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जीवन रूपी किताब के पृष्ठ पर उतरें श्री कृष्ण

 


हे! गोविंद जब आप इस जीवनरूपी किताब के किसी अध्याय के किसी पृष्ठ पर उतरते हो, प्रकट हो जाते हो तब पूरी की पूरी किताब ही व्यर्थ माया का ठीक - ठीक अवलोकन हो जाता है। यहां तक कि यह पूरी किताब धन्य होकर विलीन होकर एक मोक्ष का द्वार बन जाती है। हाँ, यह क्रांति तब घटती है जब जीवन रूपी किताब के किसी अध्याय के किसी पृष्ठ पर आप उतरते हो, आपकी कृपा उतरती है। जिसे ज्ञानियों ने भक्तों ने परमानंद अनुभूति अनंत ऊर्जा का स्त्रोत कहा जिसे वह कह कर भी पूरा न कह सके। जिसे वह लिख कर भी पूर्ण न लिख सके। क्योंकि दिव्य ऊर्जा को लेखनीबद्ध नहीं किया जा सकता। हाँ, यदि उसके हिसाब का कोई उपकरण हो तो वह जल कर, चमक कर, गति करके उस ऊर्जा का सबूत दे सकता है पर ऊर्जा के रंग, रूप को परिभाषित करना असम्भव है। ओशो! ने एक जगह कहा था कि यह जो मौत है, यह हमारे जीवन का अंत नही है । यह तो एक अध्याय का खत्म होना और दूसरे अध्याय यानि नये चैप्टर का आरम्भ है परन्तु पूरी किताब का कभी अंत नहीं होता । बस पृष्ठ - चैप्टर पलटते रहते हैं, पलटते रहते हैं। जिसे प्राचीन हिन्दू धर्म ग्रंथों में 84 लाख योनियों में विचरने की बात की गयी। यही भगवान श्री कृष्ण गीता में उपदेश कर रहे हैं कि आत्मा अमर है बस शरीर मरते हैं और जीवन - मरण, सुख-दुख, पाप-पुण्य का यह खेल चलता रहता है। यह तभी पूरी तरह रूक सकता है जब जीवआत्मा को मोक्ष की प्राप्ति हो जाये। यानि आत्मा तो शरीर से अलग दिव्य ऊर्जा है जिसकी शरीर से संलिप्तता है भी और नहीं भी। जोकि शरीर की नहीं प्रकति यानि ईश्वर के आधीन है। तो जब आत्मा पूर्ण पवित्र अमर है तो मोक्ष की अधिकारी तो वह है ही फिर मोक्ष कौन जाता होगा? इसका जवाब गीता में वर्णित है कि इस शरीर में भी सात शूक्ष्म शरीर होते हैं जिनमें जो कुछ हम जीवन में देखते रहे हैं करते रहे हैं वह चित्र और ध्वनि के माध्यम से सूक्ष्म विचारों के माध्यम से सबकुछ संग्रहित रहता है। आत्मा के साथ वह शूक्ष्म शरीर भी भ्रमण करते हैं। आत्मा फिर भी संलिप्त है भी और नहीं भी। आत्मा जीवन ऊर्जा है जो शरीर को एक तय सीमा तक जिंदा रखने के लिए संकल्पित है। अब सवाल उठता है कि आखिर! योगी जन, समाधि में किसे अनुभव करते हैं? स्वंय के सात शूक्ष्म शरीरों को या अपनी आत्मा को। तो योगी लोग समाधि में सबसे पहले महाकाल शिव की महा विध्वंसक शक्ति से मन की मौत  का आवाह्न करते हैं । वो विनम्र निवेदन करते हैं कि हे! विलीनकर्ता प्रलयंकारी शिव आप मेरे मन की प्रलय कर दो। ताकि मेरे अंदर महाशून्य की घटना घट सके। और शून्य की गहराई में गोते लगाकर मैं उस जीवन ऊर्जा की अनुभूति कर सकूं जो हरी होकर पेड़ पौधे तोते बन गयी। जो नीला होकर आसमान बन गयी। जो पारदर्शी होकर जल बन गयी... रंगीन अनाज बन गयी। कहीं झरने, फूल, कहीं विशाल कैलाश पर्वत गयी। कहीं अपार समन्दर बन गयी और विस्तार ली तो विराट होकर अनंत ब्रह्मांड बन गयी। आखिर! इस महामहिमामयी शरीर रूपी रथ को स्वस्थ रखते हुये इस जीवन में ही मरना घट जाये। मरना मतलब देह अंहकार मर जाये। हमें यह ठीक-ठीक समझ आ जाये कि हम कर्ता नहीं है और न हि हो सकते हैं। कर्ता वही है जिसे सर्वशक्तिमान ऊर्जा कहा गया है। इस तस्वीर को जब हम ध्यान से देखते हैं तो जीवनरूपी पूरी किताब एक भक्त द्वारा भगवान के सामने  खुली हुई हैं। किसी एक अध्याय का मानो एक पृष्ठ भगवान के सामने खुला हुआ है या यूं कहें कि जब भगवान आये तो यह पृष्ठ स्वंय ही खुल कर भावविभोर हो गया है। अब सामने बांसुरी बजाते हुए श्री कृष्ण हैं और उनके सामने जमीन पर नितांत अकेला बैठा हुआ एक भक्त है। अकेले से मतलब है विचारों के ट्रैफिक यानि भीड़ से मुक्त भक्त होना। जहां विचार शून्य हुए, वही परमात्मा की सुगंध झरने लगती है। इसी संदर्भ में ओशो कहते हैं कि मन ही संसार है और अगर तुम कुछ दिव्य महसूस करके मरना चाहते हो तो अपनी श्वासों को देखो, हृदय को सुनो। मन की मृत्यु घट जानी चाहिए। तब शरीर अलग और आत्मा अलग का अनुभव तुम्हें चौंका देगा। यह प्रक्रिया तुम्हें जगा देगी। उन अनेकों जन्मों की नींद से जिस नींद में तुम स्वंय को भूल गये हो। तुम हमेशा मैं मैं करते रहते हो। कभी सोचा तुम्हारी मैं का वश कितना है। शरीर में एक रोयें रोंगटे की भी सुरक्षा तुम नही कर सकते, गिरा तो गिरा, झड़ा तो झड़ा। दोबारा गिरे बाल को दोबारा लगा भी नहीं सकते। तुम कहते हो तुम किसी के बॉडीगार्ड हो। पहले अपनी बॉडी को गार्ड करके देखो। इस संदर्भ में पूज्य प्रेमानंद राधाबाबा कहते हैं कि महिलाएं कहतीं हैं यह सोना चांदी हीरे मेरे हैं। जरा सोचो! क्या यह सबकुछ तुम्हारा है? सच तो यह है कि यह सबकुछ तुम्हें मात्र उपभोग करने के लिए मिला है। सारा वैभव मानवों को उपभोग के लिए मिला है। और भगवान गोविंद ने पूरी स्वतंत्रता भी दी है कि जैसे चाहे उपयोग करो। अंत में आपने गले का,ट कर वैभव जमा किया या किसी की मदद करके यश जमा किया। इस पाप-पुण्य का लेखा-जोखा भगवान श्री चित्रगुप्त जी की कलम से बच नहीं सकता। प्रकृति में जो गति है वह यही शिक्षा देती है कि हमें यह गति ईश्वर की ओर करनी चाहिए। पंखे के सामने खड़ें हों तो हवा अपने आप लगेगी, आग के सामने जाने पर गर्मी अपने आप महसूस होती है। कहना नहीं पड़ता कि हे! वर्फ मैने तुम्हें छुआ तुम मुझे शीतल करो। हर योगी ऋषि मुनि दार्शनिक का अंततः, यहि विचार है कि एक दिव्य सूरज अंदर हृदय में भी है जिसकी तरफ़ देखो तो तुम एक बार सूरजमुखी बनो तो सही। खिलने के लिए मेहनत नहीं करनी यह स्वंय होगा। सारी प्रकृति सूर्य की तरफ़, चंद्र की तरफ़ आकर्षित होती है। कारण, दिव्य ऊर्जा। और हम आप क्या हैं? उन अनंत तारों से दिव्य लोकों से आयी हुई दिव्य ऊर्जा। जोकि शरीर रूपी रैपर यानि खोल यानि डिब्बे में है मौजूद है। जिस दिन सांस रूपी मिठाई खत्म उस दिन शरीर रूपी डिब्बा मरघट पर..

परन्तु भगवान शिव भी यही कहते हैं कि मौत जीवन का अंत नही बल्कि नये जीवन का शुभारंभ है। जिसे समस्त आरम्भ और अंत के पार जाना है तो तू भक्ति कर🙏

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