जन्मभूमि पर ही बनेगा श्रीराम मंदिर - ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना
ऐतिहासिक फैसला :
जन्मभूमि पर ही बनेगा श्रीराम मंदिर
(श्रद्धा और साक्ष्य)
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- आकांक्षा सक्सेना, न्यूज ऐडीटर सच की दस्तक
'राम' वह नाम जिसे लेकर प्राणी मात्र का कल्याण हो जाता है।'राम' वह विराट नाम जिसकी पूर्ण व्याख्या करना ही असम्भव है। ‘राम’ जो भारतीय परंपरा में तारणहार मंत्र। वह ब्रह्मवादियों का ब्रह्म है, निर्गुणवादी संतों का आत्माराम है, ईश्वरवादियों का ईश्वर है, अवतारवादियों का अवतार है।वह वैदिक साहित्य में एक रूप में आया है, तो बौद्ध जातक कथाओं में किसी दूसरे रूप में। वह ऋषि वाल्मीकि के ‘रामायण’ और ‘योगवसिष्ठ’ में। वह गोस्वामी तुलसीदास की श्री राम चरित्र मानस में तो ‘कम्बन रामायण’ में वह दक्षिण भारतीय जनमानस को भावविभोर कर देता है, तो तुलसीदास के रामचरितमानस तक आते-आते वह उत्तर भारत के घर-घर का बड़ा और आज्ञाकारी बेटा, आदर्श राजा और सौम्य पति बन, महान न्याय प्रिय निष्पक्ष पारदर्शी महात्यागी वचनबद्ध राजा के रूप में जाने गये। इस लंबे कालक्रम में रामायण और रामकथा स्वरूप 1000 से अधिक ग्रंथ लिखे जाते गये। तिब्बती और खोतानी से लेकर सिंहली और फारसी तक में रामायण लिखी गई। 1800 ईसवी के आस-पास उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर मसीह फारसी भाषा के करीब 5000 छंदों में रामायण को छंदबद्ध करते हैं। ऐसी ही भगवान श्री राम की महिमा। वहीं जब कोर्ट में बैठे जज और वकीलों ने भगवान श्री राम जो भारत की आत्मा है पर भद्दे सवाल दागे गये जो दुर्भाग्यपूर्ण हैं। वहीं कुछ लोग गंगा जमुनी तहज़ीब का दिलासा देकर हिंदुओं को बहलाते रहे या कहें कि टरकाते रहे...।
हम बात कर रहे हैं 1528ई. से आजतक यानि 490 वर्ष बाद यानि पांच सौ वर्ष के करीब आज तक करोड़ों रामभक्त अपने आराध्य भगवान श्री राम जी के मंदिर पर आने वाले फैसले पर नजरें टिकाये बैठे हैं कि कब अचानक हमारे आराध्य की टैंट से मुक्ति हो जाये। और नजरें टिके भी क्यों ना, एक थी भगवान श्री राम की माँ कैकेयी जिनका नाम तक कोई नहीं रखता, उन्होंने भगवान श्री राम को निजि स्वार्थ में उन्हें 14 वर्ष का वनवास दिलवा दिया था जिससे सुनकर-देखकर-पढ़कर हम लोग रो पड़ते हैं तो सोचिये! 1528 से आजतक यानि चार सौ नब्बे वर्ष हमने हमारे आराध्य को सड़कवास दिया, वनवास की ही तरह। लगभग 72वर्षों से मुकदमें बाजी से हमने 72वर्ष सड़कवाश दिया, टैंटवास दिया।
