अमरिका, व्यापारी या आक्रमणकारी
रूस - यूक्रेन युद्ध का रिमोट ससुरा अमेरिका घुमावत
चाहे यूक्रेन हो या अमेरिका या फिर चीन.. ये सब भारत को वीटो पावर मिलने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा हैं... अमेरिका हर कीमत पर यह चाहता है कि कहीं युद्ध बजे और उसके हथियार बिकें.. यूक्रेन को बरगलाने वाला भी यही अमेरिका है वरना अभी तक रूस-यूक्रेन में सन्धि प्रस्ताव पर हस्ताक्षर हो जाते और दोनों देशों की निद्रोष जनता की जान बच जाती। सच कहूँ तो इस रूस-यूक्रेन युद्ध का रिमोट, ससुरा अमेरिका ही घुमावत .... बाद में यही आक्रमण वाले सामान के मारीच व्यापारी, कुछ समय बाद विश्वशांति की डीगें हांकते मिलेगें।........
साथियों! अमेरिका हो या यूक्रेन, कोई भी भारत का कभी
दिल से भला नहीं चाहते। यह सब मिलकर आज भी भारत
को वीटो की तरफ दौड़ते नहीं वरन् घसिटते देखना चाहते हैं।
जब भी भारत सैन्यशक्ति में इजाफा करना चाहता है तब-तब अमेरिका अपनी नाक बीच में अड़ाता रहा है। देखा जाये तो भारत के यह सब रिश्तेदार थोड़े ही हैं। यह है कि इन सबसे मजबूत व्यापारिक सम्बंध हैं। जोकि रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद शिथिल होते देखे जा सकेगें। भारत का मूल मंत्र है कि हमारी शांति, प्रेम और मदद रूपी सेवाएं पूरे विश्व को सद्भाव से
समर्पित है पर स्वाभिमान नहीं।
बता दें कि अमेरिका के रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन ने
कहा था कि रूस के हथियारों में निवेश करना भारत के
हित के लिए ठीक नहीं है। अमेरिका खुद को वैश्विक
महाशक्ति के रूप में चिरस्थाई नयनाभिराम करना
चाहता है। और चाहता है कि किस तरह चीन की
टेक्नोलॉजी और रूस की गुप्त ऐजेंसियों को अपना
पालतू बनाया जाये पर वह असफल रहा है।
बात सन् 1990 में जब सोवियत संघ का विघटन
विभिन्न 14 देशों में हुआ था जिनमें यूक्रेन भी एक है।
मगर बाद में 2014 में इसी यूक्रेन के पूर्वी इलाके के दो
इलाकों ने स्वयं को पृथक गणतन्त्र घोषित किया।
इनमें रहने वाले लोगों की संस्कृति रूसी संस्कृति की
तरह है। जिसकी वजह से रूस की सहानुभूति इन
इलाकों के साथ है। इसलिए रूस ने अभी तक परमाणु
अटैक नहीं किया। पर सोवियत संघ के विघटन के फलस्वरूप अमेरिका को तानाशाह बनने का मौका
मिल गया। तब से वह पश्चिमी देशों पर एकछत्र राज
कर है। लेकिन अब उसके अंहकार का सिंहासन
आईसीयू की तरफ बढ़ने लगा है।
अब वैश्विक बहस छिड़ गयी है कि क्या वर्ष 1991 से
विश्व में हो रही आर्थिक उन्नति का श्रेय सिर्फ अमेरिका
को ही ही क्यों? अब रूस और यूक्रेन की जंग के बाद तो
ऐसा लगने लगा है कि अंहकारी अमेरिका का सुपरपावर
वाला दर्जा वेंटिलेटर पर है।यूक्रेन की जंग ने सर्टिफाइड
कर दिया है कि आधा विश्व नाटो के पक्ष में नहीं है।
अमेरिका को महिमामंडित करने वाले विश्व को अब यह समझना होगा कि उनका एकाधिकार और राज करने की
नीति अब काम नहीं आएगी।
साल 2020 में जो बाइडेन अमेरिका के राष्ट्रपति चुने
गए थे तो सब यह देखना चाहते थे कि वह डोनाल्ड ट्रंप से
कितने संवेदनशील साबित होंगे। अमेरिका का असल चेहरा
यह है कि सीरिया में बाइडेन प्रशासन आईएसआईएस को
पोषित करने में लगा है।वहीं, पाकिस्तान को उसने 450
मिलियन डॉलर की मदद दी तो वहीं एफ-16 को अपग्रेड
करने का भी फैसला किया। यह कोई नयी बात नहीं
अमेरिका तो 80 के दशक में अफगानिस्तान में नाक
अड़ाकर सोवियत प्रभाव को कम करने के लिए उसने
किस तरह पाकिस्तान की मदद से तालिबानों को पैदा
करने की मुहिम का इंचार्ज रहा था।वहीं, आज
अफगानिस्तान को किस हालत में छोड़ कर
