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गिरती जीडीपी बढ़ती बेरोजगारी - ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना

 







-आकांक्षा सक्सेना न्यूज ऐडीटर सच की दस्तक 


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने फिर अगले चंद वर्षों में भारत को पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की प्रतिबद्धता को जगह-जगह दोहराया है। हकीकत यह है कि विकास से इसका कोई सीधा संबंध तब तक नहीं हो सकता जब तक सरकारें बढ़ती अर्थव्यवस्था का लाभ आमजन तक न पहुंचाएं।राष्ट्रीय सांख्यिकी विभाग द्वारा जारी आंकडों में अप्रैल से जून के बीच की तिमाही में भारत की जीडीपी 23.9 फीसदी गिर गई है। कोरोनावायरस से जूझ रही मोदी सरकार का भारतीय अर्थव्यवस्था को 2025 तक 5 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी बनाने का 'ग्रेट इंडियन ड्रीम' अब धरातल पर बिखरता दिखाई दे रहा है। पर यह भी सच है कि भारत की अर्थव्यवस्था कुछ ही सालों पहले 8% की विकास दर से बढ़ रही थी। 2019 में भारत की जीडीपी 2900 करोड़ की थी जो अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी के बाद दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी और अपने विशाल 'बाजार' के दम पर दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक थी पर कोरोना काल ने सबकुछ ध्वस्त कर दिया। यहां स्पष्ट कर दें कि  कि भारत में लॉकडाउन 25 मार्च को शुरू हुआ था। जीडीपी के ये आंकड़े उसके बाद की तिमाही के हैं। इससे पहले की तिमाही में 4.2 प्रतिशत का विकास हुआ था, जबकि एक साल पहले की ठीक इसी अवधि के लिए यह आंकड़ा 5.2 प्रतिशत रहा था। इसका बड़ा कारण बताया जा रहा है कि भारत में हुए दुनिया के सबसे बड़े लॉकडाउन में मैन्यूफैक्चरिंग, प्रोडक्शन और कंस्ट्रक्शन जैसे आधारभूत उद्योगों में काम बंद हो गया। इसके कारण समूची व्यावसायिक गतिविधियां तकरीबन ठप पड़ गईं। 

इसी संदर्भ में देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में पहली तिमाही में करीब एक-चौथाई की भारी गिरावट आने के सवाल पर पूर्व वित्त सचिव सुभाष चंद्र गर्ग ने स्पष्ट कहा है कि यह नुकसान देशव्यापी लॉकडाउन लगाने की रणनीति सही नहीं होने के कारण हुआ है।उनका आकलन है कि अर्थव्यवस्था को चालू वित्त वर्ष में 20 लाख करोड़ रुपये की क्षति हो सकती है।गर्ग ने कहा कि लॉकडाउन से कोरोना वायरस महामारी का प्रसार शुरू में धीमा जरूर पड़ा लेकिन अर्थव्यवस्था को इससे कहीं ज्यादा नुकसान हुआ।गर्ग ने कहा, ‘ जब लॉकडाउन लगाया गया उस समय देश में वायरस की शुरुआत ही हो रही थी. लॉकडाउन से उस समय इसका प्रसार धीमा हुआ, ज्यादा तेजी से नहीं फैला, लेकिन इस दौरान देश की स्थिति को देखते हुये अर्थव्यवस्था को नुकसान ज्यादा हुआ है.’ उन्होंने कहा कि लॉकडाउन हटने के बाद वायरस फैलने की गति बढ़ी है. पर ‘ बेहतर होता कि अर्थव्यवस्था से समझौता किये बिना महामारी पर अंकुश लगाने के प्रयास किये जाते। गर्ग ने कहा कि लॉकडाउन से सूक्ष्म, लघु उद्योगों को बड़ा झटका लगा है।कुल मिलाकर 7.5 करोड़ के करीब सूक्ष्म, लघु, मझोले उद्यम (एमएसएमई) हैं।उनकी मदद की जानी चाहिये।आत्मनिर्भर भारत के तहत जो योजनायें पेश की गईं हैं उनका लाभ 40- 45 लाख को ही मिल पा रहा है. एमएसएमई में एक बड़ा वर्ग है जो अभी भी अछूता है सरकार को उन्हें सीधे अनुदान देना चाहिये। नोटबंदी का अर्थव्यवस्था पर अभी भी असर बने रहने के सवाल पर गर्ग ने कहा, ‘‘मुझे नहीं लगता कि नोटबंदी का असर अभी भी बना हुआ है।नोटबंदी का असर अस्थायी रहा। अर्थव्यवस्था में अनौपचारिक गतिविधियों का बड़ा हिस्सा था।इसमें ज्यादातर भुगतान नकद में होता रहा है।करीब 25 से 30 प्रतिशत अनौपचारिक अर्थव्यवस्था पर नोटबंदी का भारी असर पड़ा लेकिन इसका एक असर यह भी हुआ कि असंगठित क्षेत्र का काफी कारोबार संगठित क्षेत्र में होने लगा और उनमें लेनदेन औपचारिक प्रणाली में परिवर्तित हुआ। इस प्रकार नोटबंदी का असर अस्थायी ही रहा है।नोटबंदी के बाद के वर्षों में आर्थिक वृद्धि में सुधार देखने में आया है। 

गर्ग ने यह भी कहा, ‘ दूसरा वर्ग 10- 12 करोड़ के करीब कामगारों का है जिनके पास कोई काम नहीं रहा, उनका रोजगार नहीं रहा, उनकी मदद की जानी चाहिये.’ उन्होंने कहा कि रणनीति के तीसरे हिस्से के तहत- सरकार को समग्र अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिये विभिन्न ढांचागत क्षेत्रों में पूंजी व्यय बढ़ाना चाहिये।कई क्षेत्रों में नीतिगत समस्यायें आड़े आ रही हैं उन्हें दूर किया जाना चाहिये।‘पहली तिमाही में पूंजी निवेश में भारी कमी आई है, उस तरफ ध्यान देना चाहिये.’ वर्ष 1983 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी गर्ग मार्च से जुलाई 2019 तक ही वित्त सचिव रहे।मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के जुलाई 2019 में पेश पहले पूर्ण बजट में ‘सावरेन बांड के प्रस्ताव को लेकर वह चर्चा में आये।

इस मुद्दे पर सरकार की किरकिरी होने पर उन्हें वित्त मंत्रालय से हटाकर बिजली मंत्रालय में भेज दिया गया जिसके बाद उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृति ले ली। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के इन आंकड़ों के अलावा सबसे ज्यादा वाली तस्वीर असंगठित क्षेत्र से आ रही है। भारत में करोड़ों लोग ‘अनियमित’ रोजगार पर आश्रित हैं।प्राईवेट ट्‍यूशन देने वाले से लेकर, हलवाई, हंजाम, रिक्शाचालक, टेलर, दिहाड़ी मज़दूर,  कंस्ट्रक्शन में ठेके पर काम करने वाले कारीगर, इलेक्ट्रिशियन, प्लम्बर, श्रमिक,सड़क किनारे बर्तन खिलौनों बेचने वाले, खेतों में निराई, बुवाई, बंटाई करने वाले किसान और खेतिहर मजदूर सहित माइक्रो इंडस्ट्रीज में काम इत्यादि संगठित क्षेत्रों में न होने की वजह से अधिकतर सरकारी आंकड़े से बिल्कुल ही बाहर होते हैं। इसका अर्थ है कि अर्थव्यवस्था के आधिकारिक आंकड़ों में इस बड़े हिस्से को भुला दिया जाता है। यदि इन्हें भी जोड़ दिया जाए तो नुकसान की कल्पना कर पाना भी बड़ा मुश्किल है। असंगठित क्षेत्र की रीढ़ माने जाने वाले व्यापार, होटल और ट्रांसपोर्ट जैसे क्षेत्र में 47  प्रतिशत की गिरावट आई है। इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में भी निर्माण उद्योग 39 प्रतिशत गिरा है। हांलाकि कृषि क्षेत्र में मानसून की अच्छी बारिश के कारण 3.4 प्रतिशत वृद्धि हुई है।  लेकिन, विशेषज्ञों का मानना है कि इस पूरे वित्त-वर्ष के दौरान जीडीपी में 37.5 गिरावट होने की आशंका है। रिजर्व बैंक (आरबीआई) भी अपनी वार्षिक रिपोर्ट में ऐसी किसी स्थिति की चेतावनी दे चुका है। इसके अलावा जीएसटी वसूली से होने वाली सरकारी कमाई में पिछले साल के मुताबिक  लगातार गिरावट आ रही है। जहां पिछले साल अप्रैल के महीने में 1,13,865 करोड़ रुपयों की वसूली हुई थी, इस साल अप्रैल में सिर्फ 32,172 करोड़ रुपए आए। 

