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सुलभ इंडिया पत्रिका में प्रकाशित लेख - ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना


पीढ़ियों की रूढ़ियों से मुक्ति ही स्वच्छता 
(स्वच्छ मानसिकता स्वच्छ समाज) 
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- ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना 
मेम्बर ऑफ फिल्म स्क्रिप्ट राईटर ऐसोसिएसन मुम्बई 





स्वच्छता की पूरी दुनिया में चर्चा हो रही है पर क्या पता है कि इसकी उपयोगिता और उपादेयता हमारे लिए क्या है? हम जीवन में साफ़ सफाई के लिए यदि नहीं सतर्क रहे तो हमें क्या हानि होने वाली है? शायद, स्वच्छता का अर्थ भी तब अस्तित्व में आया होगा जब इंसान अपने लिए ही नहीं सब के लिए जागा होगा। बात उस समय की है जब अठारहवीं और उन्‍नीसवीं सदी के दौरान, यूरोप और अमरीका में इतनी गंदगी फैली थी कि उस समय के मिशनरियों के प्रचार को “स्वच्छता का सिद्धांत” कहा गया। इस सिद्धांत के मुताबिक गंदगी की तुलना पाप से की गयी है और स्वच्छता ईश्वरीय गुण माना गया। उसके बाद लुई पॉश्चर और दूसरे वैज्ञानिकों ने यह साबित भी कर दिया कि गंदगी यानी जीवाणु बीमारी की जड़ हैं और इसके बाद जनता के अच्छे स्वास्थ्य के लिए देश-दुनिया में तेज़ी से स्वच्छता जागरूकता योजनाओं का प्रचार-प्रसार हुआ और भारत जैसे देश में, जहां सफाई कभी मुद्दा ही नहीं रही, इसे एक जन अभियान का रूप लेने में वक्त लगना तो लाजमी है। 
        असल में हमारे अवचेतन में यह भाव कहीं न कहीं बैठा रहा कि सफाई करना हमारा नहीं दूसरों का काम है। इस मानसिकता पर महात्मा गांधी ने प्रहार किया था। उन्होंने स्वच्छता को एक नैतिक जवाबदेही और एक मूल्य बताया था। सबसे अच्छी बात यह है कि महात्‍मा गांधी के इस स्‍वच्‍छ भारत के स्‍वप्‍न को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी ने 2 अक्‍टूबर 2014 को स्वच्छ  भारत अभियान की शुरुआत की और  इसके सफल कार्यान्वयन हेतु भारत के सभी नागरिकों से इस अभियान से जुड़ने की अपील भी की। इस अभियान का उद्देश्य पांच वर्ष में 'स्वच्छ भारत का लक्ष्य' प्राप्त करना है ताकि गांधी जी की 150वीं जयंती को  स्वच्छ लक्ष्य प्राप्ति के रूप में मनाया जा सके। 
             इस अभियान को और भी व्यापक बनाने हेतु केंद्र सरकार ने देश भर में स्वच्छता अभियान के लिए संसाधन जुटाने के लिए सेवाकर के दायरे में आने वाली सभी सेवाओं पर 'अधिभार' यानी सेस लगाने का निर्णय लिया है। अब सवाल उठता है कूड़ा उठाने की प्रक्रिया, उसकी डंपिंग और रीसाइक्लिंग और हर दो सौ कदम पर कूड़ेदान लगाने और उन्हें नियमित साफ करने का काम नगरनिगम ही कर सकते हैं जबकि अमूमन देखा जाता है कि देश में नगरपालिकाओं और नगरनिगमों की कार्यप्रणाली पूरी तरह अव्यवहारिक और अवैज्ञानिक यानि ध्वस्त है। अब सवाल उठता है कि क्या इस दुर्व्यवस्था को सुधारे बिना जनता पर अधिभार यानी सैस लगाने भर से क्या स्वच्छ भारत अभियान  व्यापक, प्रगाढ़ और द्रुतगामी हो सकेगा?

