आखिर! क्यों होती है चीन में एक भारतीय की पूजा -
भारतीय बौद्ध भिक्षुक
'बोधिधर्मन' पिक
बोधिधर्मन : चीन के भारतीय भगवान् -
[''भारतीय'' की देन है चीन को मार्शल आर्ट, चिकित्सा और चाय]
..............................................
यह प्रमाणित हो चुका है कि एक महान दिव्य भारतीय की ही देन है जो चीन आज मार्शल आर्ट, चिकित्सा पद्धति व चाय का शौक रखता है। उन महान भारतीय का नाम है ''बोधि धर्मन''।
बोधी धर्मन एक महान बौद्ध भिक्षु थे। बोधिधर्म का जन्म दक्षिण भारत के पल्लव राज्य के कांचीपुरम के राज परिवार में हुआ था। वे कांचीपुरम के राजा सुगंध के तीसरे पुत्र थे। छोटी आयु में ही उन्होंने राज्य छोड़ दिया और भिक्षुक बन गए। लगभग 22 साल की उम्र में उन्होंने संबोधि (मोक्ष की पहली अवस्था) को प्राप्त किया। चीन के ग्रंथ कहते हैं कि बोधिधर्म के अथक प्रयासों से ही चीन, जापान और कोरिया में कला, कौशल व बौद्ध धर्म का प्रचार - प्रसार व विस्तार हुआ। 520-526 ई. में चीन पहुंच कर उन्होंने चीन में ध्यान संप्रदाय की नींव रखी जिसे च्यान या झेन ध्यान पद्धति कहते हैं। बोधिधर्मन ने बहुत कम उम्र में ही अनेकों दिव्य विद्याओं में खुद को पारंगत कर लिया था। बोधी धर्मन के बारे में इतिहास में भारत व चीन हर जगह बहुत लिखा गया। विडम्बना यह है कि चीन उन्हें भगवान् की तरह पूजने लगा और 75% भारतीय को नही पता कि बोधिधर्मन भारतीय थे। कारण यह कि उस भारतीय रत्न का किसी ने न इतिहास जानने की चेष्टा कि और न उनके बारे में बताने का मीडिया ने रोल ही निभाना उचित समझा। जिनके कारण आज हर भारतीय का सर गर्व से उठ जाता है कि हमारे ही बौद्ध भिक्षुक ने चीन को ज्ञान और कौशल का दान दिया। बाद में समय ने ऐसा दांव चला कि उनके ही शिष्यों ने उन्हें जहर देकर उनकी वहीं समाधि बनाकर हमेशा, हमेशा के लिये चीन की मिट्टी में समा लिया पर वो यह नही जानते क्या आत्मा को कैद नही किया जा सकता और सत्य को छिपाया नही जा सकता। यह है हमारे भारत के महा ज्ञानी, ध्यानी और दानी लोग। बोधिधर्मन को ज्ञान हो गया था कि यह लोग प्रेमवश मुझे जबर दे रहे कि मैं सदा यहां बसूँ तो वह प्रेम की मधुर नींद सो गये और उफ्फ तक न की।
आज चीन में मार्शल आर्ट और कुंग फू जैसी विद्या बोधी धर्मन नामक महान भारतीय की देन है। बोधिधर्मन न सिर्फ मार्शल आर्ट बल्कि आयुर्वेद, सम्मोहन, और पंच तत्वों(भ-भूमि, ग-गगन, व-वायु, आ-आकाश) को काबू में करने की विद्या बखूबी जानते थे पर उन्होंने कभी अपने ज्ञान का दुरूपयोग व दिखावा कर भगवान् बनकर पुजने की कोशिश नहीं की।