अमेरिका भगा है। यह सबने देखा।
बात करें रूस-यूक्रेन युद्ध में नाटो की नौटंकी की तो
यह भी अमेरिका की ही आग के धुआं ही हैं क्योंकि जब
1998-99 में निर्गुट देशों के नेता रहे युगोस्लाविया के
मार्शल टीटो के देश में तत्कालीन राष्ट्रपति मिल्कोविच
अपने देश को संगठित रखने व कोसावो व सर्बिया आदि
का विघटन रोकने की मुहीम चला रहे थे तो इन्ही नाटो
देशों ने युगोस्लाविया के विरुद्ध अपने-अपने सैनिक
ठिकानों से कार्रवाई करके इस देश को तोड़ डाला था
और श्री मिल्खोविच को गिरफ्तार करके उनके विरुद्ध
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में जनसंहार करने का मुकदमा
चलाया था। उस समय सैनिक कार्रवाई करने से पहले
अमेरिका ने राष्ट्रसंघ की कोई परवाह नहीं की थी।
वैश्विक जनता की मानें तो यूक्रेन और रूस के बीच
जारी जंग ने अमेरिका की इमेज को जर्जर किया।
सऊदी अरब और यूएई जो हमेशा से अमेरिका की दांत
काटी रोटी रहे, उन्होंने भी अब इससे किनारा करना शुरू
कर दिया है। ये दोनों देश जो ओपेक के सदस्य हैं,अब रूस
के करीब हो रहे हैं। बाइडेन की अपील को अनसुना करके,
ओपेक ने तेल के उत्पादन में 20 लाख बैरल की कटौती का
ऐलान कर दिया।
बाइडेन जो अमेरिका को महंगाई से राहत दिलाना
चाहते थे और पेट्रोल की कीमतों को कम करना चाहते थे,
उनके लिए ओपेक का ऐलान एक बहुत बड़ा झटका था।
कहा जा रहा है कि इसके पीछे रूस का हाथ हैं।
मध्यावधि चुनाव से पहले बाइडेन को समझ नहीं आ
रहा है कि वह क्या करें?
अमेरिका की चिंता यह है कि अगर भारत सहित वैश्विक प्रभावी शक्तियों ने अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में बहु-ध्रुवीयता को क्रियान्वित करने वाली विदेशी नीतियों को आगे बढ़ाया तो फिर उसका वैश्विक महाशक्ति होने का अंहकाररूपी मुकुट यानि अर्थव्यवस्था ही जमीन पर न लुढ़क जाये। साथ ही उसके पास जा सबसे शक्तिशाली देश होने का तमगा है, वह भी न छिन जाएगा।
क्योंकि रूस-यूक्रेन में अमेरिका की भूमिका को लेकर
पुतिन काफी सख़्त हैं। और यह बात पूरी दुनिया समझ
रही है कि रूस अपरोक्ष रूप से यूक्रेन को बर्बाद करके,
अमेरिका को ही पटखनी दे रहा है। जबकि न्यूयॉर्क में
संयुक्त राष्ट्र महासभा के 77वें उच्च स्तरीय सत्र में
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी के बयान कि "यह समय युद्ध का नहीं है",का
समर्थन किया था।
तदुपरांत प्रधानमंत्री मोदी का जवाब देते हुए राष्ट्रपति
ने पुतिन ने कहा था कि वह यूक्रेन संघर्ष में भारत की
स्थिति को जानते हैं और चाहते हैं कि यह सब (युद्ध)
जल्द से जल्द खत्म हो।
सच कहें तो यूक्रेन की जंग ने साबित कर दिया है कि
अमेरिका, खुद को रूस से ज्यादा ताकतवर दिखाने और
अपने आधुनिक हथियार बेचने या हथियारों का वैश्विक
प्रचार-प्रसार कराने के ऐजेंडे से किसी देश को "युद्ध" के
नाम पर बर्बाद करने यानि मानवता विरूद्ध अनैतिक नीति
यानि "तीसरे विश्व युद्ध" की स्क्रिप्ट लिख सकता सकता है।
अगर अमेरिका, यूक्रेन की मदद न करता तो यह युद्ध कब
का समाप्त हो चुकता और शायद समझौता भी सम्भव था
पर अमेरिका ने चतुर व्यापारी बनकर गुप्त आक्रमणकारी
बनकर समझौते की लकीर को धुंधला कर दिया और
रूस- यूक्रेन विवाद को एक संशयग्रस्त - संक्रमणकाल की
गहरी खाई में परिवर्तित कर दिया जिसे अब पाटना, सम्भव
नहीं दिखाई देता।
_आकांक्षा सक्सेना, न्यूज एडीटर सच की दस्तक राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, वाराणसी
अमरिका, व्यापारी या आक्रमणकारी
Reviewed by Akanksha Saxena
on
October 20, 2022
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