सचमुच ये प्रत्येक रामभक्त के लिए असहनीय पीड़ादायक था। दूसरी तरफ़ हमें कहा गया कि फैसले आने की खुशी मत मनाओ, देश का माहौल न बिगाड़ना। मैं पूछना चाहती हूं अरे! भाई खुशी के पलों में खुशी नहीं तो क्या मातम मनाऊँ। हाँ यह और बात है कि किसी को अभद्र भाषा ना बोली जाये पर आप भगवान श्री राम के भक्तों को उल्लास मनाने से कैसे रोक सकते हैं। वहीं दूसरी तरफ़ कुछ लोग गंगा - जमुनी तहजीब का कोरा बखान करके हिंदूओं को क्रोधी कहने वाले ये क्यों भूल जाते हैं कि हिंदुओं के इष्ट भगवान श्री राम पर वह आक्रांता बाबर और औरंगजेब के पक्षकार सुप्रीम कोर्ट तक उतर आये। जो हमारे आराध्य को स्वेच्छा से उनका जन्मस्थान नहीं दे सके। उन्हें इतने वर्षों से टैंट में देखकर उन लोगों की करूणा ना जाग सकी। जो जमीन के टुकड़े के लिए वर्षों मुकदमें बाजी करते रहे। वो भी उस पवित्र भूमि के लिए जो युगों - युगों से सिर्फ हिंदूओं के इष्ट भगवान श्री राम की जन्मभूमि थी। जिस भूमि को भगवान श्री कृष्ण जी ने द्वापर युग में नमन किया। उस भूमि को लेने की इन लोगों की ऐसी जिद्द, कहां से भाईचारा सिद्ध करती है?
सच तो यह है कि भगवान श्री राम मंदिर पर आने वाला यह फैसला हिंदुओं को कोई थाली में सजा कर नहीं दे रहा बल्कि इसके लिये देश का सुप्रसिद्ध हिंदू संगठन आर. एस. एस, विश्व हिन्दू परिषद, निर्मोही अखाड़ा, बजरंग दल और भी अनेकों हिंदू, सनातन संगठनों, संत समाज, अखाड़ा परिषदों ने भगवान श्री रामजी को टैंट से निकाले की एक बहुत लम्बी लड़ाई लड़ी है। वहीं इस लड़ाई में या मैं कहूँ कि पूरी 72 बार हुईं लड़ाईयों में 1528 से लेकर आज 2019 तक करीब चार लाख हिन्दूओं ने अपना रक्त बहाया है, अपना बलिदान दिया है और इस बात को प्रमाणित करते हुए एक किताब जिसका नाम है ‘कितने पाकिस्तान’ जिसमें कई चैप्टर अयोध्या विवाद को समर्पित हैं। उपन्यास के मुताबिक अयोध्या में मस्जिद बाबर के भारत पर आक्रमण करने से पहले ही मौजूद थी। बाबर 20 अप्रैल 1526 को इब्राहिम का सिर क़लम करके आगरा की गद्दी पर बैठा था और हफ़्ते भर बाद 27 अप्रैल 1526 को उसके नाम का ख़ुतबा पढ़ा गया। इसी उपन्यास के मुताबिक 1528 में अप्रैल से सितंबर के बीच एक हफ़्ते के लिए बाबर अयोध्या आया और राम मंदिर को तोड़कर वहां बाबरी मस्जिद नींव रखी। यह भी लिखा कि अयोध्या पर हमले के दौरान लड़ाई में बाबर की सेना ने एक लाख चौहत्तर हज़ार हिंदुओं को मार दिया।
अब सवाल यह उठता है कि कोर्ट को सबकुछ मालूम था फिर इतना लम्बा समय क्यों लगा? या राजनीति इतनी षड्यंत्रकारी थी कि भगवान श्री राम जी को ही मुद्दा बनाकर रखना अपना ऐकाधिकार समझ चुकी थीं। जबकि आज से चार साल पहले ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी माना था कि अयोध्या में राम मंदिर को बाबर और उसके सूबेदार मीरबाक़ी ने 1528 में मिसमार करके वहां बाबरी मस्जिद का निर्माण करवाया। मीरबाक़ी का पूरा नाम मीरबाक़ी ताशकंदी था और वह अयोध्या से चार मील दूर सनेहुआ से सटे ताशकंद गांव का निवासी था।
इसी तथ्य को आधार बनाकर हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने सितंबर में बहुप्रतीक्षित ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया था पर फिर भी फैसला घिसट गया और तारीखों में उलझता गया।