          दुखद तो यह है कि आज विकासशील देशों में अस्वच्छता के आकड़े बेहद दयनीय स्थिति में हैं। आज गंदगी के कारण अतिसार से होने वाली कुल मृत्यु का एक बड़ा चौथाई भाग अकेले भारत में है जो काफी चिंताजनक है। इस परिपेक्ष्य में  विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कहा है कि इस अस्वच्छता का मूल कारण प्रदूषित पानी है जो 80 प्रतिशत रोगों का मूल कारण है, जो अपर्याप्त स्वच्छता और सीवेज निपटान विधियों का परिणाम है। इसी परिणाम के दुष्परिणाम से  हमारी मोक्षदायनी जीवनदायिनी गंगा भी अछूती नहीं है। 2014 से अब तक गंगा की सफाई पर 3,867 करोड़ रुपये से अधिक ख़र्च किये जा चुके हैं पर  हर महकमें में भ्रष्टाचार व लापरवाही व कुछ धार्मिक कर्मकांड के चलते हमारी गंगा आज आचमन के लायक भी न रही है जिसका उदाहरण कानपुर के गंदे नाले की भेंट चढ़ती गंगा की दर्दमयी पुकार किसी को सुनाई नहीं देती। कितनी दुखद बात है कि जिस गंगाजल में कीड़े नहीं पड़ते हम उसमें वर्षों से नित मल बहाते आ रहे हैं और उसी गंगा से अपनी तरक्की का अवसर  मांगकर सिर्फ़ अपनी लालच और कुत्सित मानसिकता साबित करते आ रहे हैं।

           हम इंसानों ने अपनी अंतरिक्ष चीरती  महत्वाकांक्षाओं व धन लोलुपता के स्वभाव में वशीभूत होकर अपने सिवाय निज स्वार्थी मनोदशा के चलते सुरक्षा खोने वाले हैं। मनुष्य यह क्यों भूल जाता है कि पॉलीथिन बेज़ुबानों के साथ-साथ स्वंय के लिए भी घातक है। जिससे मुक्ति हमारे क्रियाकलापों में स्वच्छता और सुदीर्घ जीवन देगी।

       सच्चाई तो यह है कि  स्वच्छता कितनी जरूरी है यह बात उन बेज़ुबानों की हालत से लगाया जा सकता है। हम इंसानों द्वारा सड़कों पर फैलाया गया पॉलीथिन कचरे की वजह से हर दिन हमारा पशुधन हमसे छिनता जा रहा है। जिसकी पुष्टि राज्य पशु चिकित्सा विभाग और पशु कल्याण संगठन ने यह कहते हुए की है कि उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ शहर में लगभग हर साल 1000 गायें पॉलीथिन की वजह से बिन मौत मारी जाती हैं। आपको याद ही होगा कि जब 21 फरवरी, 2018 के दिन बिहार के  वेटेनरी कॉलेज के डॉक्टरों की टीम ने उस वक्त हैरान कर दिया था जब तीन घंटे चले गायों के ऑपरेशन से 80 किलो पॉलिथीन वेस्टेज के रूप में निकाला गया था जबकि आज हमारे देश में स्वच्छता का ध्वज दसों दिशाओं को रोशन कर रहा है। आज हर बड़े नेता व मंत्री हाथ में झाड़ू, फावड़ा लिये सफाई करते सोसल मीडिया पर छाये व अखबारों की शान बने हुये हैं। पर जो सचमुच हमारे देश के हजारों वर्षों से मैला उठाते आ रहे सफाईकर्मी है उनकी हालत पर आप माननियों को तरस क्यों नहीं आता? आप कहते हैं कि महिलाओं के हाथ से मैला हटाओ पर जब उनके पुनर्वास की बात आती है तो क्यों उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ मिलने में एड़ियां घिस जाती हैं और मजबूरन उन्हें मैला ढ़ोने व सीवर में उतरना पड़ता है और दुर्भाग्यपूर्ण है कि उन्हें असमय काल के गाल में समाना पड़ता है। उससे भी दुर्भाग्यपूर्ण यह कि हमारे सेवाकर्मी सफाईकर्मियों के प्रति सरकार, समाज व न्यायालय प्रशासन का बेरूखी भरा नजरिया, उनकी जीते जी जान ले लेता है। 

