आचार, विचार और व्यभिचार
कहाँ कहूँ अन्याय कहानी, न्यायमंदिर कहाँ रहम परसाथियों! जब आचार शब्द सामने आता है तब देश के अनेकों महापुरूषों और वीरांगनाओं के नाम मष्तिष्क में बिजली की तरह कौंध जाते हैं। इन्हीं कौंध की तरंगों में हमें महसूस होता है कि जिन महान स्वतंत्रतासेनानियों ने अपनी जान की कुर्बानी देकर अपने भारतवर्ष को आजाद करवाया। जिसमें नेताजी श्री सुभाष चंद्र बोस जी के साथ ही किस तरह की गद्दारी और षड्यंत्र रचे गये कि आज तक वो एक गुमनामी के 'रहस्यमयी मौन' के तौर पर विश्वविख्यात हैं।क्या इन सबकी उम्मीदों पर हम खरे उतर पाये हैं। तो मुझे लगता है कि पूरी तरह नहीं क्योंकि आज जो देश में गंदी राजनीति से सराबोर त्राहिमाम् मचा है । उसे देखकर तो यही लगता है कि क्या इसी दिन के लिए हमारे देश के महान क्रांतिकारी फाँसी पर झूले। आज संसद भवन में बैठे तथाकथित नेता लोग किसी भी बात को गम्भीरता से लिये बगैर डेस्क पीटने लगते हैं ।गाली-गलौज चिल्मचिल्ली मचाकर पूरा समय बर्बाद करके, जनता के मतों का मजाक बनाते नज़र आते हैं। वहीं, संसद भवन जैसी गम्भीर जगह पर जहां से हर आम आदमी की उम्मीद को पंख मिल सकते हैं पर नहीं। जरा, वहां का नज़ारा देखो तो बहुत दु:ख होता है। जब संसद में टीएमसी सांसद काकोली घोष, कच्चा बैंगन चबातीं नजर आती हैं। वहीं दूसरी तरफ़ लोग सुन कम, हँस ज्यादा रहे होते हैं। इसी कड़ी में बलात्कार जैसे जघन्य पाप पर कांग्रेस विधायक केआर रमेश कुमार विधानसभा में किस तरह बेधड़क कहते हैं कि 'जब बलात्कार को रोका नहीं जा सकता, तो लेटिए और मजे लीजिए.' हैरानी वाली बात यह थी कि कांग्रेस विधायक की इस टिप्पणी पर विधानसभा अध्यक्ष विश्वेश्वर हेगड़े कागेरी आपत्ति जताने के बजाय इस पर ठहाके लगा रहे थे।अब सवाल उठता है कि किसी भी तरह के विरोध पर इन सब जनसेवकों का ऐसा घोर आमर्यादित आचरण कहां तक उचित है। सच तो यह है कि संसद भवन में प्रत्येक पार्टी के तथाकथित नेताओं की बदजुबानी की लिस्ट इतनी लंबी है कि मेरी कलम की श्याही खत्म हो जाये पर यह लिस्ट खत्म नहीं होगी। अब यदि अपराध और अन्याय की बात करें तो आज किसी भी पार्टी का कोई न कोई नेता - मंत्री के खिलाफ गंभीर योन -शोषण यहां तक की बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में गम्भीर धाराएं लगी हुई हैं।क्या यह चारित्रिक गिरावट हमारी सांस्कृतिक गिरावट का परिचायक नहीं? विकास के पथ पर आरूढ़ भारत को अब बड़े - बड़े फिल्टर लगाने होगें तब ही सिस्टम शुद्ध हो सकेगा। उसके लिये अनिवार्य है कि सर्वप्रथम राजनीति में चरित्र-नैतिकता सम्पन्न नेता ही रेस्पेक्टेबल (सम्माननीय) हो और वही एक्सेप्टेबल (स्वीकार्य) होने चाहिए। आज मोदी जी जैसे प्रभावशाली लीडर के नेतृत्व में देश में मनाये जाने वाले अमृत महोत्सव बनाम स्वर्णिम महोत्सव की परिसम्पन्नता पर एक यक्ष प्रश्न है भारत की राजनीति को अपराध मुक्त बनाने का। अब बात आती है कि यह सब होता ही क्यों हैं? तो मुझे ऐसा लगता है कि राजनीति ही, हैवानियत की जननी है।