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जरा याद करो कुर्बानी : महान देशभक्त वीर सावरकर जी



 वीर विनायक दामोदर सावरकर जी



जरा याद करो कुर्बानी :

अनुकरणीय हैं महान देशभक्त वीर सावरकर जी


दोस्तों हमारी भारत भूमि ने अनगिनत वीरों को जन्म दिया और उन वीरों की वीरता ने जब भारत माता का कर्ज चुकाने में अपना पूरा जीवन न्योछावर कर दिया तो यह भी पूरी दुनिया ने देखा और दातों तले उंगली दबाने पर मजबूर कर दिया कि यह वही भारत भूमि हैं जहाँ वीरों का सिर कट तो सकता है परन्तु झुक नही सकता। जिनपर कि धरती माँ भी गौरांवित होती होगीं। उन्हीं महान स्वतंत्रता सेनानियों में एक नाम हैं विनायक दामोदर सावरकर जी का जोकि जब
देशभक्त क्रांतिकारियों द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये क्रूर अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 में जो सशस्त्र क्रांति की गई थी उसे अंग्रेजों ने गदर बता कर देशभक्त भारतीयों को भ्रमित करने की जो कुचेष्टा की थी उसी भ्रम को तोड़ने के लिए वीर विनायक दामोदर सावरकर ने ब्रिटेन में बैठकर 1857 का स्वतंत्रता संग्राम ' नाम का क्रांतिग्रंथ लिखा जिससे डरे हुए अंग्रेजों छपने से पहले ही उस पर प्रतिबंध लगा दिया था । वीर सावरकर ने यह ग्रंथ 1907 में लिखा । प्रतिबंध के बाद भी इसका अंग्रेजी अनुवाद हालैंड में छपा वहां से फ्रांस और भारत में भेजा गया । क्रांतिकारियों ने इसे गीता की तरह पढ़ा । इसका दूसरा संस्करण भी भीखाजी कामां लाला हरदयाल आदि क्रांतिवीरों ने छपवाया । तीसरा संस्करण सरदार भगत सिंह जी ने गुप्त  रूप से  छपवाया । यह ग्रंथ इतना लोकप्रिय था कि इसकी एक - एक प्रति तीन- तीन सौ रुपए में बिकी । वीर सावरकर ने अपनी देशभक्ति ,धैर्य,  अदम्य साहस त्याग , उच्चतम मनोबल से यह सिद्ध कर दिया कि अपनी मातृभूमि  - पितृभूमि और पुण्य भूमि की स्वतंत्रता के लिए पत्नी- पुत्री , परिवार का सुख, मान - सम्मान बड़ा पद - बड़ी नौकरी और निजी सुखों को हंसते - हंसते त्याग किया जा सकता है । अग्निपथ पर आगे बढ़ने वाले महान देशभक्त वीर सावरकर को पहले अंग्रेजी सरकारों ने जेलों में बंद करके जो असहनीय और कठोरतम दुःख दिए यह वीर आखिरी सांस तक उन दुःखों से विचलित नहीं हुआ । महाराष्ट्र में नासिक जिले के भगूर नामक ग्राम में दामोदर सावरकर और राधाबाई के घर 28 मई 1883 में वीर विनायक दामोदर सावरकर का जन्म हुआ । 1901 में जब यह मैट्रिक में पढ़ रहे थे तो 22 जनवरी 1901 में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया की मृत्यु होने पर भारतवर्ष में होने वाली शोक सभाओं का विरोध करते हुए उन्होंने कहा था कि शत्रु देश की रानी का शोक हम क्यों मनाएं ? 22 अगस्त 1606 में सर्वप्रथम वीर सावरकर ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी । उस कार्यक्रम की अध्यक्षता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने की थी । परिणामतः उन्हें पूना कालेज से निकाल दिया और दस रुपये जुर्माना लगाया गया कालेज अधिकारियों की लोकमान्य तिलक ने केसरी ' के माध्यम से निन्दा की थी। फिर बम्बई विश्वविद्यालय से बी.ए पास की। एडवर्ड के राज्यारोहण के उपलक्ष्य में भारत में होने वाले उत्सवों क्यों मना रहे हो। 9जून1906 को छात्रवृत्ति लेकर बैरिस्टर का अध्ययन करने ब्रिटेन में समुद्र मार्ग से गए। फिर, 13 मार्च 1910 को लंदन में विक्टोरिया स्टेशन पर वीर सावरकर को बंधी बना लिया गया। उनके बड़े भाई गणेश सावरकर को 1908 में देशभक्ति की कविता लिखने के कारण 9 जून 1909 को आजीवन कारावास की सजा कालापानी भेजा गया। छोटे भाई नारायण सावरकर को क्रांतिकारियों का साथी बताकर जेल में बंद वीर सावरकर को पता लगा तो गर्व से बोले ''इससे बड़ी गौरव की क्या बात होगी कि हम तीन भाई भारत माता की आजादी के लिए तत्पर है।'' फिर,  1 जुलाई 1910 को ब्रिटेन से भारत लाने के लिये वीर सावरकर को समुद्री जहाज से कठोर पहरे को बीच अंग्रेज पुलिस लेकर चल पड़ी। 8 जुलाई 1910 को वीर सावरकर स्वतंत्र भारत की जय बोल कर समुद्र में कूद पड़े। अंग्रेजों ने खूब गोलियां चलाईं पर निर्भय सावरकर फ्रांस की सीमा में पहुंच गए। फ्रांस की भूमि से सावरकर को गिरफ्तार किया तो इसका विरोध हुआ तथा अंतरराष्ट्रीय न्यायालय हेग में केस चला पर फ्रांस और ब्रिटेन की मिलीभगत के कारण उनको न्याय नहीं मिला। 30 जनवरी 1911 में वीर जी को दो आजन्म कारावास की सजा सुनाई तब वे हंस कर बोले - चलो ईसाई सत्ता ने हिन्दू धर्म के पुनर्जन्म सिद्धांत को मान लिया। उस समय देशभक्त क्रांतिकारियों को काले पानी की सजा दी जाती थी जो सब से भयानक होती थी क्योंकि वहाँ से जीवित लौटने की किसी की कोई आस नहीं थी। इस  यमलोक जैसी भयानक सैल्यूट जेल में 7खंड थे जिसकी दूसरी मंजिल की 237नं. कोठरी में सावरकर को रखा गया और उनके कपड़ों पर खतरनाक कैदी लिख दिया गया। 