इस सबके बाद भी हिंदूओं ने भारत के कानून व न्यायालय का सम्मान करते हुए अपने धैर्य का परिचय देते हुए भगवान श्री राम लला- बाबरी विवाद केस की तारीख पर मिलती तारीख से भी हम हिंदू टूटे नहीं, बिखरे नहीं। क्योंकि हमारे संत समाज, महामण्डलेश्वर जी, अनेको सम्मानित अखाड़ों के गुरूओं और संतों ने हम सबसे कहा कि सिर्फ़ ईश्वर में आस्था रखो और बिल्कुल चिंता ना करो। कोई भी काल हो जीत हमेशा सत्य ही होगी।
अब अयोध्या विवाद की सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई 16 अक्टूबर, 2019 को पूरी हो गई है। 16 अक्टूबर सुनवाई का 40वां और आखिरी दिन था। पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने इस मामले की सुनवाई की थी। सभी जानते हैं कि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया रंजन गोगोई 17 नवंबर को रिटायर हो रहे हैं और उन्हें इससे पहले कई महत्वपूर्ण फैसले देने हैं। जिसमें प्रभु श्रीराम मंदिर पर पहले फैसला आने की संभावना है। इस पूरे मामले में तीन बड़े पक्ष हैं- राम जन्मभूमि न्यास, सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और निर्मोही अखाड़ा। अब निर्मोही अखाड़े के विषय में बतातें हैं कि हमारे संतों ने किस तरह अपने धर्म अपने इष्ट के सम्मान की रक्षा की लड़ाई। बात 1853 की है जब पहली बार यहां पर कम्युनल लड़ाई का जिक्र मिला था। फिर 1859 में ब्रिटिश अफसरों ने वहां पर बाउंड्री दे दी थी और हिंदू और मुस्लिम दोनों के लिए पूजा का स्थान निर्धारित कर दिया था ।
मगर इसमें पेच यह था कि मुस्लिम अंदर नमाज पढ़ते थे और हिंदू बाहर पूजा करते थे जिसे देखकर 1885 में निर्मोही अखाड़े के महंत ने कोर्ट में पेटिशन दिया कि हिंदुओं को मस्जिद के अंदर जाकर हमारे आराध्य श्री राम जी की पूजा करने की अनुमति दी जाए लेकिन इजाज़त नहीं मिल सकी और एक नया विवाद जो देश की आजादी से एक साल पहले सन 1946 में उठा था कि बाबरी मस्जिद शियाओं की है या सुन्नियों की? जिसपर फैसला हुआ कि बाबर सुन्नी था इसलिए सुन्नियों की मस्जिद है। फिर, 1949. 22-23 दिसंबर को मस्जिद में राम सीता और लक्ष्मण की मूर्तियां रख दी गईं लेकिन 29 दिसंबर को यह संपत्ति कुर्क कर ली और वहां रिसीवर बिठा दिया गया। फिर 1950 से इस जमीन के लिए अदालती लड़ाई का एक नया दौर शुरू हुआ। इसके बाद इस मुद्दे को लेकर 5 मुकदमे दर्ज हुए। जिसमें पहला मुकदमा 16 जनवरी, 1950 को फाइल हुआ।
इसमें ये कहा गया कि विवादित जगह पर मूर्तियों की पूजा का अधिकार दिया जाए। दूसरा मुकदमा दिसंबर, 1950 में रामजन्मभूमि न्यास के महंत ने फाइल किया।ये भी पूजा को लेकर था तो दोनों मुकदमों को क्लब कर दिया गया। तीसरा मुकदमा दिसंबर, 1959 में फाइल किया गया निर्मोही अखाड़ा के द्वारा।इनको मंदिर का चार्ज चाहिए था। चौथा मुकदमा दिसंबर, 1961 में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड, यूपी ने फाइल किया।इसमें मांग की गई कि मूर्तियां हटाई जाएं और मस्जिद सौंप दी जाए। बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद में निर्मोही अखाड़ा ने 1885 में फ़ैज़ाबाद की जिला अदालत में पहली बार याचिका दायर की थी।