क्योंकि वह जानते थे कि भगवा, यानि गॉड तो अनंत हैं। हम तो उनके अंश मात्र हैं। उन्होंने कई देवीय शक्तियों को भी अपने तपोबल से हासिल किया था। समय और नियति ही उन्हें चीन खींच ले गयी। हिन्दु धर्म ग्रंथों के अनुसार महर्षि अगस्त्य और भगवान परशुराम ने धरती को सर्वप्रथम मार्शल आर्ट सिखाया। पुराण कहते हैं कि महर्षि अगस्त्य ने दक्षिणी कलारिप्पयतु (बिना शस्त्र के लड़ना) और परशुराम ने शस्त्र युक्त कलारिप्पयतु का विकास किया था। गौरतलब हो कि भगवान श्रीकृष्ण जी दोनों ही तरह के विद्या में 24 कलाओं में पारंगत थे। उन्होंने इस विद्या को और विकसित स्वरूप दिया। जिसे कलारिप्पयतु, कलारीपयट्टू या कालारिपयट्टू (kalaripayattu) नाम से जाना जाता है। भगवान् श्री कृष्ण ने इस विद्या के माध्यम से ही चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्ल राक्षसों का वध किया था तब उनकी उम्र 16 वर्ष की थी। कालारिपयट्टू विद्या के प्रथम आचार्य श्रीकृष्ण को ही माना जाता है। इतिहास साक्षी है कि इसी विद्या के कारण ही 'नारायणी सेना' भारत की सबसे भयंकर, प्रल्लयंकर व प्रहारक सेना थी। श्रीकृष्ण जी ने ही कलारिपट्टू की नींव रखी, जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुई। इसी तरह बौद्ध धर्म के ज्ञान को भगवान बुद्ध ने महाकश्यप से कहा। महाकश्यप ने आनंद से और इस तरह यह ज्ञान चलकर आगे बोधिधर्म तक आया। बोधिधर्म उक्त ज्ञान व गुरु शिष्य परंपरा के अट्ठाइसवें गुरु थे।
बोधिधर्मन के कारण ही यह विद्या चीन, जापान आदि बौद्ध राष्ट्रों में खूब फली-फूली। आज भी यह विद्या केरल और कर्नाटक में प्रचलित है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि मार्शल आर्ट के साथ ही चाय की भी खोज का श्रेय बोधिधर्मन को ही जाता है क्योंकि जिस पहाड़ पर वे ध्यान करते थे उसे चाय कहते थे। एक दिन उस पहाड़ी पर उन भिक्षुकों को कुछ अलग किस्म की पत्तियां दिखाई दी। बोधिधर्म ने जांच-पड़ताल के बाद पाया कि अगर इन पत्तियों को उबालकर पिया जाए, तो इससे नींद भाग जाती है। इसे पीकर वे अब पूरी रात सतर्क रहकर ध्यान कर सकते थे और इस तरह से चाय की खोज हुई।
सत्य और धर्म के प्रचार - प्रसार को निकले बोधिधर्मन महीनों के कठिन सफर के बाद वह चीन देश के नानयिन (नान-किंग) गांव पहुंचे। कहते हैं कि इस गांव के ज्योतिषियों की भविष्यवाणी के अनुसार यहां बहुत बड़ा संकट आने वाला था। भयवश बोधिधर्म के यहां पहुंचने पर गांव वालों ने उन्हें ही यह संकट समझ लिया। ऐसा जानकर उन्हें उस गांव से तुरंत बाहर कर दिया गया। उनके वहां से चले जाने पर गांव वालों को लगा की संकट चला गया।दरअसरल, संकट तो एक जानलेवा महामारी के रूप में अभी आने वाला था और वह आ गया। लोग बीमार पड़ने लगे। गांव में अफरा-तफरी मच गई। गांव के लोग बीमारी से ग्रसित बच्चों या अन्य लोगों को गांव के बाहर छोड़ देते थे, ताकि किसी अन्य को यह रोग अपनी गिरफ्त में न ले सके।