श्री धर्महरि श्री चित्रगुप्त जी मंदिर अयोध्या का जीर्णोद्धार - ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना
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ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना, न्यूज ऐडीटर सच की दस्तक, वाराणसी उ. प्र
[श्री धर्महरि श्री चित्रगुप्त मंदिर को लेकर मान्यता है कि विवाह के बाद जनकपुर से वापिस आने पर भगवान श्री राम माता सीता ने सबसे पहले धर्महरि श्री चित्रगुप्त जी के ही दर्शन किये थे। पौराणिक गाथाओं के अनुसार, स्वंय भगवान विष्णु ने इस मंदिर की स्थापना की थी इसीलिए यह मंदिर ‘श्री धर्म-हरि मंदिर’ के नाम से सुविख्यात है।]
दीपावली के बाद भाई द्विज यानि यम द्वितीया के दिन प्रभु श्री चित्रगुप्त जी की पूजा की परम्परा सदियों से चली आ रही है क्योंकि इसीदिन प्रभु श्री चित्रगुप्त जी का अवतरण हुआ था। इसीलिये इस महापर्व को प्रभु श्री चित्रगुप्त जी के वंशज व समस्त कायस्थ जातीय परिवारीजन इस पर्व को बड़े हर्ष और उल्लास के साथ मनाते हैं।
जब हुए प्रभु श्री चित्रगुप्त जी असहज -
पौराणिक धर्मग्रंथों व किंवदंतियों के अनुसार जब भगवान राम लंका से अयोध्या वापस लौट रहे थे तब उनकी खडाऊं को राजसिंहासन पर रख कर राज्य चला रहे राजा भरत ने गुरु वशिष्ठ को भगवान राम के राज्यतिलक के लिए समस्त देवी देवताओं को सन्देश भेजने की व्यवस्था करने को कहा तब गुरु वशिष्ठ ने ये काम अपने शिष्यों को सौंप कर राज्यतिलक की तैयारी शुरू कर दी। ऐसे में जब राज्यतिलक में सभी देवी-देवता आ गए तब भगवान राम ने अपने अनुज भरत से पूछा कि सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता, समस्त प्राणियों के शुभ - अशुभ कर्मों का लेखा जोखा रखने वाले, समस्त प्राणियों की काया में स्थित होकर उनके चित्त में श्री रूप में गुप्त रहने वाले प्रभु श्री चित्रगुप्त जी नहीं दिखाई दे रहे। इस पर जब खोज बीन हुई तो पता चला की गुरु वशिष्ठ के शिष्यों ने प्रभु श्री चित्रगुप्त जी को निमंत्रण ही नहीं पहुंचाया था जिसके चलते श्री चित्रगुप्त जी नहीं आये I भगवान राम के आवाह्न पर श्री चित्रगुप्त जी अपने कार्य स्थल पर अपनी कलम व लेखाजोखा छोड़ कर भगवान राम के समक्ष प्रकट हुए। इससे लेखाजोखा का कार्य रूक गया जिस कारण ब्रह्मांड के सभी कार्य अचानक रूक गये थे। फिर जब सभी देवी देवता जैसे ही राजतिलक से लौटे तो पाया की स्वर्ग और नर्क के सारे काम रुक हुए थे , प्राणियों का लेखा - जोखा ना लिखे जाने के चलते समस्त ब्रह्माण्ड के यमराजों को भी यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा था की किसको कब लाना है और कहाँ किसे भेजना है? जिस कारण ऐसी अव्यवस्था फैल गयी थी कि अनेकों आत्मायेंं स्वर्ग के द्वार पर पहुंच गयी थींं और अनेेकों नर्क के द्वार पर और स्वर्ग के द्वारपाल भी असमंजस में थे कि यह इतनी भीड़ अचानक स्वर्ग में कैसे पहुंच गयी? वो सब सोचने लगे कि क्या प्रभु श्री चित्रगुप्त जी ने सभी केे कर्मोंं को लिखने वाली कलम तो नहीं रोक दी?