विवादित जगह पर मंदिर निर्माण के लिए लेकिन अनुमति नहीं मिली थी।मौजूदा मामले में निर्मोही अखाड़ा साल 1959 में पार्टी बना।सुप्रीम कोर्ट के सामने रखी दलील में निर्मोही अखाड़ा चाहता है कि उसे राम जन्मभूमि का प्रबंधन और पूजन का अधिकार मिले। इसके साथ ही विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने मंदिर निर्माण से जुड़ी गतिविधियां फिर तेज की और श्री रामजन्मभूमि न्यास का गठन किया। तेजी से घूमे घटनाक्रम में एक फरवरी 1986 को विवादित स्थल का ताला खोलने का आदेश जिला व सत्र न्यायाधीश ने दिया और उसी दिन ताला खुल गया और वहां पूजापाठ शुरू हो गया। अगले ही दिन विहिप ने भगवदाचार्य स्मारक सदन में बैठक कर रामजन्मभूमि का स्वामित्व श्री रामजन्मभूमि न्यास को सौंपने की मांग की।
इस बैठक में महंत अवेद्यनाथ, परमहंस रामचंद्रदास व महंत नृत्यगोपाल दास के अलावा विहिप के कई शीर्ष नेता माैजूद थे। विहिप की सक्रियता का ही नतीजा था कि 1989 में पालमपुर अधिवेशन में भाजपा ने रामजन्मभूमि पर भव्य मंदिर निर्माण को अपने चुनाव घोषणापत्र में शामिल करने का एलान कर दिया। नौ नवंबर 1989 को विहिप ने पूरे देश में शिलापूजन कार्यक्रम की घोषणा कर माहौल धर्ममय मिशाल को प्रज्ज्वलित कर दिया था। 24 जून 1990 को विहिप के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल की बैठक हरिद्वार में हुई जिसमें 30 अक्टूबर (देवोत्थानी एकादशी) से मंदिर के लिए कारसेवा करने का एलान किया गया।
परिणामस्वरूप, 30 सितंबर, 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया।कोर्ट ने 2.77 एकड़ जमीन को सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला विराजमान में बराबर-बराबर बांटने का आदेश दिया। फैसले में कहा गया था-जिस जगह रामलला की मूर्ति है उसे रामलला विराजमान को दिया जाए और सीता रसोई और राम चबूतरा निर्मोही अखाड़े को दिया जाए व बचे हुए हिस्से को सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया जाए लेकिन फैसला किसी को मंजूर नहीं हुआ और तीनों पक्ष सुप्रीम कोर्ट चले गए। रामलला विराजमान और हिंदू महासभा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने भी सुप्रीम कोर्ट में हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अर्जी दाखिल की। मामले में कई और पक्षकारों ने याचिकाएं लगाईंं। सुप्रीम कोर्ट ने 9 मई, 2011 को हाई कोर्ट के आदेश पर अंतरिम रोक लगा दी।
इसके साथ ही यह भी कहा कि मामला लंबित रहने तक संबंधित पक्षकार विवादित भूमि पर यथास्थिति बनाए रखेंगे। फिर 8 मार्च, 2019 को अदालत ने मध्यस्थता पैनल का गठन किया था।उस समय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आपसी सहमति से मामला सुलझा लो। अगर आपसी सहमति से कोई हल नहीं निकलता है तो रोजाना सुनवाई पर विचार किया जाएगाा। इस पैनल ने 155 दिनों तक भूमि विवाद का हल निकालने की कोशिश की लेकिन वह सभी पक्षों के बीच सहमति बनाने मेंं पूर्णणतः असफल रही। सुन्नी वक्फ बोर्ड चाहता था कि बातचीत की रिकॉर्डिंग हो और उसे गोपनीय रखा जाए पर बात बनी नहीं। इसके बाद 6 अगस्त, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने मामले की रोजाना सुनवाई आरम्भ कर दी जिसमें 40 दिन बहस चली।