बोधी धर्मन चूंकि एक योग्य आयुर्वेदाचार्य थे, तो उन्होंने वहीं उगीं वनस्पतियों जड़ी-बूटियों से उन सभी की मदद की तथा सभी को कालकल्वित होने से बचा लिया । तब गांव के लोगों को समझ में आया कि यह व्यक्ति हमारे लिए संकट नहीं बल्कि संकटहर्ता के रूप में सामने आया है। गांव के लोगों ने तब ससम्मान उन्हें गांव में शरण दी। बोधी धर्मन ने गांव के समझदार लोगों को जड़ी-बूटियों को कूटने और पीसने के काम पर लगा दिया और इस तरह पूरे गांव को उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराकर गांव को महामारी से बचा लिया। यह संकट अभी टला ही था कि दूसरा संकट आ धमका। जो था, लुटेरों की एक टोली ने गांव पर अचाानक हमला कर दिया और वे क्रूर, निर्दोष ग्रामीणों को मारने लगे।फिर चारों और कत्लेआम मच गया। गांव वाले समझते थे कि बोधी धर्मन सिर्फ चिकित्सा पद्धत्ति में ही माहिर है लेकिन उन्हें क्या मालूम था कि बोधी धर्मन एक प्रबुद्ध, सम्मोहनविद् और चमत्कारिक, दिव्व्य व्यक्तिव थे। वे प्राचीन भारत की कालारिपट्टू विद्या में भी पारंगत थे। कालारिपट्टू को आजकल मार्शल आर्ट कहा जाता है। देखते ही देखते बोधी धर्मन ने मार्शल आर्ट और सम्मोहन के बल पर उन हथियारबद्ध लुटेरों को पल भर में धूल चटा दी। गांव वालों ने बोधी धर्मन को लुटेरों की उन टोली से अकेले लड़ते हुए देखा और वे इसे देखकर चौंक गए। चीन के लोगों ने युद्ध की आज तक ऐसी आश्चर्यजनक कला नहीं देखी थी। वे समझ गए कि यह व्यक्ति कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। इसके बाद तो बोधी धर्मन का मान सम्मान गुरू व भगवान की तरह और भी बढ़ता गया। बोधी धर्मन ने गांव के लोगों को आत्म रक्षा के लिए इस विद्या को सिखाया। गांव के लोग उनसे प्यार करने लगे और प्यार से उन्हें धापू बलाने लगे। कई वर्षों बाद जब उन्होंने वहां से भारत जाने की इच्छा जतायी तब ज्योतिषियों ने गांव पर फिर से संकट आने की भविष्यवाणी कर दी। गांव वालों ने एक जगह एकत्र होकर यह निर्णय लिया कि अगर इस संकट से बचना है तो बोधी धर्मन को यहीं रोकना होगा किसी भी हाल में। यदि वह नहीं रुकते हैं तो उन्हें जबरदस्ती रोकना है। किसी भी कीमत पर उन्हें जिंदा या मुर्दा रोकना ही होगा। गांव वाले यह जानते थे कि वे बोधी धर्मन से लड़ नहीं सकते तो उन्होंने बोधी धर्मन को रोकने के लिए उनके खाने में जहर मिला दिया, लेकिन बोधी धर्मन यह बात भलिभांति जान गए। उन्होंने गांव वालों से कहा कि तुमने ऐसा क्यों किया? तुम मुझे मारना क्यों चाहते हो? गांव वालों के कहा कि हमारे ज्योतिषियों अनुसार आपके शरीर को यहीं दफना दिया जाए तो हमारा गांव हमेशा के लिए संकट से मुक्त हो जाएगा। बोधी धर्मन ने कहा, बस इतनी सी इच्छा। बोधी धर्मन ने गांव वालों की इस प्रेमपूर्ण आग्रह को स्वीकार कर लिया और उन्होंने जहर मिला वह भोजन बड़े ही प्रेम से खा लिया।बाद में चीनियों ने इन भारतीय बौद्ध भिक्षुक बोधिधर्मन के अद्भुत मंदिर बनवाये और उन्हें पूजा पर विडम्बना देखो! कि जिन्हें चीन का बच्चा - बच्चा जानता है पर उन्हें भारतीय कम ही जानते हैं।
