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सोनभद्र कांड की पुनरावृत्ति कभी ना हो - ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना

सोनभद्र कांड की पुनरावृत्ति कभी ना हो के लिए ठोस कदम उठाए सरकार -


बीते 17 जनवरी को घोरावल तहसील के उभ्भागांव में हुए भयावह नरसंहार- हत्याकांड या कहें कि गरीबों के खूनी संघर्ष की जांच के लिए शासन की टीम सोनभद्र में पूछताछ कर कई जवाब हासिल करने में जुटी है। इस बीच भाजपा की सहयोगी पार्टी अपना दल (एस) से दुद्धी विधायक हरिराम के एक पत्र  ने शासन - प्रशासन को संशय में डाल रखा है।इस वायरल पत्र में विधायक ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को जमीनी विवाद को लेकर बहुत पहले ही आगाह कर दिया था। यह पत्र इसी साल 14 जनवरी 2019 को लिखा गया था जिसमें आरोप लगाया था कि भूमाफिया आदिवासियों की पैतृक जमीन जबरन हड़पने के चक्कर में षड्यंत्र रच रहे हैं। विधायक ने इस पत्र की पुष्टि भी की और यह भी कहा कि इस शिकायत को संज्ञान में नहीं लिया गया। 


सोनभद्र सहित हर तरफ़ यही चर्चा है कि जब मुख्यमंत्री कार्यालय को उभ्भा की भूमि की समस्या को लेकर पत्र पहले ही लिखा गया था तो उसे संज्ञान में क्यों नहीं लिया गया? अगर उसी समय पर समस्या का समाधान कर लिया गया होता तो संघर्षरत इन 10 गरीबों की जान ना जाती और इनके बच्चे व परिवार यूँ बर्बाद ना होते। सवाल उठता है  आखिर क्या कारण है कि एक गठबंधन पार्टी के मौजूदा विधायक की बात को नजरअंदाज किया गया। बता दें कि घोरावल तहसील के उभ्भा गांव के आदिवासियों की जमीन इनकी गरीबी, अज्ञानता का फायदा उठाकर भू-माफियाओं ने षड्यंत्र के तहत छीन ली गई । यहां के गरीब आदिवासी गोड़ जाति के लोग जो आजादी के पहले से ही ग्राम उम्भा में रहकर ग्राम समाज की जमीन पर खेती कर मकान बना कर रहे हैं। यह भी बात जगजाहिर है कि ग्राम समाज की जमीन पर उभ्भा गांव के 1200 लोग अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं। इन आदिवासियों के पूर्वज गरीब और अशिक्षित होने के कारण जमीन अपने नाम नहीं करा पाए हैं। इसी का फायदा भू-माफिया महेश्वरी प्रसाद नारायण सिन्हा ने एक सहकारी समिति बनाकर तत्कालीन उप जिलाधिकारी व तहसीलदार से साठगांठ कर करीब छह सौ बीघा गोड़ आदिवासियों के कब्जे वाली ग्राम समाज की जमीन 17 दिसंबर 1955 को अपनी सोसाइटी चुपचाप आदर्श को-ऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड के नाम करा ली।


इस सोसाइटी की जिले में एक भी शाखा नहीं है और ना ही कोई प्रतिनिधि है। इससे स्पष्ट है कि यह सोसाइटी पूरी तरह फर्जी है। वर्तमान में उस जमीन में से करीब दो सौ बीघा जमीन माहेश्वरी नारायण सिन्हा के वारिस आशा मिश्रा और विनिता शर्मा ने अधिकारियों से मिलीभगत कर ग्राम मूर्तिया के वर्तमान प्रधान यज्ञदत्त भूर्तिया औरग्राम प्रधान के रिश्तेदारों को बेच कर बड़ा मुनाफा कमाया है।

ग्राम प्रधान के साथ अन्य लोग व आशा मिश्रा एवं विनिता जमीन को कब्जा करने के लिए उभ्भाग्राम के आदिवासियों पर फर्जी मुकदमा कर रहे हैं। विधायक ने पत्र में अनुरोध किया था कि जनहित और आदिवासी पर हो रहे अन्याय को ध्यान में लेते हुए इस प्रकरण की किसी बड़ी एजेंसी से निष्पक्ष जांच कराकर दोषियों के खिलाफ़ कड़ी से कड़ी कार्रवाई करावायी जाए पर उनके लिए यह पत्र एक सपना या कहें कि सिर्फ़ कागज़ का टुकड़ा बनकर ही रह गया। अब सवाल उठता है कि वह जमीन जिसपर खून खराबा हुआ वह तो सरकारी जमीन थी तो क्या सरकार को कुछ षड्यंत्रकारियों के जाल में फंसना चाहिए और क्या सरकारी जमीन लोगों को यूं ही बांट देनी चाहिए? विचार तो इस पर भी होना चाहिए। पर विचार तो सिर्फ विचारकों के माथे है और सरकार तो अपना स्वार्थ साधती है तभी तो प्रियंका गांधी लोहिया व अपनी दीदी के अवतार में भरी गर्मी में सिर पर पल्लू बांध कर पीड़ितों से मिलने खातिर अनसन तक पर बैठ गयीं और उनके इस हाई बोल्टेज अनसन की गर्मी ने यूपी सरकार तक की कुर्सी को हिला डाला। बाद में शासन प्रशासन को झुकना पड़ा और प्रियंका गांधी ना सिर्फ़ पीड़ितों से मिलीं बल्कि उनका दर्द बांटा और मदद राशि तक मुहैय्या कराने की खबरे हैं। अब जो लोग कांग्रेस को निष्प्राण समझ बैठे थे, उन लोगों को विश्वास हो गया कि अब कांग्रेस को उसका मजबूत नेता मिल गया। जिस तरह लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के बाद राहुल गांधी ने पहले ही हथियार डाल दिये थे और अपने पद से भी इस्तीफे की पेशकश कर रखी है और कांग्रेस को यह बता दिया है कि उन्हें अब अध्यक्ष ना माना जाए। 