      बीते सप्ताह दिल्ली में ही एक निजी आवासीय सोसायटी में बचाव उपकरणों के बिना गहरे सीवर की सफाई करने के दौरान चार सफाई कर्मियों की मौत हो गई थी। इस तरह की खबरें मानवता के प्रति हमारी संवेदनहीनता को ही उजागर नहीं करतीं, बल्कि समय-समय पर संवैधानिक कानूनों के हनन का उदाहरण भी पेश करती हैं। यह चिंताजनक है कि सफाई कर्मियों की मौतों की संख्या में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है और अमानवीय और असुरक्षित तरीके से सफाई कार्य अपनी गति से जारी है। एक सर्वे के तहत पिछले दस वर्षों में सफाई के दौरान केवल मुंबई नगर निगम के 2721 सफाई कर्मियों की मौत हुई है। ऐसी ही मौतें देश के अन्य शहरों में भी हुई हैं।

   दुखद बात है कि सरकार के पास इस परेशानी से निपटने के लिए कोई योजना नहीं है। सरकार स्मार्ट सिटी बनने स्वप्न दिखाती है लेकिन स्मार्ट सैनिटेशन की बात नहीं करती जबकि हमारे देश में सैनिटेशन को लेकर जागरूकता की बहुत कमी है। बहुत से लोगों द्वारा पॉलीथिन, गंदगी, कागज, सेप्टिक टैंक में बहा दिये जाते हैं और जब वह ब्लॉक हो जाता है तो किसी न किसी को मजबूरन सीवर में जाना ही पड़ता है जिसमें उनकी मौत हो जाया करती है। यह एक सच्चाई है कि आज स्वच्छता के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ी है, लेकिन सफाई कर्मियों की दर्दनाक मौतें स्वच्छता अभियान की उपलब्धियों को मुँह चिढ़ा रहीं है।

          कुछ प्रकृति विचारक मानते है कि गंदगी में अशिक्षा का बहुत बड़ा रोल है पर मेरा मानना तो यह है कि नहीं यह बात पूरी तरह सच नहीं क्योंकि हमारे पूर्वजों ने हमेशा हमें सफाई से रहने की शिक्षा और वातावरण प्रदान किया है। बात उस समय की है जब कच्चे घर हुआ करते थे और हमारे पूर्वज आंगन में पानी का छिड़काव किये बिना भोजन नहीं करते थे और कठिन हालातों में भी लिपाई-पुताई से घर को चमकाकर रखते थे और न सिर्फ़ चौके यानी किचन को बल्कि शौचालय तक की लिपाई-पुताई हर हप्ते की जाती थी। क्या वे सब बहुत पढ़े-लिखे थे, नहीं। अभी हाल ही में दोबारा हड़प्पा की खुदाई में मिले बहुत बड़े स्नानागार और बंद पक्की नालियां और यहां तक की घर में शौचालय होने तक के इतिहासकारों ने पक्के प्रमाण दुनिया के सामने रखें हैं जिससे साबित होता है कि हमारी भारतीय सभ्यता कभी भी अस्वच्छता की हिमायती नहीं रही चाहे वह बिना पढ़े लोग ही क्यों न रहे हों। हम तो यहीं कहेगें कि शिक्षा की कमी ही अस्वच्छता का मूल कारण नहीं है बल्कि देखा तो यहां तक गया है कि कई बहुत शिक्षित लोग भी सार्वजनिक स्थानों पर गंदगी फैलाने से बाज नहीं आते हैं। इन पढ़े-लिखे अनपढ़ और अराजक प्रवृति के गंदगी फैलाने वाले लोगों के खिलाफ़ सरकार को सख्त कानून भी बनाने की आवश्यकता है क्योंकि भय बिनु होइ न प्रीति। 

