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सच की दस्तक नेशनल मैग्जीन सितम्बर अंक -

सच की दस्तक नेशनल मैग्जीन, 
वाराणसी उ. प्र सितम्बर अंक 
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कवर स्टोरी 
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एससी-एसटी बनाम सवर्ण :  दर्द - प्यास और रार का माहौल - 
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 सप्रीम कोर्ट ने गत 20 मार्च को दिए गए फैसले में एससी एसटी अत्याचार निरोधक कानून के दुरुपयोग पर चिंता जताते हुए महत्वपूर्ण फैसला दिया था । जिसमें कहा गया था कि दुर्व्यवहार की शिकायत मिलने के बाद तुरंत मामला दर्ज नहीं होगा । डीएसपी ने पहले शिकायत की प्रारंभिक जांच में करके पता लगाएगा कि मामला झूठा या दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं है । एफआइआर के बाद तुरंत गिरफ्तारी नहीं होगी । सरकारी कर्मचारी की गिरफ्तारी से पहले सक्षम अधिकारी और सामान्य व्यक्ति की गिरफ्तारी  से पहले एसएसपी की मंजूरी ली जाएगी । 

        कोर्ट ने अभियुक्त की अग्रिम व जमानत का भी रास्ता खोल दिया था जिसमें जस्टिस एके सीकरी और भूषण जैसे काबिल न्यायाधीशों की फुल बैंच फैसले ने शुक्रवार को एससी एसटी अन्याय अत्याचार संशोधन कानून 2018 निरस्त करने की मांग वाली प्रिया शर्मा , पृथ्वीराज चौहान और एक गैरसरकारी संगठन द्वारा दाखिल तीन याचिकाओं पर सुनवाई का फैसला किया वहीं  इन याचिकाओं में संशोधित कानून का विरोध करते हुए स्पष्ट कहा गया कि यह समानता व अभिव्यक्ति की आजादी और जीवन के मौलिक अधिकार के बिल्कुल खिलाफ है । इसमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी कर ऐसी व्यवस्था की गई है कि एक निर्दोष व्यक्ति अग्रिम जमानत नहीं पा सकता और जबरन दोषी बन कर शारीरिक व सामाजिक यातनाएं भोगने पर विवश होता है। 

       अब केन्द्र सरकार ने तुरन्त गिरफ्तारी वाला नियम फिर से बहाल कर दिया है। तथा एससी, एसटी अन्याय निरोधक कानून में धारा - 18ए जोड़ दिया गया है। अब नये संशोधन के मुताबिक एससी एसटी दुर्व्यवहार के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारम्भिक जांच की जरूरत नहीं है। इसके अलावा यह भी प्रावधान किया गया है कि गिरफ्तारी से पहले किसी से इजाजत लेने की भी जरूरत नहीं है। आगें यह भी संशोधित हुआ है कि उक्त अपराधी को अग्रिम जमानत का भी लाभ नही मिलेगा।

          इसी संशोधन के खिलाफ अन्य वर्गों में उबाल आ गया जिसमें सवर्णों के अग्रणी दूत बनने के उभरे रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया ( ए ) के अध्यक्ष और केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता राज्यमंत्री रामदास अठावले जिन्होंने कहा कि निर्दोष लोगों पर एससी - एसटी एक्ट का दुरुपयोग नहीं होगा। एससी एसटी एक्ट सवर्णों पर अत्याचार नहीं बल्कि दलितों की सुरक्षा के लिए है । यह रद्द नही होगा बल्कि जो विरोध कर रहे हैं वे अपने को बदलें। देश चलाने के लिए दलितों और सवर्णों दोनों की एकता जरूरी है। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार उन्होंने यह भी कहा कि सवर्णों को भी 25 फीसदी आरक्षण देने की वकालत की और कहा एससी - एसटी और ओबीसी के प्रावधान में कोई छेड़छाड़ किए बिना सवर्णों को भी आरक्षण देना चाहिए । कुछ भी हो इस चुनावी माहौल ने समाज और देश की समरसता की हवा को जरूर प्रदूषित कर दिया है और लोगों में मन में नफरतों के बीज बोने की पूरी खाद भी उडेल दी गई है। 

       सवर्णों की परेशानी यह है कि जो पुराना एक्ट था अचानक उसमें संशोधन करने की क्या जरूरत थी जबकि इस विषय पर बहुत सभ्य लोगों पर झूठे आरोप लगते रहें हैं और इसी डर से सवर्णों का खून उबाल मार गया जिसकी प्रणीत भारत बंद के रूप में सभी ने देखी। इसमें अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को उत्पीड़न से बचाने वाले  कानून को पुराने स्वरूप बहाल में बहाल करने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका को लेकर मोदी सरकार असमंजस में पड़े तो हैरानी नहीं । सुप्रीम कोर्ट ने एससी - एसटी एक्ट में हालिया संशोधन पर सरकार से छह सप्ताह के अंदर जवाब मांगा है । चूंकि यह संशोधन खुद सरकार की पहल है। इसलिए  उसका विरोध करना संभव नहीं होगा ।