इसके इतर सबसे बड़ा भय है,दूसरी तिमाही का। इसकी वजह भी है क्योंकि यदि किसी देश की अर्थव्यवस्था में लगातार दो तिमाही की लगातार गिरावट रहती है तो उसे पूरी तरह मंदी में घिरा मान लिया जाता है। यदि ऐसा होता है तो समूची अर्थव्यवस्था डांवाडोल हो जायेगी जिससे कई लाख करोड़  रुपए की कटौती होगी और अधिकतर क्षेत्रों में निवेश गिरेगा, खपत गिरेगी और कुलमिला  कर सरकार के राजस्व में भी भारी गिरावट आने की आशंका है। अबअपनी अर्थव्यवस्था को गिरने से बचाने के लिए आरबीआई का कहना है कि खपत को प्रोत्साहन देने के लिए निवेश बढ़ना जरूरी है। प्रोत्साहन पैकेज में निजी क्षेत्र को इसी उद्देश्य से कॉर्पोरेट टैक्स में छूट दी गई थी, लेकिन कंपनियों ने उस छूट का उपयोग अपनी उधारी कम करने में और अपने नकदी भंडार को बढ़ाने के लिए किया। आरबीआई का यह भी मानना है कि कोविड-19 के कारण सरकारी खर्च बहुत बढ़ गया है और अब और खर्च करने की सरकार के पास गुंजाइश नहीं बची है। केंद्रीय रिजर्व बैंक ने और कर्ज लेने से भी मना किया है क्योंकि उसके अनुसार केंद्र और राज्य सरकारों पर पहले से कर्ज का भार काफी बढ़ा हुआ है।उल्लेखनीय है कि इसके पहले ही भारत सरकार ने अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए मई में 20 लाख करोड़ के आर्थिक राहत पैकेज की घोषणा की थी। भारतीय रिज़र्व बैंक भी मार्च से ब्याज़ दरों में 115 बेसिस पॉइंट्स की कमी कर चुका है। इसके अलावा आरबीआई ने सरकार की कमाई बढ़ने के लिए टैक्स डिफॉल्टरों की पहचान कर उनसे टैक्स वसूलने, लोगों की आय और संपत्ति को ट्रैक कर करदाताओं की संख्या बढ़ाने और जीएसटी तंत्र में आवश्यक सुधार करने का प्रस्ताव दिया है।सरकार के पास नकदी के लिए रिजर्व बैंक ने स्टील, कोयला, बिजली, जमीन, रेलवे और  बंदरगाह जैसे क्षेत्रों में सरकारी संपत्ति को बेचने की भी सलाह दी है। इससे निजी क्षेत्र को भी निवेश करने का प्रोत्साहन मिलेगा। अब यह तो जगजाहिर है कि कोरोना के कारण बेरोजगारी इस समय अपने चरम स्तर पर है। पहला कोरोनावायरस दूसरा चीन से सीमा-विवाद जिस कारण लगातार हथियारों और रॉफाल की खरीदारी चल रही है। इसके बीच भारत की जीडीपी पिछले चार दशकों में पहली बार इतनी लुढ़की है, यह 1979 के दूसरे ईरान तेल संकट से भी बुरी स्थिति है, जब 12 महीनों का प्रदर्शन -5.2 प्रतिशत दर्ज किया गया था। देश को विकास के पथ पर ले जाने वाले इंजन के पहिए खपत, निजी निवेश या निर्यात बंद पड़े हैं। अब केंद्र सरकार के पास इस दौबारा दौड़ाने के लिए अब आर्थिक प्रोत्साहन के साथ-साथ दूरदर्शिता का होना बेहद जरूरी है। सरकार को इस बार सबके विकास के लिए सही मायनों में सबका साथ, सबका विकास का बीढ़ा उठा लेना ही यथार्थ में सही कदम होगा।

