई सपनों में नही जीता वह जमीनी स्तर पर रोटी और रोजगार जैसे सही मुद्दे पर पूरी तरह केन्द्रित है। जाति पात धर्म का वो समय बीत रहा है आज देश के जनता को रोजगार चाहिए अच्छा लाईफ स्टाइल चाहिए और वह बिल्कुल राजनीतिक पचड़े में पड़ना नहीं चाहती। क्यों देश बदल रहा है। आज के मतदाताओं को यह भी खूब पता है कि क्षेत्रीय दलों का कोई भी नेता बिना गठबंधन अपने बलबूते प्रधानमंत्री बनने में समर्थ नही और वह इससे तो पहले से परिचित है कि गठबंधन सरकारें किस तरह की लाचारियों और मजबूरियों से ग्रस्त होती हैं। इसी माहौल को देखते हुए हर आम जनमानस के मन में ऊहापोह की स्थिति बरकरार है और मन में यही सवाल है कि अबकी बार किसकी सरकार? 


       अब सवाल उठता है कि आखिर! कब तक आमजन बुआ - बबुआ सुनेगा मोदी - राहुल, संसद में आंख मारने जैसी कॉमेडी देखेगा? आखिर! विकास की बात कब होगी? कब होगी रोजगार की बात।कब होगी वाराणसी के बुनकरों की बात? कब होगी वाराणसी के उस गांव की बात जहां ज्यादातर बच्चे पानी में आर्सेनिक की अधिक मात्रा के कारण विकलांग हो रहे। कब होगी सड़क पर पड़े उस गरीब की बात? कब होगी बालश्रमिकों की बात और कब होगी दहेज से झुलसती कोर्ट के चक्कर काटतीं उन निर्दोष बच्चियों की बात? इन पीड़िताओं को आरक्षण मिलने की बात कब होगी? 

            मुश्किल यह है कि लोकतंत्र की दुहाई देने और राजनीतिक शुचिता की बातें करने वाले नेता इन सच्चे मुद्दों के लिए कुछ भी नहीं कर रहे उन्हें तो हर किसी का वोट चाहिए पर हर किसी को न्याय नहीं दे सकते बस सबको चुनाव जीतना है। अगर राजनीतिक पार्टियां राजनीतिक बात-विमर्श के स्तर को ठीक करने की परवाह नहीं की जाएगी, आवाज न उठायी जायेगी तो भविष्य में भारतीय राजनीति और अधिक बदनाम होगी जिसके परिणाम किसी और को नहीं बल्कि हम सबको व हमारी आने वाली पीढ़ियों को भुगतने पड़ेगें। 


-ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना 







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