       इसी के साथ यह अनदेखी भी नहीं की जा सकती कि तमाम सामाजिक संगठन यह दवाब बनाने में लगे हुए हैं कि इस अधिनियम के उसी स्वरूप को स्वीकार किया जाए जिसे सुप्रीम कोर्ट ने तय किया 
था । यह दबाव बढ़ाने के लिए ही अभी हाल में कुछ राज्यों में भारत बंद का प्रदर्शन हुए। पता नहीं इस बंद को किन राजनीतिक दलों ने हवा दी , लेकिन दिखा यही कि यह एक राजनीति प्रेरित आयोजन था ।  
   
              बसपा प्रमुख मायावती इस बंद के लिए जिस तरह भाजपा को जिम्मेदार ठहरा दिया उससे यही स्पष्ट होता कि किस तरह एक संवेदनशील मसले पर संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ साधे जा रहे । क्या यह वही मायावती नहीं जिन्होंने मुख्यमंत्री रहते समय एससी एसटी एक्ट में करीब करीब वैसे ही बदलाव किए थे जैसे अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट किए ? बात केवल बसपा की ही नहीं अन्य अनेक दलों की भी है । आगामी आम चुनाव और कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों को देखते हुए विभिन्न दल एससी एसटी एक्ट बहाने अपना - अपना वोट बैंक बनाने की कोशिश कर रहे हैं । यह बेहद चिंताजनक है कि वोट बैंक के आगें उन्हें सामाजिक सद्भाव की कहीं कोई चिंता नहीं । 

         शायद इसी कारण सुप्रीम कोर्ट के फैसले को दरकिनारकरते हुए इस एक्टके पुराने स्वरूप को बहाल करने का फैसला किया गया सरकार को ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि खुद को दलित हितैषी दिखाने के फेर में राजनीतिक दलों ने एक ऐसा माहौल बना दिया जैसे सुप्रीम कोर्ट ने एससी एसटी एक्ट को खारिज ही कर दिया हो । न्याय का तकाजा तो यह कहता है । कि किसी भी मामले में बिना जांच गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यही सुनिश्चित किया था , लेकिन उसे दलित विरोधी करार देने के साथ उसके विरोध में भारत बंद का आयोजन भी किया गया इस दौरान अनावश्यक उग्रता भी दिखाई गई । क्या संवेदनशील मसले पर ठनने से सुलझते हैं ? कहना कठिन है । पुराने स्वरूप वाले एससी एसटी एक्ट पर सुनवाई करने जा रहे सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सरकार क्या दलील पेश करेगी , लेकिन अगर इस नाजुक मसले परसंयम का परिचय नहीं दिया गया तो सामाजिक वैमनस्यता बढ़ेगी।                  
         बेहतर होगा कि सभी संगठन चाहे वे राजनीतिक हों या सामाजिक, यह देखें कि एससी एसटी के उत्पीड़न की नकेल कैसे कसी जाये। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट को भी एससी - एसटी एक्ट का ऐसा कानूनी स्वरूप जनता को दें जिससे इस एक्ट का दुरूपयोग न हो सके और किसी की जनधन मानहानि न हो सके। 

        शायद इसी कारण सुप्रीम कोर्ट दरकिनारकरते हुए इस एक्ट के पुराने स्वरूप को बहाल करने का फैसला सरकार को ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि खुद को अनुसूूचितजाति का पुरजोर हितैषी बताने में राजनीतिक दलों ने एक ऐसा माहौल बना दिया जैसे सुप्रीम कोर्ट एक्ट को खारिज ही कर दिया हो । न्याय का सिद्धांत तो यह कहता मामले में बिना जांच गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए ।