इधर, अयोध्या में गुरु वशिष्ठ ने अपनी गलती स्वीकारते हुए भगवान राम से व चित्रगुप्त जी से क्षमा याचना करते हुए प्रभु श्री चित्रगुप्त जी की स्तुति की व उन्हें प्रसन्न करने हेतु यज्ञ किया।
ॐ कपूरातिंक्यं समर्पयामि भगवते श्री चित्रगुप्ताय नम:,
ॐ तत्पुरूषाय विद्यते श्री चित्रगुप्ताय।
धीमहि तन्नो गुप्त प्रचोदयात् स्वाहा।
इदं श्री चित्रगुप्ताय इदं नमम्।।
और अपने करकलमों से एक नवीन अद्भुद श्री चित्रगुप्त यानि श्री धर्मराज जी के विग्रह की स्थापना की थी। गुरु वशिष्ठ एवं भगवान राम के अनुरोध पर प्रभु श्री चित्रगुप्त जी ने लगभग ४ पहर (२४ घंटे बाद) पुन: कलम की पूजा करने के पश्चात उसको उठाया और प्राणियों का लेखा-जोखा लिखने का कार्य आरम्भ किया था। इसीलिए कायस्थ जाति परिवारीजन भाई द्विज यानि यम द्वितीया पर्व पर कलम दवात व तलवार की पूजा करते हैं और इस दिन लेखन कार्य नहीं करते हैं।
इसीलिए श्री अयोध्या महात्मय में भी इसे श्री धर्महरि मंदिर ही कहा गया है धार्मिक मान्यता है कि अयोध्या आने वाले सभी तीर्थयात्रियों को अनिवार्यत: श्री धर्म-हरि जी के दर्शन करना चाहिये, अन्यथा उसे इस महातीर्थ यात्रा का पूरा पुण्यफल प्राप्त नहीं होता।
ऐसा माना जाता है, कि तभी से श्री चित्रगुप्त जी के वंशज कायस्थ जाति पारिवारीजन दीपावली की पूजा के पश्चात अपनी कलम को रख देते हैं, और यम-द्वितीया (भाई द्विज) के दिन श्री चित्रगुप्त जी का विधिवत कलम, दवात व तलवार यानि शास्त्र एवं शस्त्र का पूजन करके ही दूसरे दिन कलम को धारण करते है।
अयोध्या के इतिहास में उल्लेख है कि सरयू नदी के जल प्रलय से अयोध्या नगरी पूर्णतया नष्ट हो गई थी और विक्रम संवत के प्रवर्तक सम्राट विक्रमादित्य ने जब अयोध्या नगरी की पुनर्स्थापना की तो सर्वप्रथम उन्होंने भगवान राम के आराध्य प्रभु श्री चित्रगुप्त जी के श्री धर्महरि मंदिर की पुनर्स्थापना कराई थी और प्रभु श्री चित्रगुप्त जी का आशीर्वाद प्राप्त करके अपने जीवन में अनंत यश की प्राप्ति की थी ।
बता दें कि प्राचीन श्री चित्रगुप्त मंदिर यानि श्री धर्महरि मंदिर आज डेराबीबी मीरापुर मुहल्ले में स्थित है जो तुलसी उद्यान के सामने दक्षिण की तरफ एक फाटक से होकर नीचे उतरकर सामने बेतिया मंदिर के बगल में स्थित है। विडंबना है कि युगों से इस मंदिर में कितनी उथल - पुथल हुई, इसका ऐतिहासिक वर्णन,अयोध्या के अन्य मंदिरों की भांति नहीं मिलता क्योंकि मुगलों ने अन्य मंदिरों की भांति ही धर्महरि मंदिर को भी तहस-नहस कर मंदिर की जमीन को हड़प लिया था और जहां आज धर्महरि मंदिर मौजूद है वहां की जमीन श्री चित्रगुप्त वंशीय बाबा नरसिंह जी ने अपने प्रभाव से एक मुस्लिम से काफी कठिनाइयों के बावजूद खरीद ली थी और उन्होंने अपने इष्ट के सम्मान हेतु पूरी हिम्मत से गजनवी के समय सन् 990ई. में यमद्वितिया के दिन इसी स्थान पर श्री धर्महरि चित्रगुप्त जी की पुनर्स्थापना कर दी थी।
