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अखंडता और स्वाधीनता की महान विभूति स्वामी विवेकानंद और नेता जी सुभाषचंद्र बोस


26 जनवरी पर विशेष :


अखंडता और स्वाधीनता की महान विभूति
स्वामी विवेकानंद और नेता जी सुभाषचंद्र बोस
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- आकांक्षा सक्सेना 
न्यूज ऐडीटर सच की दस्तक 


जब भी 'भारतीयता' शब्द की कहीं गूँज सुनाई पड़ती है तो ऐसा सम्भव ही नहीं कि उस गूँज में स्वामी विवेकानंद और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम का लोप हो। क्योंकि प्रेम एकता शांति सम्मान और स्वाधीनता की जो मशाल इन महाविभूतियों ने जलायी उसकी तपिश उसी तरह शीतलता प्रदान करती है जैसे पूस की रात में अँगीठी की आंच। आज गणतंत्रातिक आजादी 26 जनवरी राष्ट्रपर्व मना रहे हैं तो यह सम्भव ही नहीं कि आजादी शब्द आये और आजादी के महानायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस जी याद न आयें।

            आज पूूरा देश 23 जनवरी को नेताजी की 123वींं जयंती के साथ गणतंत्र दिवस की खुशियों में सराबोर  है। आज ही के दिन 26 जनवरी 1950 को हमारे देश में संविधान लागू हुआ, जिसके उपलक्ष्य में हम 26 जनवरी (26th January) को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते हैं। एक स्वतंत्र गणराज्य बनने के लिए भारतीय संविधान सभा द्वारा 26 नवंबर 1949 को संविधान अपनाया गया था, लेकिन इसे लागू 26 जनवरी 1950 में किया गया था। बता दें कि अपना संविधान विश्व के किसी भी गणतांत्रिक देश का हस्तलिखित सबसे लंबा लिखित संविधान है जिसे हिंदी और अंग्रेजी भाषा में बहुत मेहनत से श्री प्रेम बिहारी नारायण रायज़ादा जी ने लिखा था। 

         सच तो यह है कि 'लोकतंत्र' कहो या 'गणतंत्र' पर 'आजादी' शब्द गहरे दिल के मोती सी चमक रखता है। लेकिन आज के बदलती कलयुगी राजनैतिक संक्रमित हँवाओं ने इस खूबसूरत आजादी शब्द को ऐसे धूमिल और कलंकित किया है जिसे कलमबद्ध करना भी कलम का अपमान होगा। आज कल जो देश विरोधी ताकतें हमारे काबिल युवाओं को जिस तरह गलत आजादी के मायने समझा कर बरगला रहीं हैं वह किसी से अब छुपा नहीं रह गया है जबकि यह देश स्वामी विवेकानंद और नेताजी सुभाष चंद्र बोस जी, भगत सिंह, खुदीराम बोस, चंद्रशेखर आजाद व लक्ष्मी बाई जैसे अनेकों महान युवाओं का देश रहा है जिन्होंने देश की तकदीर से साथ ही तस्वीर तक बदल दी वो भी पूरे विश्व की। विश्व परिवर्तन की वो लहर जो शिकागो में गूँजायमान हुई जिसने भारत किया था 'भारतीयता' 'युवा' शब्द को साबित किया। 
   
     हम बात कर रहे हैं भारत के महारत्न स्वामी विवेकानंद जी का अवतरण 12 जनवरी,1863 को पिता विश्वनाथ दत्त व माता का भुवनेश्वरी देवी के घर बंगाल के एक कुलीन परिवार में हुआ था। वह वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। आज पूरा भारतवर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार सन् १९८४ ई. को 'अन्तरराष्ट्रीय युवा वर्ष' घोषित किया गया है, मना रहा है। इसके महत्त्व का विचार करते हुए भारत सरकार ने घोषणा की कि सन १९८४ से 12 जनवरी यानी स्वामी विवेकानन्द जयन्ती का दिन राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में देशभर में सर्वत्र मनाया जाए।ऐसा अनुभव हुआ कि स्वामी जी का दर्शन एवं स्वामी जी के जीवन तथा कार्य के पश्चात निहित उनका आदर्श—यही भारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है। कौन भूल सकता है स्वामी विवेकानंद जी का वह भाषण, शिकागो में सन् १८९३ में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से शून्य पर बोलकर सनातन धर्म का ऐसा प्रतिनिधित्व किया था जिसे दुनिया आज भी हमने दिलों में संजोए हुए है। वह प्राचीन भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वाक सिद्धी के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। उन्हें प्रमुख रूप से उनके भाषण की शुरुआत "मेरे भाइयों एवं बहनों" के साथ करने के लिये जाना जाता है। उनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था। उन्होंने पूरे विश्व को खुले दिल से शांति और प्रेमपूर्ण सम्बोधन संदेश में कहा था कि आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि - कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।

           मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत- दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने महान जरथुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है।  जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।
      यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है:
         ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
    अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।
      साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया हैं और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।
         गौरतलब हो कि विवेकानंद कलकत्ता के एक कुलीन बंगाली परिवार में जन्में और बचपन से ही आध्यात्मिकता की ओर नतमस्तक थे। वे अपने गुरु रामकृष्ण देव से काफी प्रभावित थे जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीव स्वयं परमात्मा का ही एक अवतार हैं; इसलिए मानव जाति की सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है। रामकृष्ण की मृत्यु के बाद विवेकानंद ने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप का दौरा किया और ब्रिटिश भारत में मौजूदा स्थितियों का पहले हाथ ज्ञान हासिल किया। बाद में विश्व धर्म संसद 1893 में भारत का प्रतिनिधित्व करने, संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए कूच की। विवेकानंद के संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप में हिंदू दर्शन के सिद्धांतों का प्रसार किया , सैकड़ों सार्वजनिक और निजी व्याख्यानों का आयोजन किया। 

        भारत में, विवेकानंद को एक देशभक्त महासंत के रूप में माना जाता है। ऐसे योगी महामनीषी भारत के रत्न को भी जातिपात विचारधारा का घूंट उस वक्त पीना पड़ा जब एक सभा में कुछ लोगों ने उनसे उनकी जाति पूछ ली तो उन्होंने बड़े ही गर्व से  जाति अथवा वर्ण के बारे में बोलते हुए विवेकानंद ने कहा था “मैं उस महापुरुष का वंशधर हूँ, जिनके चरण कमलों पर प्रत्येक ब्राह्मण ‘‘यमाय धर्मराजाय चित्रगुप्ताय वै नमः’’ का उच्चारण करते हुए पुष्पांजलि प्रदान करता है और जिनके वंशज विशुद्ध रूप से क्षत्रिय हैं। यदि अपनें पुराणों पर विश्वास हो तो, इन समाज सुधारकों को जान लेना चाहिए कि मेरी जाति ने पुराने जमानें में अन्य सेवाओं के अतिरिक्त कई शताब्दियों तक आधे भारत पर शासन किया था। यदि मेरी जाति की गणना छोड़ दी जाये, तो भारत की वर्तमान सभ्यता का शेष क्या रहेगा ? अकेले बंगाल में ही मेरी जाति में सबसे बड़े कवि, सबसे बड़े इतिहास वेत्ता, सबसे बड़े दार्शनिक, सबसे बड़े लेखक और सबसे बड़े धर्म प्रचारक हुए हैं। मेरी ही जाति ने वर्तमान समय के सबसे बड़े वैज्ञानिक से इस भारत वर्ष को विभूषित किया है।’’रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था-"उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे।

      बता दें कि आजादी के महानायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी इसी कायस्थ जाति में अवतरित हुए। उनका जन्म 23 जनवरी 1897 को ओडिशा के कटक में संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस था जबकि उनकी मां का नाम प्रभावती था। यह महाकाली और भगवान श्री चित्रगुप्त जी के अनन्य भक्त हुए और विवेकानंद, स्वामी रामकृष्ण परमहंस उनके गुरू हुए । उन्होंने विवेकानन्द के सबसे निचले स्तर के व्यक्ति को उच्चतम स्तर पहुँचाने के संकल्प को अपने जीवन में उतारा और विद्यार्थी जीवन से ही देश सेवा में लग गए। सच तो यह है कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक तिहाई योगदान क्रांतिकारियों का, एक तिहाई अन्य लोगों का रहा। जबकि शेष एक तिहाई अकेले नेता जी सुभाष चन्द्र बोस का रहा। गौरतलब है कि उन्होंने 22 वर्ष की आयु में आईसीएस की परीक्षा पास कर देश सेवा के लिए नौकरी छोड़ी। वहीं 27 वर्ष की उम्र में कोलकत्ता के मेयर बने और 41 वर्ष की उम्र में कांग्रेस के अध्यक्ष बने और बाद में आजाद हिन्द फौज के माध्यम से देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