काला पानी- सेल्यूलर जेल 


उस कोठरी में सोने और खड़े होने पर दीवार छू जाती थी। वीर सावरकर को नारियल की रस्सी बनाने और 30 पौंड तेल प्रतिदिन निकालने के लिये बैल की तरह कोल्हू में जोत दिया जाता था और रुकने पर उनको कड़ी सजा के तौर पर बेंत व कोड़ों से बड़ी ही बेरहमी से पिटाई भी की जाती थी और उसके बाद जंगली दलदली पहाड़ी भूमी क्षेत्र को समतल भी करना होता था। इसके बावजूद भी उन्हें भरपेट खाना नही दिया जाता था। इतना शारीरिक कष्ट भोगने के बाद भी वह रात को दीवार पर देशभक्ति की कविताएँ लिखते याद करते और मिटा देते। 

सावरकर जी इसी कोठरी में रहे। 

वह जेल की दीवारों पर पत्थर के टुकड़ों से कवितायें लिखाा करते थे। कहा जाता है कि उन्होंने अपनी रची दस हज़ार से भी अधिक कविताओं की पंक्तियों को प्राचीन वैदिक साधना के अनुरूप वर्षों अपनी स्मृति में सुरक्षित रखा, जब तक वह किसी न किसी तरह देशवासियों तक नहीं पहुंच न गईं। 
ऐसी विकट परिस्थिति में भी ऐसी याददाश्त का होना अकल्पनीय है। यह कष्ट सहिष्णु महान देशभक्त,  साहित्यकार, चिंतक और विचारक,  स्वतंत्रता सेनानी को नमआँखों,  दिल और आत्मा से हजारों सैल्यूट निकलते हैं। वीर सााावरकर जी के अनुसार -
 '' मातृभूमि! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूँ। देश-सेवा ही ईश्वर - सेवा है, यह मानकर मैंने, तेरी  सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की।" वह 13 मार्च 1910 से लेकर 27 वर्षों से अधिक (संसार में सर्वाधिक राजनीतिक बंदी) समय तक विभिन्न जेलों में अमानवीय पीड़ा भोगकर 10 मई 1937 में उच्च मनोबल, ज्ञान और शक्ति से भरपूर इच्छाशक्ति के धनी वीर सावरकर अंग्रेजी जेल से ऐसे बाहर निकले जैसे लम्बी रात का अंधेरा चीर कर सूर्य बाहर आ रहा हो। 1857 की क्रांति भी 10 मई को ही शुरू हुई थी। उस समय भारतमाता के इस कुंदन से निखरे पुत्र वीरवरकर से अंग्रेजी सत्ता इतनी भयभीत थी। कि उन्हें अंडमान से रत्नागिरी क्षेत्र से बाहर नहीं जाने दिया। उस रत्नागिरी जेल में वीर सावरकर जी 13 साल तक रहे और साहित्य रचना, शुद्धि आन्दोलन, अस्पृश्यता - निवारण, हिन्दी भाषाा देशभक्ति केे गीत और लेख लिखते रहकर अनेक कार्य करते हुये 26 फरवरी 1966 मेंं भारतमाता का यह सपूत देशभक्ति के जुनून को जन-जन में जगाकर सद्गति को प्राप्त हो गया। यह हैैं हमारे भारत के वे रत्न कि जिनकी चमक से आज भी देश रोशन और गतिमान है।

वंदेमातरम्🇮🇳

ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना 


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