   स्वच्छता के लिए सख्त कानून बनाये जाने की जरूरत है। यदि कोई गंदगी फैलाता है तो उस पर बड़ा जुर्माना लगाया जाये क्योंकि जब तक जुर्माने का भय नहीं होगा तब तक गंदगी फैलाने वालों की आदत में सुधार नहीं होने वाला है। यह बहुत पुराना मैल है जो केवल साबुन से नहीं बल्कि जुर्माने रूपी ब्रश से ही साफ किया जा सकता है। हमें यह बात अपने दिल-ओ-दिमाग में उतार लेनी चाहिए कि यह देश हमारा है और इसे स्वच्छ रखने की जिम्मेदारी भी हमारी ही होनी चाहिए। केवल खास मौके पर ही सफाई अभियान न चले बात तो तब हो कि यह दिनचर्या का हिस्सा बने।

 यह बात किसी परिकथा से कम नहीं कि प्रशासन ही सफाई के लिये जिम्मेदारी ले ले और रातों रात क्लीन-इंडिया का जिन्न कोई चमत्कार कर दे। हमें समझना होगा कि खुद के मरे ही स्वर्ग दिखता है मतलब प्रशासन के भरोसे बैठने से परिवेश साफ नहीं हो सकता, यह शुरूआत हमें ही हमारे घर से अपनी आदतों के मोहपाश से मुक्त होकर धरातल पर सार्थक करने के लिए संकल्पित होना होगा। 

        आज भारत सरकार ने अस्वच्छता के खिलाफ़ अपनी बड़ी मुहिम के चलते सर्वप्रथम ग्रामीण क्षेत्रों के लिए स्वच्छ भारत मिशन अभियान की जोरदार शुरुआत की है जिसका उद्देश्य पांच वर्षों में भारत को खुले में शौच मुक्त देश बनाना है। इस अभियान के तहत देश में लगभग 11  करोड़ 11 लाख शौचालयों के निर्माण के लिए एक लाख चौंतीस हजार करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं।

       इसी क्रम में शहरी क्षेत्रों में स्वच्छ भारत मिशन के तहत  इस मिशन का उद्देश्य 1.04 करोड़ परिवारों को लक्षित करते हुए 2.5 लाख सामुदायिक शौचालय, 2.6 लाख सार्वजनिक शौचालय और प्रत्येक शहर में एक ठोस अपशिष्ट प्रबंधन की सुविधा प्रदान करना है। शहरी स्वच्छता अभियान के तहत यह कार्यक्रम पांच साल की अवधि में 4401 शहरों में लागू किया गया है और इस कार्यक्रम पर खर्च किए जाने वाले 62,009 करोड़ रुपए में से केंद्र सरकार की तरफ से 14623 रुपए उपलब्ध कराए गये व केंद्र सरकार द्वारा प्राप्त होने वाले 14623 करोड़ रुपयों में से 7366 करोड़ रुपए ठोस अपशिष्ट प्रबंधन पर, 4,165  करोड़ रुपए व्यक्तिगत घरेलू शौचालयों पर, 1828 करोड़ रुपए जनजागरूकता पर और सामुदायिक शौचालय बनवाए जाने  पर 655 करोड़ रुपए खर्च किए गये। पर खेद है कि इतनी बड़ी धनराशि खर्च करके भी स्वच्छ भारत मिशन की सफलता का स्वप्न अधूरा ही रहा क्योंकि जमीनी हकीकत यह है कि आज देश के अकेले चार बड़े शहरों-दिल्ली, चेन्नई, मुंबई और कोलकाता में 16 बिलियन लीटर गंदा पानी बहता है जिसे ठिकाने लगाना ही एक समस्या और एक अबूझ पहेली बना हुआ है। 

