जगदीश्वर जगत के नाथ प्रभु..
जगदीश्वर जगत के नाथ प्रभु
आप पालनहरी कहलातें हैं,
फिर क्यूँ आपके इस जग मैं प्रभु
लाखों लोग भूक से मर जातें हैं ||
कान्हा जी कुछ तो बोलो
प्रभु जी आपसे बातें करनी हैं
प्रभु जी आप हमारे अपने हो
सारी शिकायतें आपसे करनी हैं ||
जगदीश्वर जगत के नाथ प्रभु
आप अनंत प्रेमी कहलाते हैं
फिर क्यूँ आपके इस जग मैं प्रभु
मानव, मानव से डर जाते हैं ||
लोकनाथ प्रभु जी कुछ तो बोलो
प्रभु आप हो सर्वेश्वर स्वामी
कुछ बातें आपसे कहनीं हैं
जगदीश्वर जगत के नाथ प्रभु
जगदीश्वर जगत के नाथ प्रभु
आप सनतह कहलातें हैं
फिर क्यूँ आपके इस जग मैं प्रभु
आतंक के बादल छातें हैं
हे ! वासुदेव कुछ तो बोलो
प्रभु जी आपसे बातें करनी हैं
आप हो हमारे नाथ प्रभु
हर बात आपसे कहनी हैं
विश्वात्मा जगत के नाथ प्रभु
आप विश्वरूप कहलातें हैं
फिर क्यूँ आपके इस जग मैं प्रभु
आज सभी भटकते जातें हैं ||
सुमेधा प्रभु कुछ तो बोलो
दो बातें आपसे करनी हैं
श्रीकांत प्रभु कुछ तो बोलो
जिज्ञासा शांत प्रभु करनी हैं
प्रभु चुप क्यूँ हो
कुछ तो बोलो
ये ! कैसा हाहाकार मचा
नारी आंख भरी खड़ी
पुरुष बेबस लाचार पड़ा ||
अब तो आ जाओ हे ! गिरधर
हर आत्मा यही पुकार करे
आपके इस जग मैं नारायण
आपके भक्त क्यूँ इतना अत्याचार सहें ||
मनमोहन, मुरलीनाथ प्रभु,ये मन मुक्ति चाहता है | निरंजन,निर्गुण,सत्यवचना प्रभु,हर दिल तेरा दर्शन चाहता है ||
हे ! पदम्हस्त हे ! साक्षी आप तो सर्वव्यापी हो |
आपकी लीला आप ही जानें आप तो घट-घट वासी हो || अपने सभी बच्चों को प्रभु एक बार तो दर्शन दिया करो|
जीवन की राह मैं थके नहीं आपका कभी कोई भक्त प्रभु ||
*!! श्री कृष्ण हरे गोविन्द हरे,गोपाल हरे श्री कृष्ण!!*
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आकांक्षा सक्सेना
बाबरपुर, औरैया
उत्तर प्रदेश
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आकांक्षा सक्सेना
बाबरपुर, औरैया
उत्तर प्रदेश
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संसार में कष्ट इसलिए है ताकि लोगों को जब भी सुख मिले तो उसकी अनुभूति कर सकें कि वास्तव में सुख क्या होता है.
ReplyDeleteभक्त वास्तव में अपने मार्ग पर कितना अटल है उसका अपने आराध्य
पर कितना विश्वास है यह भक्त कष्टसाध्य मार्ग पर चल कर प्रमाणित करता है.
बिने दो पाटों के नदी नहीं बन सकती, बिने दाहिने और बांयें अंग को विभाजित किये यह देह नहीं बन सकती, बिने दिन के रात के दिन नहीं बन सकती , युद्ध में केवल एक ही योद्धा जीत सकता है एक को तो हारना ही पड़ता है, जीता हुआ योद्धा अपने जीत कि ख़ुशी मना सके इसलिए हर होती है, एक सिक्के के दो पहलू होते हैं, सृष्टि के निर्माण में न तो मात्र पुरुष कुछ कर सकता है न ही स्त्री इसलिए इन दोनों का निर्माण किया गया. अर्थात सकारात्मक व नकारात्मक दोनों पक्षों को स्वीकार करना मनुष्य का दायित्व है. यदि मेरे द्वारा निर्मित सुख पर मनुष्य अपना पूर्ण अधिकार मानता है तो मैं उस दुःख का क्या करूँ उसे कौन स्वीकार करेगा जो मेरे ही द्वारा बनाया गया है. बारी-बारी से दोनों को अपनाना ही पड़ेगा.
इसलिए जो परिस्थिति सामने आये उसे श्रद्धा पूर्वक अपनी निजी संपत्ति मान कर समय के साथ कदम मिलाकर चलना चाहिए न कि सुख-दुःख को विभाजित कर शोक मानाने में समय व्यर्थ कर डालें.