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सच समाज का 

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   खुबसूरत धुंध 



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मेरी अखियों को मिला
ख्वाब सुनहरा था
मेरे दिल को कोमल
पंखुड़ियों ने घेर था
तितलियों से आकर्षण का
मेरे नर्म होंठों पर रहता
उसकी चाहत का पहरा था
रोम -रोम में उसकी छुअन का
रहता इंतजार गहरा था
खिचने लगी बिन डोर उसकी
उसकी गर्म स्वांसों की ओर
मेरे दिल ने चुना,वो शख्स
हीरा था 


आज शाम हो रही नशीली थी
उसकी आहटों की मस्त
सुगंध फैली थी
क्या पता था आज
क्या होनेवाला था
दीदार उसका किसी भी
पल होने वाला था
उसकी परछाई मेरी परछाई
ये जा टकराई,ऐसा लगा मानो
स्वांस की स्वांस जा रही
उसकी निगाहें ज़िस्म पर
टिकी रह गयीं 


उसकी हर छुअन
ज़िस्म मैं ही सिमट गयीं
सारी ख्वाहिसें दम तोड़ने लगीं
मुस्कुरायीं मारे दर्द से आंखें
मेरी ,
मुझे प्रेम का हुआ एक भ्रम था
वो सिर्फ एक खुबसूरत धुंध था 



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आकांक्षा सक्सेना
जिला- औरैया
मार्च २०१३ 


2 comments:

  1. its true Akanksha ji.. u r a very true poet... aapki hr ek poem m realty h.. hr bat bht dil s nd sch likhi gai h...i love ur poetry..

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