उपरोक्त सब आधिकारिक आंकड़ों को देखकर मैं यह स्पष्ट कह सकती हूं कि देश के पूर्व वित्त सचिव सुभाष चंद्र गर्ग ने अपने विवेक से सही विश्लेषण ही जनता को सौंपा है। इसमें दो राह नहीं कि सबसे बड़ी मार गरीब और रोजमर्रा की कमाई पर आश्रित लोगों पर पड़ी है। हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि उनका जीवन यापन किस कदर बाधित और ध्वस्त पड़ा है। देश में ऐसे भी गरीब हैं जिनके पास कोई बचत नहीं होती वह रोज कमाते खाते स्टेशनों पर सो जाते। कोई सोचे कि उनका क्या हाल होगा। जितनी भी सरकारी योजनायें बनती हैं वह पूरे देश के लोगों के जीवन स्तर को सुधारने व सुदृढ करने पर फोकस करके बनायी और क्रियान्वित की जाती हैं पर कोरोना काल ने देशवासियों के जीवनस्तर को बहुत पीछे धकेल दिया है जिससे आज कुछ लोग धनाभाव के कारण सरेआम चोरियां करने जैसे अपराधियों की लिस्ट में बढ़ते जा रहे हैं और अस्पतालों का हाल यह है कि बिना सिफारिश के वह लोग जल्दी एडमिट नहीं करते और लोग तो यहां तक भुगते हैं कि मृत शरीर को कई हफ्तों आईसीयू में रखकर मोटा पैसा कमाया जा रहा है। कोरोना के नाम पर कई भ्रष्ट डॉक्टर गरीबों से नाजायज़ फीस तक बसूल रहे हैं। हालत यह तक है कि किसी सीरियस मरीज को भी कोरोना के नाम पर चक्कर कटवाये जा रहे हैं। उसे जल्द एडमिट नहीं कर रहे जिससे मरीज की जानों पर बन आयी है। अब वह पीड़ित कोर्ट जाये तो वहां भी वीरानी पड़ी है। साहिब! लोग फाईलों की धूल से एलर्जी के कारण केबन से बाहर नहीं निकलते जो बाहर कुुछ अधिवक्ता शून्यता की परिस्थिति में बैैठें हैं तो सैनेटाईजर खरीदने तक कि फीस नहीं निकाल पा रहे क्योंकि न मुवक्किल देने को है और न मुवक्किल के आंसू से वकील साहब की दो समय की सब्जी ही आनी है। चारों तरफ़ उदासीनता की सफेद चादर सी उढ़ा दी गई है। जगहसाई के डर से लोग दूर- दूर बैठ कर अपना दर्द तक नहीं बांट सकते हैं और कल की चिंता में आदमी पिसे चले जा रहा है। वहीं कुछ लोग नये-नये अविष्कार करके लोगों में चेतना भी जगा रहे हैं और महिलाओं ने पुरूषों की हिम्मत बनकर सरकारी मदद से लघु उद्योगों लगाने और चलाने शुरू कर दिये हैं। पूरा देश धीरे-धीरे आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है। पर गरीबों से युवाओं से पूछो तो वह यही कहते हैं कि सरकार अन्न तो दे रही है पर जेब खाली है, बड़े - बड़े सपनों पर बेरोजगारी का दंश भारी है। 

जयहिंद🙏🇮🇳

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