        सुभाष चन्द्र बोस जो नेता जी के नाम से भी जाने जाते हैं, भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी तथा सबसे बड़े लीडर थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द का नारा भारत का जीवंत राष्ट्रीय नारा, बन गया है। नेताजी ने देश सेवा को सर्वोपरि माना और इसके लिए उन्होंने अपना सब कुछ न्यौछावर कर देश के ही गद्दारों के कारण उन्हें गुमनामी मिली जिसपर उन्हें गर्व है क्योंकि उन्होंने गलत के सामने झुकना मंजूर नहीं किया और उन्होंने साबित किया कि राष्ट्रभक्त जासूस(खूफिया)शब्द किसे कहते हैं और पूरे विश्व की ऐजेंसियों ने भी आज तक उनका कोई सुराग नहीं ढूंढ पाया क्योंकि वह तो खुद में जासूसी की एक बड़ी ऐजेंसी थे जिन्हें ढूंढ पाना स्वंय नेताजी के वश में है। कहना गलत न होगा कि नेताजी के जीवन में रहस्यवाद भी उसी का प्रभाव है कि क्रांतिकारी बनाए नहीं जाते, जन्म लेते हैं।शिष्य गुरु को नहीं चुनता, बल्कि गुरु शिष्य को चुनता है।परमहंस स्वामी रामकृष्ण जी ने भी जिस तरह विवेकानन्द और नेताजी को चुना था। उन्होंने नेता जी बोस से कहा था कि तुम्हारा धर्म और कर्तव्य, योगी ध्यानी बनना नहीं बल्कि इसी योग व ध्यान की अनंत शक्तियों व सिद्धियों को राष्ट्र सेवा में लगाने हेतु हैं और नेताजी ने गुरू आज्ञा को शिरोघ्याय किया और हमेशा सफल होते गये और किसी भी गद्दार का कोई भी षड्यंत्र उनका बालबांका न कर सका।नेताजी की दमदार और जानदार शख्सियत का नतीजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि नेता जी सुभाष चंद्र बोस जी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर गांधी जी को स्वंय यह कहना पड़ गया था कि यह सुभाष की जीत नहीं,गांधी की हार है। 

       आज जब आजादी शब्द सुनते हैं तो दूसरी तरफ से बगावत की दुर्गंध आती दिखती है कहीं बगावती पत्थरों से रिश्ते खूंनी मंजर तो कहीं आजादी शब्द पर कीचड़ सदृश हिंसात्मक प्रदर्शन नज़र आते हैं जो कहीं से भी सभ्य भारत को परिपूर्ण नहीं करते। वह तो यह दिखाते हैं कि भारत कि शिक्षा प्रणाली और शिक्षा संस्थानों का स्तर कहां से कहां पहुंच गया है। दूसरी तरफ़ संविधान पर छाती पीटने वाले यह भूल जाते कि संविधान उधार का थैला कागज़ी दस्तावेजभर नहीं वरन जिससे अपनाने से सरकारेंभर चलती हैं। इसलिए संविधान का मतलब सरकार के रवैये को नियंत्रित करना है न की लोगों के रवैये को नियंत्रित करना। हम यह समझना ही नहीं चाहते की संविधान में जिन मूल्यों को अपने भूगोल, लिंग, परिवार, समुदाय, जाति, धर्म, देश और विदेशों से सीखते हैं; संविधान के मूल्य उन सबको नियंत्रित करने का काम करते हैं। इन मूल्यों पर अंकुश लगाने का काम करते हैं।इन मूल्यों को समावेशी बनाने का काम करते हैं।इन मूल्यों से स्वतंत्रता, समानता और न्याय हासिल करने की तरफ बढ़ने का काम करते हैं।आज़ादी से लेकर अब तक के सफर में हमने अधिकांशत: उस तंत्र और संविधान में अंतर न करके उसके के लिहाज से खुद को बढ़ाने से ज्यादा मिटाने की कोशिशें की है यह कहकर कि यह खोखला लोकतांत्रिक है जो बहुमत का है और दिखावटी है। हाँ यह सत्य है कि पूरे विश्व में अशांति और अन्याय की जननी स्वांगपूर्ण 'राजनीति' रही है जो मानवीय मूल्यों को निगल कर हैवानियत को जन्म देती है। अब यह हमारे विवेक, बौद्धिक जागरूकता पर निर्भर करता है कि हमें अपनी नौका को उन्नत बनाना है या जर्जर। हमें तैराना है, पार कराना है या धकेलना है। हमें किस दिशा में जाना है या फिर नयी दिशाएं हमें स्वंय गढनी होगीं, हमे़ें सोचना ही नहीं चेतना भी होगा और हमारी यही उन्नत सोच स्वंय को यह गवाही देगी कि 'कितने आजाद हैं हम' । 

           
              

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