बाद में धर्महरि मंदिर के पुजारी जिनका नाम ठाकुरदास था, ने उस जमीन को अपने नाम करवाकर उसे खुर्द-बुर्द कर दिया था। जब वहां थोड़ी भूमि रह गयी तो 1842ई. में श्री चुन्नीलाल जी व असिस्टेन्ट कमिश्नर श्री महेश प्रसाद जी के प्रयासों से ”कायस्थ सभा अयोध्या” की स्थापना हुई और फैजाबाद के श्री शिवराज सिंह 'कायस्थ' जी वकील सभा के मंत्री बने थे पर कायस्थों की उदासीनता के चलते, पुजारी ठाकुरदास की इस मंदिर पर अपनी मिल्कियत बनाने के मंसूबे कामयाब हो गये और उन्होंने अपने वारिस के नाम इस मंदिर की वसीयत लिखकर खुद चेलाही भाग गये पर उनके प्रपंचों की बखिया तब उखड़ गयी जब मंदिर के लगे पत्थरों पर क्रम से 33-39 तक उनपर सम्वत् 1882 अंकित है जो सन् 1823 का मार्गदर्शन कर रहा है। इस सब के बावजूद सन् 1902 में पुन: धर्महरि मंदिर का भाग्य उदय हुआ जब सत्यनिष्ठ कर्मठ चित्रांश मुंशी अखोरी रामानंद जी अफीम के महक में से रिटायर होकर छपरा बिहार से अयोध्या वास करने आये। वह नित्य धर्महरि मंदिर में पूजा-पाठ किया करते थे। उन्होंने फैजाबाद और सुल्तानपुर के कायस्थों को धर्महरि मंदिर से जोड़ना शुरू किया। वहीं डॉ. आत्म प्रकाश, उत्तर प्रदेश शिक्षा निदेशक के बाबा महात्मा सुरजन लाल ऑफिस सुपरिंटेंडेंट का अखोरी जी को बहुत सहयोग मिला। चित्रांश सुरजन लाल जी ने अखोरी जी को पुजारी ठाकुरदास ने काफी मशक्कत के बाद दस्तावेज रजिस्ट्री करवा दिया जिसके अंतर्गत ठाकुरदास ने धर्महरि चित्रगुप्त मंदिर को कायस्थों की मिल्कियत माना और पुजारी नियुक्त करने का अधिकार भी कायस्थों को ही दे दिया। इस प्रकार जो मंदिर कायस्थों के हाथ से जा चुका था, वह इन महान चित्रगुप्त भक्तों के कारण पुन: मिल गया।
फिर, सन् 1904 में यम द्वितीया के दिन कायस्थ सभा का आयोजन किया गया जिसमें एक कमेटी गठित हुई जिसमें अखोरी साहब और मुंशी मदन गोपाल जी के अनुसार इस सभा इस कमेटी का नामकरण 'कायस्थ धर्मसभा' , अयोध्या, फैजाबाद रखा गया। इसके सर्वप्रथम प्रेसीडेंट दिवान माधव प्रसाद असिस्टेंट मैनेजर अयोध्या राज हुए। बाद में यह कार्य नंद कुमार लाल को सौंप दिया गया व अखोरी जी को इस सभा का सिक्रेट्री बनाया गया। इन सभी पुण्यात्माओं के परमप्रताप से मंदिर धर्म उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो गया। सच है कि इन सभी पुण्यात्माओं के ऐतिहासिक सुकर्मों से युगों - युगों तक प्रत्येक धर्महरि श्री चित्रगुप्त भक्त जन्मों जन्म ऋणि रहेगा।