प्रियंका गांधी वाड्रा ने अगर अचानक सोनभद्र जाने का जोखिम ना लिया होता तो मीडिया में उनकी तारीफें ना होती, हो सकता है इसके पीछे गांधी परिवार की सुनियोजित रणनीति रही हो कि कांग्रेस की अध्यक्षपद परिवार में ही रहने का रास्ता बना रहे। दूसरा बड़ा मकसद प्रियंका गांधी का योगी सरकार को घेरना रहा। लेकिन योगी आदित्यनाथ भी राजनीति के पुराने कुशल खिलाड़ी हैं। उन्होंने प्रियंका को उम्भा गांव जाने ही नहीं दिया। उम्भा गांव के पीड़ित परिवारों को ही चुनार गेस्ट हाउस में उनसे मिलवा कर बड़ी आसानी से कांटा निकाल दिया । मतलब सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी। जिस समय प्रियंका पीड़ित परिवारों से मिल रही थीं, उसी समय सांसद, विधायक और जिला प्रशासन के लोग सामूहिक हत्याकांड में मारे गए लोगों के परिजनों को पांच-पांच लाख रुपये मुआवजा बांट रहे थे। दूसरे दिन खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उम्भा गांव पहुंच गए और सभी 21 घायलों को ढाई-ढाई लाख देने की घोषणा कर दी। घायलों के परिजनों को 50-50 हजार के चेक तो उन्होंने अपने हाथ से ही बांट कर प्रियंका का पसीना उड़ा दिया। ग्रामीणों ने मुख्यमंत्री को बताया कि उनके बच्चों को ग्राम प्रधान और उनके गुर्गों द्वारा तालाब में फेंकने की धमकी दी जा रही है। इस पर मुख्यमंत्री ने गांव में पुलिस चौकी खोलने की बेहतरीन घोषणा कर दी और इस बात का आश्वासन भी दिया कि एक भी दोषी बख्शा नहीं जाएगा। पीड़ितों की हर संभव मदद करना उन्होंने सरकार की प्राथमिकता बताया। इस बात का भी वादा कर दिया कि जो जहां खेत जोत रहा है, वह वहीं जोतेगा।


अब सवाल यह उठता है कि सरकार तभी क्यों जागती है जब बड़ी अप्रिय घटना हो जाती है। कानून तो इस तरह के होने चाहिए कि इस तरह की घटनाएं हो ही ना । क्या मुआवजा देना या राहतों का पिटारा खोल देना उन गरीब बच्चों की पिता की कमी पूरा कर सकता है। उम्भा गांव में जो कुछ भी हुआ है, उसकी जड़ में नौकरशाही ही जिम्मेदार है। उभ्भा गांव का संघर्ष 639 बीघे भूमि का है। मध्य प्रदेश की सीमा से सटे जंगली इलाके की घोरावर ग्राम पंचायत में 1200 बीघा भूमि ग्राम पंचायत की है, जिस पर वहां के लोग खेती कर रहे हैं। इसी जमीन में से फर्जी सोसायटी बनाकर उम्भा में 639 बीघा जमीन को हड़प लिया गया। 


ग्रामीणों से तो कहा गया कि जमीन उन्हीं के कब्जे में है लेकिन इसके बदले उनसे लेबी के रूप में तीन हजार रुपये लिया जाता रहा। कागजों पर इस जमीन की खरीद-फरोख्त भी होती रही। करीब 600 बीघा और जमीन मूर्तिया व सपही में है। भूमि विवाद की शुरुआत 1952 में आईएएस प्रभात कुमार मिश्रा ने अपने परिवार के सदस्यों के नाम पर एक सोसायटी की स्थापना करके की थी। उन्होंने ही इस सोसायटी को 112 बीघा के इस विवादित प्लॉट का संरक्षक नियुक्त किया था। ग्रामीणों की मानें तो यह जमीन ग्राम सभा की है। गांव वाले और सोसायटी के बीच तभी से कानूनी लड़ाई चलती चली आ रही है और देश का लचर कानून ऐसा है कि पीढ़ियां बीत जातीं पर मुकदमे चलते रहते और न्याय के लिए तरसते नैन यूंही गमकदा रहते। 