आज राजनीति कहाँ नहीं है कॉलेज में चुनाव, कोर्ट में चुनाव, डॉक्टर कमेटी में चुनाव यहां तक की घर - परिवार में गंदी राजनीति के चलते भाई का भाई से टकराव। आप देखो कि तथाकथित नेताओं की अंतरिक्ष चीरती महत्वाकांक्षाओं के कारण ही संसद भवन के इस तरह के आचार 'आचरण' की पराकाष्ठा पार करती तस्वीर अभद्रता की लंबी लकीर खींचने में अनेकों देशों के रिकार्ड तोड़ती नज़र आती है।सच कहूँ तो यह सब तब रूकेगा जब ज्ञान के रथ पर संस्कार रूपी सारथी विराजमान होगें। सारथी की बात कहें तो देश के यशस्वी प्रधानमंत्री जी जो सिर्फ नेता नहीं बल्कि लीडर हैं । लीडर का मतलब होता है जिसके पास कोई महान 'विजन' हो। स्वंय, प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कहा है कि हमार विजन 'आत्मनिर्भर भारत' के पार अब 'विकसित भारत' की संकल्पना को साकार करना है। यह बात पूरा देश महसूस कर भी रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी के 'विचार' कोई कोरी कल्पना नहीं है। वो जो कह रहे हैं बिल्कुल दो कदम बढ़कर कर भी रहे हैं। जब वह प्रधानमंत्री बने तो गाँव में से मिट्टी का तेल कैरोसिन (लालटेन) गायब हो गया और हर गाँव 24 घंटे बिजली रोशन हो गया। सबसे सस्ते बल्ब और सबसे सस्ता नेट डेटा सिर्फ़ भारतवर्ष में उपलब्ध करवाया गया । सोचने की बात है इतने विशाल भारतवर्ष में हर घर बिजली, पानी, गैस, टॉयलेट, सस्ती और गुणवत्ता युक्त शिक्षा, हर गरीब का बैंक खाता खोलना, यह सब मोदीजी का 'विचार' था जो उन्होंने करके दिखाया। कोरोनाकाल जैसी भयंकर त्रासदी में उन्होंने किसी भी देशवासी को भूखा नहीं सोने दिया। उन्होंने साफ कहा कि सबका साथ सबका विश्वास ।जो वह बिल्कुल निष्पक्ष रूप से कर रहे हैं और उनकी पूरी टीम कर रही है। टीम की बात करें तो योगी जी ने जब लाउडस्पीकर उतरवाये तो मंदिर-मस्जिद दोनों के समान रूप से उतरवाये। जब कुछ लड़के गलत तरीके से कुरान शरीफ का अपमान करते दिखे तो योगी जी ने सीधा कड़ा एक्शन लिया।वहीं राम-हनुमान जी यात्रा पर दंगाई को भी बख्शा नहीं गया। इस अपराध पर नकेल कसने के सख्त रवैये के कारण उन्हें "बुलडोज़र बाबा" नाम से अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली। जो जारी है। इसके अलावा 15 लाख पर छाती पीटने वाले लोग ज़रा देखें कि देश में अगर काला धन, स्विस बैंक से भारत आ नहीं रहा तो सोचो! मोदी जी, देश का धन स्विस बैंक तक जाने भी तो नहीं दे रहे। धुआँधार कालाधन जब्त करके सरकारी खजाने में देश के विकास पर खर्च हो रहा है। देखो! करोड़ों की लागत से आज आईएनएस विक्रांत जैसी बंपर सफलता हमारे पास है।आज कोई भी भ्रष्टाचारी बख्शा नहीं जा रहा।