विलुप्त होता सामाजिक प्रेम
आज मार्केट में नारियल खरीदते समय दुकानदार ने कहा, ''बिटिया, मैं तो भगवान से यही मांगता हूँ कि इस बुरी दुनिया को पलट कर हमें अच्छी दुनिया वापस कर दे।
हमने कहा, ''काश! कि ऐसा सम्भव हो पाता। वैसे आप किस बात से इतना निराश हैं?
दुकानदार, ''आज पैसा सबके पास है पर सामाजिक प्रेम और अपनापन जैसे खत्म होता चला जा रहा है। आज त्योहारों पर भी रौनक नहीं दिखती। लोग ठेले पर पांच मिनट खड़े भी हो जायें तो कांग्रेस, बीजेपी, सपा, बसपा की तरफ से झगड़ पड़ते हैं। जैसे हम सब पार्टी हैं 'इंसान' नहीं। समझ नहीं आता दुनिया का क्या होगा?
हमने कहा, ''आप की चिंता, बेवजह नहीं है। हम सब इस बात को महसूस करते हुए जी रहे हैं। अगर मीठा नारियल पानी पीना है और पिलाना है तो हमें ही नारियल के पौधे रोपने होगें,, शुरूआत हमें खुद से ही करनी होगी।
दुकानदार, '' हाँ, बिटिया
हमने कहा, ''इन नारियल के कितने पैसे हुए?
दुकानदार, ''पत्रकार हो, मेरी बात दूर तलक पहुंचा दो, पैसे फिर दे देना।
हमने कहा, ''अरे!अंकल जी।ये लीजिए पैसे और बचे पैसे अगली बार में एडजस्ट कर लेना... वो हँसे और बोले, ये लो आपके पचास रूपये। अगली बार रहूं न रहूं।
अरे! क्या पता हम रहे न रहें.... मौत कोई उम्र, कद, पद, धर्म, पार्टी देखकर तो नहीं आती न....
वो कुछ बोलते कि हमने कहा, ये देखो! आपकी बातें हम फेसबुक पर लगा रहे हैं। वो बोले, ''सच।
रूको, न न मेरी फोटो न लगाओ, मैं पसीने में तर - बतर हूँ। तुम अपनी फोटो लगा लेना। यह कहते हुए उनके चेहरे की खुशी दिव्य और कमाल की थी।
भगवान करे हम सब मिलकर सामाजिक प्रेम के प्रचारक बने और वैमनस्य खत्म हो जाये।
_ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना
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