बता दें कि अयोध्या की 2.77 एकड़ ज़मीन विवादित है। निर्मोही अखाड़ा इस ज़मीन के प्रबंधन पर अपना पहला हक़ जताने का दम भरता है। वो इसलिए कि निर्मोही अखाड़ा 14वीं शताब्दी में संत रामानंद ने शुरू किया था।निर्मोही अखाड़ा दावा करता है कि वो सदियों से भगवान श्री राम की पूजा करते आ रहे हैं । इसलिए बतौर सेवादार उनका हक़ सबसे पहला है। इस सबके फलस्वरूप अब सबको सिर्फ और सिर्फ इसी ऐतिहासिक फैसले का इंतजार था जो आज 9 नवम्बर 2019 देवोत्थान एकादशी के दूसरे दिन सुबह ग्यारह बजे आया जब सुप्रीम के जजों की तरफ से हम मीडिया और पूरे देश को पता चला कि विवादित भूमि राम लला विराजमान को दे दी गई है और 5 एकड़ जमीन बतौर सम्मान मस्जिद बनान के लिए दी गई है जिससे दोनों की श्रद्धा सम्मान रहे और देश में शांतिपूर्ण माहौल बना रहे।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी साफ किया कि मुख्य ढांचा इस्लामी संरचना नहीं, शिया वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाड़े की याचिकाएं खारिज की, जमीन पर दावा साबित करने में मुस्लिम पक्ष कमजोर,1949 में रखी गईं मूर्तियां, भगवान राम का जन्म अयोध्या में इसी जन्मभूमि पर हुआ व तार्किक नहीं था इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला। यही सब प्रमुख बिंदु रहे जिसपर कुछ लोगों ने राजनीति भी की, कुछ ने मुँह भी सिकोड़े पर संतुष्ट लोगों का प्रतिशत बहुत ज्यादा रहा जो भारत सरकार नरेंद्र मोदी व चाक चौबंद व्यवस्था के नायक प्रदेश मुख्यमंत्री योगी व सुप्रीम कोर्ट के जजों का आभार देते दिखे।
इस फैसले पर कुछ राजनैैतिक विचारक व कुछ सोसलमीडिया में छिपे शेर यह भी कह रहे हैं कि सरकार का न्यायालय में दखल है क्योंकि न्यायपालिका को सैलरी प्रधानमंत्री, मंत्रालय देता है यानि कोई सरकार यह नहीं चाहेगी कि उसका वोट प्रतिशत घटे। इसलिये यह फैसला हिन्दू मुस्लिम में मिलाजुला आने की संभावना है क्योंकि देश में राजनीति चरम पर है जो हर मुद्दे को वोटबैंक की नजर से तौलती है पर वो सब यह भूल जाते हैं कि भारतवर्ष की न्यायपालिका पूरी तरह निष्पक्ष है। इन सबके इतर सच तो यह है कि आज फैसले के दिन इस समय पूरी दुनिया में जहां- जहां भी हिंदू है उसका शरीर कहीं भी हो पर इस समय उसका मन तो भारतवर्ष में भगवान श्री राम के चरणों में ही लगा होगा और हमें विश्वास है कि लाखों श्री राम भक्तों का बलिदान और करोड़ों भगवान श्री राम भक्तों की टैंट से भव्य मंदिर में विराजमान होने की स्वर्ग तक का सिंहासन हिलाने वाली आत्मिक पुकार विजयी हुई।
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