देश में युवाओं को मोदी-योगी जी का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद खूब पसंद आ रहा है कि एक तरफ वो भारत की प्राचीन सनातन संस्कृति को विश्वपटल पर चमका रहे हैं। वहीं तिरंगा अभियान में वह राष्ट्रवाद को हर दिल में महका रहे हैं। इन सब कार्यों के इतर सबसे बड़ा मुद्दा है युवाओं को रोटी- रोजगार, हर हाथ को काम देने का। अगर भारत सरकार रोजगार पर सजग हो जाये और राष्ट्रव्यापी मुहिम चलाकर युवाओं को रोजगार देने की ठान ले तो विपक्ष के पास कोई मुद्दा ही न बचे। क्योंकि लोगों पर रोजगार होगा तो वह अच्छी शिक्षा, चिकित्सा, पर्यटन सब कर लेगें। कभी-कभी नौकरी के अभाव में महँगाई के दंश से अनेकों युवा आत्महत्या को मजबूर हुए हैं। आज बेरोजगारी की हथेली पर कट्टरता की फसल उगा कर लव ज़िहाद और आतंकवाद को बोया और काटा जा रहा है। यहां तक कि झारखंड की बेटी अंकिता को शारूख नामक हैवान ने इकदम जिंदा ही जला डाला। अगर आपस की कोई बात थी तो क्या परिवार में, कानूनी तरह से नहीं निपटाई जा सकती थी। कानून हाथ में लेने की क्या आवश्यकता थी?अब आखिर! क्यों ऐसे पथभ्रष्ट युवाओं को कानून का खोफ़ नहीं है। अगर कानून बेहद ही कठोर हो जाये और शीघ्र न्याय की व्यवस्था पर काम करे, यहां तक कि आँख के बदले आँख का कानून लागू हो जाये तो व्यभिचार, जड़ से मिट जाये। पर कितनी दु:ख की बात है कि अभी हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने चार वर्षीय बच्ची के दुष्कर्मी और हत्यारे की मृत्युदंड की सजा को घटाकर आजीवन कारावास में बदल दिया। नौ वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में हुए इस बर्बर अपराध की कुंडली में पाया गया कि अभियुक्त ने चार साल की बच्ची से दुष्कर्म करते समय उसका गला दबाकर रखा, जिसके कारण उसकी मृत्यु हो गई।इस पर सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने माना कि उक्त मामले में अभियोजन पक्ष द्वारा दी गई दलीलें और साक्ष्य पुख्ता हैं और अभियुक्त फिरोज के दोषी होने में कोई गुंजाइश नहीं है, लेकिन निचली अदालत और उच्च न्यायालय के मृत्यदंड के फैसले को उसने रेस्टोरेटिव जस्टिस यानी पुनर्स्थापनात्मक न्याय के सिद्धांत का हवाला देकर धराशाई कर दिया। इस फैसले में आस्कर वाइल्ड को उद्धृत करते हुए कहा कि 'संत और पापी के बीच एकमात्र अंतर यह है कि प्रत्येक संत का एक अतीत होता है और प्रत्येक पापी का एक भविष्य होता है। साफ जाहिर है कि बाबा रामरहीम जैसे, बाबाा, मौलवी, पादरी और अनेकों राजनीतिक लोग रेप, मर्डर, गबन, घोटाले की सजा भुगत रहे हैं पर मृत्युदंड नहीं मिला? अब जरा सोचिए! कि त्रेता में भगवान श्री राम जी ने, द्वापर में भगवान श्री कृष्ण जी ने, पापियों के भविष्य की चिंता नहीं की थी। अगर न्यायालय के मतानुसार पापियों की भविष्य की चिंता की जायेगी तो बताइये कि पुण्यात्माओं के भविष्य की जिम्मेदारी कौन लेगा? न्याय के मंदिर में ही आचार, विचार और व्यभिचार का अंतर ही बेपटरी हो जाये तो यह न्याय की ट्रेन, कैसे जनता के विश्वास तक पहुंचेगी। अब ज़रा ध्यान से देखें कि कन्या पूजन, नारी शक्ति पूजन वाले देश की प्रमुख आईडी कार्ड यानि आधारकार्ड में पिताजी का नाम तो दर्ज है पर माताजी का नाम अभी तक दर्ज नहीं।