      सुप्रीम कोर्ट ने अपने सुनिश्चित किया था , लेकिन उसे बहुजन  विरोधी करार देने के साथ सवर्णों ने खिन्न होकर भारत बंद का उग्र प्रदर्शन भी किया गया ।सवाल उठता हैै कि क्या अनावश्यक उग्रता जरूरी थी? पता नहीं इस बंद को किन राजनीतिक दलों ने हवा दी।इस बंद पर बसपा सुप्रीमो मायावती जिस तरह भाजपा को जिम्मेदार ठहरा रहीं हैं उससे यही स्पष्ट होता है कि जिस इस तरह एक बेहद संवेदनशील मसले पर निचले स्तर की राजनीतिक करके स्वार्थ साधे जा रहे वह बेहद दुखद है। जबकि संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर के नाम पर राजनीति करने वालों को यह सोचना होगा कि उन्होंने कभी आरक्षण की बात नही की बल्कि समानता की बात की। वह कहते थे कि.. संवैधानिक संस्थाएं वंचित लोगों के लिए अवसरों का रास्ता खोले और उन्हें लोकतंत्र में हिस्सेदार बनाए।राष्ट्रीय एकता के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण है।
        इसलिए संविधान के मूल अधिकारों के अध्याय में अवसरों की समानता के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए भी विशेष अधिकार का प्रावधान किया गया है। आरक्षण का सिद्धांत वहीं से आता है पर यह करोड़ों की आबादी वाले भारत में वंचित जाति समूहों के हर सदस्य को नौकरी देने के लिए नहीं है।आरक्षण का मक़सद यह है कि वंचित जातियों को महसूस हो कि देश में मौजूद अवसरों में उनका भी हिस्सा है और देश चलाने में उनका भी योगदान है।22 दिसंबर, 1952 को पूना में वकीलों की एक सभा में संविधान निर्माता ने साहब कहा था कि, "लोकतंत्र शासन की वह पद्धति है, जिसमें लोगों के सामाजिक और आर्थिक जीवन में बदलाव बग़ैर ख़ूनख़राबे के संभव हो."। उन्होंने यह भी स्पष्ट कहा है कि हम सबसे अच्छा संविधान लिख सकते हैं, लेकिन उसकी कामयाबी आख़िरकार उन लोगों पर निर्भर करेगी, जो देश को चलाएंगे। आज हम सभी लोग मंहगाई व बेरोजगारी व जातिवाद को लेकर नेताओं के बेतुके बयानों के प्रत्यक्षदर्शी हैं कि हमारा देश कहाँ जा रहा है? 
हमारा अखंड भारत वर्ष पिछले सौ वर्षों से सिर्फ़ बंटता चला जा रहा खंड-खंड हुआ जा रहा। और लोगों को राजनीति चमकाने की होड़ मची है। क्या फिनलैंड की बेहतरीन शिक्षा याद नही आती कि वैसे हमारे देश में कैसे सम्भव हो? इजरायल की सुरक्षा व्यवस्था सैन्य ताकत नही दिखती, क्या जापान की चमत्कारिक टैक्नोलॉजी नही दिखती कि वहां जिस स्पीड से भूकंप आते है उससे भी ज्यादा स्पीड से वहां सब बहाल हो जाता है, यह सब यहां सम्भव क्यों नही हो सकता? आखिर! कब तक राजनीति करोगे कभी तो विकास की सोचो और करो।क्या हम सैन्य शक्तिशाली वीटो पॉवरफुल नही बन सकते। आखिर! हम कब इस दिशा में आगें बढ़ेगें। कब विद्वानों, प्रतिभाशालियों की कद्र करेगें? आखिर! हम कब सुधरेगें। आरक्षण के भरोसे हमें सरकारी नौकरी तो मिल सकती है पर क्या हम जो अपनी मेहनत से नाम और पहचान पा सकते हैं। राष्ट्र को हम क्या सौगात दे सकते हैं? इस ओर भी हमें सोचना होगा।
       आगामी आम चुनाव और विधानसभा चुनावों को देखते हुए विभिन्न दल एससी - एसटी एक्ट पर अपनी चुनावी रोटियाँ सेंक कर अपना - अपना वोट बैंक बनाने और बढ़ाने की कोशिश में रत् हैं । देश की यही वोट नीति चिंता का विषय है कि आप माननीयों को सामाजिक सद्भाव की कहीं कोई चिंता नहीं रह गयी है। कभी चुनावी माहौल को गर्म करने के लिए हिन्दू - मुस्लिम लड़वा दिये जाते हैं तो कभी एससी एसटी और सवर्णों को, कभी मंदिर तो कभी मस्जिद।

        क्या हमारे देश में बेटियों की सुरक्षा, मंहगाई व बेरोजगारी मुद्दे नही है कि जिस पर खुल कर बहस होनी चाहिए कि खाली पेट कोई कैसे जियेगा? अफसोस! कि जनता अपने विवेक से काम ले और विकास के बारे में सोचे।तभी अच्छे दिन आ सकते हैं नहीं तो हम सब अच्छे दिन की बस कल्पना करते ही रह जायेगें और सिर्फ़ आरक्षण के नाम पर कहीं दर्द तो कहीं प्यास और कहीं रार ठनती रहेगी और इंसानियत सिर धुनती रहेगी।

- ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना 







साहित्य 
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