       हालांकि, तत्कालीन केन्द्रीय शहरी विकास और संसदीय कार्यमंत्री एम. वैंकेया नायडू जब मंत्रालय सम्हाल रहे थे तो उन्होंने कहा था कि स्वच्छ भारत अभियान को गति देने के लिए केन्द्र सरकार, राज्यों को और ज्यादा राशि आवंटित करेगी।  वर्ष 2010 की यूएन रिपोर्ट के अनुसार देश की समूची जनसंख्या में से 60 फीसदी (2.5 बिलियन) लोगों के पास शौचालयों का अभाव है और इससे 13 करोड़ परिवार प्रभावित होते हैं। शौचालयों और अन्य सुविधाओं के न होने से भारत को प्रतिवर्ष 54 अरब रुपए का भारी नुकसान होता है और शर्मिंदगी अलग से। जरा सोचें! किसे अच्छा लगता है जब विदेशी पर्यटक अपने देश में जाकर यहां कि गंदगी पर व्यंग करते है और कुछ शोध हमारे अस्मिता पर प्रश्न करते हुए प्रकाशित करते हैं।  सच तो यह है कि देश को स्वच्छता का मंत्र देने वाले महात्मा गांधी हर गली में सफाई अभियान के लिए नहीं गए थे, लेकिन उनकी प्रेरणा ने जरूर ऐसा कराया। हम यह बात क्यों नहीं समझते कि ये काम सिर्फ़ सरकार और मंत्रियों का नहीं है। यह कार्य हमारी जिम्मेदारी है और जब तक प्रत्येक व्यक्ति खुद की यह जवाबदेही तय नही करता तब तक कुछ बड़ा चमत्कार होने वाला नहीं है। सोचने वाली बात यह भी है कि हम नौ करोड़ शौचालय तो बना लेंगे पर क्या  उन्हें साफ करने के लिए उनके ऊपर पानी की टंकियां व जल निकासी की व्यवस्था सुदृढ़ कर उनका सही क्रियान्वयन करा पाने में सफल होगें? यक्ष प्रश्न तो यह भी है कि अगर लोग प्रति दो घंटे स्वच्छता के प्रति श्रमदान भी करें, यह भी हो जाएगा लेकिन इससे जमा हुआ कचरा आखिर जाएगा कहां? 


ऐसे में, स्वच्छ भारत अभियान सही मायनों में तभी सफल होगा जब लोगों के मन में पीढ़ियों से जमी रूढ़ियों की गंदगी समूल रूप से दूर होगी और तब यह भी सम्भव है की स्वच्छता समाज का एक स्वीकृत मूल्य बन जायेगी।

-ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना 











अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त परम आदरणीय डॉ. कन्हैया त्रिपाठी जी, पूर्व ओ. एस. डी राष्ट्रपति भवन भारत सरकार, जी का व सुलभ इंडिया पत्रिका के संपादक परमआदरणीय पद्मविभूषण डॉ बिन्देश्वरी पाठक जी जिन्हें भारत सरकार द्वारा १९९१ में पद्म भूषणपुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन् 2003 में श्री पाठक का नाम विश्व के 500 उत्कृष्ट सामाजिक कार्य करने वाले व्यक्तियों की सूची में प्रकाशित किया गया। श्री पाठक को एनर्जी ग्लोब पुरस्कार भी मिला।गाँधी शांति पुरस्कार से सम्मानित आदरणीय को इंदिरा गांधी पुरस्कार, स्टाकहोम वाटर पुरस्कार इत्यादि सहित अनेक पुरस्कारों द्वारा सम्मानित किया गया है। आप दोनों महान शख्सियतों का ससम्मान आभार व्यक्त करतीं हूँ कि मुझ जैसे तुच्छ कलमकार के विचार आपने अपनी विश्व विख्यात पत्रिका में प्रकाशित करने की कृपा की। आप दोनों के इस स्नेहिल बडप्पन के लिए कोटिश वंदन। 

जय स्वच्छ सोच, जय स्वच्छ भारत 

-ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना 
🙏🙏🙏💐




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