कैसी अजब विडम्बना है कि आधार कार्ड में माता ही गायब हैं क्या यह भारी असंतुलन नहीं? क्या यह अधूरी आईडी नहीं? ऐसे कैसे सफल होगा 'महिला सशक्तिकरण' बेटी बचाओ अभियान? देश में नशे पर लगाम लगे, रेड अलर्ट ऐरिया (ऐशिया का सबसे बड़ा रेडअलर्ट ऐरिया है बंगाल का सोनागाछी) क्या कन्या पूजन वाले देश में रेड अलर्ट ऐरिया हमारी देवी सीता माता के पवित्र देश में कलंक नहीं है। क्या कोई ऐसा विकल्प नहीं जिससे इस पाप चक्र को उन्मूलित किया जा सके और उन्हें एक सुन्दर भविष्य दिया जा सके। अब सुप्रीम कोर्ट यदि स्वत: संज्ञान ले तो बहुत बड़े परिवर्तन की देश साक्षी बन सकता है। वैसे तो अब सर्वोच्च न्यायालय ने यू.यू. ललित जी ने मुख्य न्यायाधीश बनते ही फटाफट फैसले देने शुरू कर दिए हैं, यह अपने आप में एक मिसाल है। बता दें कि इस समय देश की अदालतों में 4 करोड़ से ज्यादा मुकदमे लटके पड़े हैं। कई मुकदमे तो लगभग 30-40 साल से घसिट रहे हैं।दीवानी के मुकदमे की कहानी अगली पीढ़ी के वासी भुगते रहते है। वहीं दहेज, घरेलू हिंसा, तलाक के मुकदमे में भी महिलाओं को सही और समय पर न्याय नहीं मिल पाता और दस बीस साल तक वो कोर्ट में चक्कर लगाने को मजबूर हैं। जब मुकदमा किया तो तो "गुड़िया" सी और हो जातीं पूरी "बुढ़ियां" सी पर न्याय नहीं मिलता। फिर खो जाती हैं उनकी जिंदगी अंधेरे में।पुरूष को दूसरे विवाह में भी दहेज मिल जाता है पर महिलाओं को मिलती है तो सिर्फ़ समाज की घृणा और दोहरी जिम्मेदारी। ऊपर से हर तारीख पर तारीख लेने की खुलेआम रिश्वत। तथाकथित थाने, डॉक्टर, वकील, पेशकार, बाबू हर किसी को चढ़ौती चढ़ाते-चढ़ाते एक दिन पीड़िता स्वंय अग्नि पर चढ़ौत की तरह चढ़ जाती है और गंगा में विसर्जित हो जाती हैं उसकी समस्त आकांक्षाएं। यह दर्द सिर्फ़ पीड़ित की आत्मा ही जानती है। अब लोगों के दवाब के कारण न्यायमूर्ति ललित की अदालत ने गुजरात के दंगों की 11 याचिकाओं, बाबरी मस्जिद से संबंधित मुकदमों और बेंगलुरु के ईदगाह मैदान के मामले में जो तुरंत फैसले दिए हैं। इससे जनता को कुछ सुकून मिला है। बस अब न्यायालय के समस्त क्रिया-कलाप को हिन्दी भाषा में भी कर दिया जाये ताकि वादी - प्रतिवादी अपना केस भलीभांति समझ सके। दूसरा यह कि यदि भारतीय संविधान के अनुसार यदि सभी भारतीय नागरिक एक समान हैं, तो किसी राज्य में उनकी संख्या के आधार पर बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की सनद उनके माथे पर चिपका देना कहाँ तक उचित है? देश का युवा अब हर मामले, हर स्तर पर बिल्कुल समानता के अधिकार का जमीनी स्तर पर क्रियांवयन होता देखना चाहता है। जहां हर किसी का मान हो हर किसी का सम्मान हो और सभी का समुचित विकास हो । तभी आचार मर्यादित होगा, विचार शुद्ध और व्यभिचारी विचारधारा का अंत सुनिश्चित होगा। सत्यमेव जयते।
_ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना, न्यूज एडीटर सच की दस्तक
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