इस ऐतिहासिक कायस्थ धर्म सभा अयोध्या का रजिस्ट्रेशन 30 जनवरी सन् 1923 ई. में करा दिया गया और सन् 1911-1938 तक श्री शीतला सहाय पांडेय सभा के अध्यक्ष व अखोरी जी मंत्री पद पर रहे वहीं आनरेवुल बालक राम साहब, श्री रामबहादुर, ब्रज बल्लभ किशोर सादिक जिन्होंने श्री चित्रगुप्त जी की भक्ति की शक्ति से पूरे भारत के कायस्थों को धर्महरि मंदिर से जोड़ा और इस महान कायस्थ धर्म सभा में कार्यकर्ता तथा अध्यक्ष पद पर भी रहे। इस प्रकार लम्बे समय बाद मंदिर की व्यवस्था के संचालन हेतु, सुल्तानपुर निवासी मुंशी बिन्देश्वरी प्रसाद जी ने, अठारह बीघे भूमि दान की थी और दानदाताओं की सूची में इन दानवीरों को कौन भूल सकता है जिन्होंने सन् 1938 - 40 में राय साहब मुंशी बल्लभ किशोर सादिक साहिब ने मुहल्ला मातगेड़ की अपनी सम्पूर्ण भूमि को दान में दिया था। व सन् 1938 में ही मुसम्मात रामकली चौधराइन बेवा चौधरी अम्बिका प्रसाद मौजा, देवरी खेरा परगना सादुल्लाहनगर द्वारा पांच बीघा जमीन दान की। वहीं स्वर्गीय बाबू महादेव प्रसाद डिप्टी कलेक्टर का बनवाया हुआ सुन्दर भवन उनके पुत्र दानवीर सेठ जै नारायण साहब रईस सीतापुर ने कायस्थ सभा को दान में दे दिया था जोकि अब धर्मशाला के रूप में है।
इसके बाद मंदिर की मिल्कियत में कुछ जमीनें व तीन धर्मशालाएं भी शामिल हो गयीं। इसके साथ ही कायस्थ धर्म सभा के भवन का भी निर्माण हुआ जिसका नाम 'श्री चित्रगुप्त सदन' रखा गया।
बता दें कि इस कायस्थ धर्म सभा की ओर से हमेशा ही जनसेवा के जनकल्याणकारी कार्यक्रमों जैसे - गरीब बच्चियों के शादी - विवाह, विधवा पुनर्विवाह, विद्वानों का सम्मान, होनहार बच्चों को वजीफा देकर उन्हें श्री चित्रगुप्त जी जैसी कलम की ताकत का बोध कराया जाता है और भी अनेकों सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन कर हिंदू धर्म की महत्ता विराटता कार्यक्रमों का कलाकारों द्वारा भव्य आयोजन होते ही रहते हैं।
गौरतलब हो कि आजादी के पहले पूरे भारतवर्ष में परमात्मा श्री चित्रगुप्त जी के डेड़ दो सौ मंदिर होने के प्रमाण मिलते हैं जिसमें धर्महरि मंदिर सबसे प्राचीन बताया गया है। बता दें कि श्री धर्महरि मंदिर में श्रृंगार प्रसाद वहां के नियमित पुजारी श्री प्रभुदयाल सक्सेना व उनके परिवार द्वारा होता चला आ रहा है।
अत:, पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व का श्री धर्महरि यानि श्री चित्रगुप्त मंदिर कायस्थों के चारों धामों में दूसरे स्थान का महत्व रखता है। विडंबना है कि आज यह पौराणिक मंदिर उचित जीर्णोद्धार की राह ताक रहा है और श्री धर्महरि जी यानि प्रभु श्री चित्रगुप्त जी के वंशज एवं भक्तगण इस प्राचीन ऐतिहासिक मंदिर के विकास कार्य में यथासामर्थ सहयोग कर रहे हैं।
प्रभु श्री चित्रगुप्त जी के आस्थावान कलमधारण करने वाले समस्त भक्तगणों को श्री धर्महरि मंदिर यानि श्री चित्रगुप्त जी के मंदिर में आकर प्रभु श्री चित्रगुप्त जी के दर्शन करना चाहिए और उनका आशीर्वाद पाकर उनका प्रचार व प्रसार करना चाहिए।
।। जय श्री चित्रगुप्ताय नम:।।
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