सच तो यह है कि यह 600 बीघे जमीन राजा बड़हर आनंद ब्रह्म शाह की थी। जमींदारी प्रथा समाप्त होने के बाद इस जमीन को राजस्व अभिलेखों में बंजर घोषित करके इसे ग्राम सभा की संपत्ति के रूप में दर्ज कर दिया गया। गांव के लोग इसे 1952 तक जोतते रहे। 1952 में प्रभात कुमार मिश्रा ने आदर्श कोऑपरेटिव सोसायटी लिमिटेड ऑफ उम्भा की स्थापना की। अपने ससुर और मुजफ्फरपुर, बिहार के निवासी माहेश्वरी प्रसाद सिन्हा को सोसायटी का अध्यक्ष और पत्नी आशा मिश्रा को सचिव बना दिया। अपनी बेटी विनिता को मैनेजर बनाते हए कुल 463 बीघा जमीन उनके नाम रजिस्ट्री कर दी। सिन्हा की मृत्यु के बाद 6 सितंबर 1989 को 200 बीघा जमीन आशा और विनिता के नाम ट्रांसफर कर दी गई। इसमें से 144 बीघा जमीन ग्राम प्रधान भुर्तिया को 2 करोड़ रुपये में बेच दी गई। 1952 से यह खेल चलता रहा और राजस्व विभाग अंध और मूकदर्शक बना रहा। जिला और पुलिस प्रशासन भी चुप्पी साधे रहा। 


ग्राम पंचायत की भूमि किसी सोसायटी को कैसे दी जा सकती है? या उस भूमि पर बिना किसी वाजिब पट्टे के कोई खेती कैसे कर सकता है? इस बाबत भी जिला और तहसील प्रशासन ने विचार नहीं किया। 19 अक्टूबर 2017 को एक आवेदन दाखिल किया गया जिसमें जमीन का नामांतरण भुर्तिया के नाम पर होना था। जब ग्रामीणों को इस बात का पता चला तो वे तत्कालीन जिलाधिकारी अमित कुमार सिंह के पास पहुंचे। जिलाधिकारी ने असिस्टेंट रेवेन्यू ऑफिसर को आदेश दिया कि वह यह जांच करें कि यह जमीन सोसायटी और फिर भुर्तिया के नाम पर कैसे ट्रांसफर हुई? उस आदेश का क्या हुआ, यह किसी को भी पता नहीं। रही बात ग्रामीणों की तो वे लंबे समय से आईएएस के आदमी को तीन हजार रुपये प्रति बीघा के हिसाब से भुगतान करते आ रहे थे। जब उन्हें पता था कि यह भूमि सरकारी है तो वे किसी तीसरे व्यक्ति को भुगतान क्यों कर रहे थे? बिना जिला और पुलिस प्रशासन के सहयोग के यह सब तो हुआ नहीं होगा। सोसायटी रॉबर्ट्सगंज में रजिस्टर हुई और तहसीलदार ने ग्राम सभा की जमीन सोसायटी को हस्तांतरित कर दी और जिले और प्रदेश के अधिकारियों यहां तक कि राजस्व विभाग को कानों कान खबर भी नहीं हुई, यह कैसे हो सकता है? 1961 तक यह अधिकार जब तहसीलदार के पास था ही नहीं तो उसने किसी सोसायटी को ग्राम समाज की भूमि स्थानांतरित कैसे कर दी? यह अपने आप में बड़ा सवाल है। ग्राम समाज की भूमि अगर उसी समय गांव के आदिवासियों और गरीब-गुरबों में बांट दी गई होती, उनके नाम पट्टा कर दी गई होती तो उस पर कब्जे की नौबत न आती। सरकार को करोड़ों रुपये मुआवजा न देने पड़ते।


अच्छा होता कि सरकार सीबीआई जांच कराये और कानून में बदलाव कर तुरंत न्याय की व्यवस्था करे और षड्यंत्रकारियों को जेल में ठूसे व उनसे राजस्व को अब तक हुए नुकसान की पूरी तरह भरपाई भी करवाये।  सरकार को सरकारी भूमि पर कब्जे के खिलाफ़ देशव्यापी अभियान चलाना चाहिए, ताकि भ्रष्टाचार के छिपे सफेदपोश बेनकाब हो सकें और सोनभद्र हत्याकांड की कहीं भी पुनरावृत्ति ना हो सके और उसके रोकथाम पर कमेटियां गठित हों और अधिकारी सजग हों जिससे इस तरह के मानवता की जड़े हिला देने वाले भयावह नरसंहार - हत्याकांड के कारण उन गरीबों के बच्चों से उनके माता-पिता वा उनका हक ना छिन सके । 

वंदेमातरम् 🇮🇳






- ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना
न्यूज ऐडीटर सच की दस्तक राष्ट्रीय मासिक पत्रिका वाराणसी उत्तर प्रदेश 

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