पीठ किये बैठे बोधिधर्मन
मित्रों! बोधिधर्मन के विषय में एक अतिविशिष्ट व ज्ञानवर्धक कथा है कि एक बार उत्तरी चीन के तत्कालीन राजा बू-ति एक बोधिधर्म से प्रेरित थे। बू-ति के निमन्त्रण पर बोधिधर्म की उनसे नान-किंग में भेंट हुई। यहीं पर नौ वर्ष तक रहते हुए बोधिधर्म ने ध्यान का प्रचार-प्रसार किया। बोधिधर्म चीन में नौ वर्ष तक एक दिवाल की तरफ मुंह करके बैठे रहे। किसी ने एक दिन उनसे पूछा आप हमारी तरफ पीठ करके क्यों बैठे हैं? दिवाल की तरफ मुंह क्यों किये हैं? बोधिधर्मन ने कहा जो मेरी आंखों में पढ़ने के योग्य होगा उसे ही देखूंगा। जब उसके आगमन होगा तब देखूंगा अभी नहीं। अभी तो दिवाल देखूं या तुम्हें देखूं एक ही बात है। फिर करीब नौ वर्ष बाद वह व्यक्ति आया जिसकी प्रतिक्षा बोधिधर्म ने की थी। उसने अपना एक हाथ काटक बोधी धर्म की ओर रख दिया और कहा जल्दी से इस ओर मुंह करो वर्ना गर्दन भी काट कर रख दूंगा। फिर क्षण भर भी बोधी धर्मन नहीं रुके और दिवाल की से उस व्यक्ति की ओर घूम गए और कहने लगे...तो तुम आ गए। मैं तुम्हारी ही प्रतिक्षा में था, क्योंकि जो अपना सबकुछ मुझे देने को तैयार हो। वहीं मेरा संदेश समझ सकता है। इस व्यक्ति को बोधी धर्म ने अपना ज्ञान संदेश रूप में दिया। बोधिधर्मन के इस प्रथम शिष्य और उत्तराधिकारी का नाम शैन-क्कंग था,। वहीी मौन ज्ञान जो बुद्ध ने महाकश्यप को दिया था। बोधिधर्मन के बाारे में शोध के अनुसार - बोधिधर्मन जब तक चीन में रहे मौन ही रहे और मौन रहकर ही उन्होंने ध्यान-सम्प्रदाय की स्थापना कर ध्यान के रहस्य को बताया। बाद में उन्होंने कुछ योग्य व्यक्तियों को चुना और अपने मन से उनके मन को बिना कुछ बोले शिक्षित किया। यही ध्यान-सम्प्रदाय कोरिया और जापान में जाकर विकसित हुआ। सबसे आश्चर्य की बात है कि बोधिधर्मन का स्व रचित कोई ग्रन्थ नहीं है। सही ही है बोधिधर्मन मौन ने मौन की कला में मौन की ताकत और रहस्यों को सुलझाया व सिखाया। हाँ, बोधिधर्मन के इस स्वलिखित ग्रंथ न होने पर हमारी टिप्पणी तो यही है कि हाँ, सचमुच मौन को लिखा नही जा सकता सिर्फ महसूस किया जा सकता है और मौन का ग्रंथ तो सिर्फ मन है।जिसने मन को समझ लिया उसने सबकुछ समझ लिया।
हाँ,
ReplyDeleteसचमुच मौन को
लिखा नही जा सकता
सिर्फ महसूस किया जा सकता है
और मौन का ग्रंथ तो
सिर्फ मन है।
इस आलेख का सार
आभार
सादप
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया🙏🙏🙏💐
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद।।। साधूवाद।।
ReplyDelete