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हे! गोविंद आओ

 


हे! आओ गोविंद 
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दुरूह वैदुष्य
शिथिल हुए 
अहम के आयाम
व्यथित दिवस
झंझावात सी यादें
ये दर्शन ये प्रतीती। 
सुरम्य दर्द
दोष में गहराता 
प्रदोष असंतोष 
रम्य दिनकर की आहट
विरहकांक्षी मन 
प्रेमक्रांति हृदय 
ध्रुव धुरी में, 
विचरती यादें
नीरव विरह सी, 
घनश्याम निशा 
चंद्रदेव का न अता न पता 
बारिश की बूंदें ढूंढ रहीं, 
शुष्क भू-के कण-कण में 
अपने जन्मों का
 प्रियतम सखा
इस मिलन की, 
सुगंध माटी में 
प्रेम घोल गयी...
मानो एक जोगन 
श्रृंगार करके सो गयी। 
सब ओर सन्नाटा 
सिर्फ़ मन में घटता रास
कहीं रात्रि अवसान का
अरूणोदय मिलन न हो
कहीं यथार्थ की 
तपन का शमन न हो जाये
उससे पहले हे! गोविंद
तुम आ सको तो पधारो!.... 
बस आओ... बस आओ.... नाथ! 

-ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना 
10:40 P. M TUE. 25 जनवरी 2022 



🙏💐



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