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तेरा भाणा मीठा लागे - Biography of Sadguru Shri Arjun Dev Ji - ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना






तेरा भाणा मीठा लागे....!!

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गुरु अर्जन देव जी (1581- 1606) – 

उन्होंने स्वर्ण मंदिर का निर्माण किया और आदिग्रंथ भी लिखा।


आदि ग्रन्थ सिक्ख धार्मिक लिखाईयों का एक संकलन है जिसे पाँचवे सिख गुरु श्री गुरु अर्जन देव जी ने सन् १६०४ में पूरा करा। दसवें सिख गुरु श्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने इसमें १७०४ से १७०६ काल में और शब्द संग्रहीत किये और इसे अपने बाद सिख धर्म का अनंत गुरु बताया। इसके बाद इसका नाम श्री गुरु ग्रन्थ साहिब पड़ा 🙏।



  • गुरु अर्जुन के पिता गुरु राम दास ने “रामदास सरोवर” नामक एक बड़े मानव निर्मित जल कुंड के चारों ओर “रामदासपुर” नाम से शहर की स्थापना की।

  • गुरु अर्जुन ने अपने पिता के बुनियादी ढांचे के निर्माण के प्रयास को जारी रखा। गुरु अर्जुन के समय शहर का विस्तार दान द्वारा वित्तपोषित और स्वैच्छिक कार्य द्वारा किया गया था। 

  • कुंड के पास गुरुद्वारा हरमंदिर साहिब के साथ कुंड क्षेत्र एक मंदिर परिसर में विकसित हुआ। गुरु अर्जुन ने 1604 में नए मंदिर के अंदर सिख धर्म का ग्रंथ स्थापित किया था। जो शहर उभरा वह अब अमृतसर के नाम से जाना जाता है, और सिख धर्म का सबसे पवित्र तीर्थ स्थल है।



हमारा भारतवर्ष सोने की चिड़िया के नाम से जाना जाता था क्योंकि यह अकूत धन सम्पदा , ज्ञान - विज्ञान, आध्यात्म का व्यापक केन्द्र था जिसे विश्वगुरू की उपाधि भी प्राप्त थी और हो भी क्यों ना, क्योंकि जब पूरा संसार अज्ञान के अंधकार में सोया हुआ यंत्रवत् जीता, आत्मज्ञान को जानने की ललक में बूँद - बूँद तरस रहा था तब हमारा अखंड भारतवर्ष आध्यात्म की सम्पन्नता से ओतप्रोत आत्मज्ञान की डुबकी लगा रहा था। 

 इस लेख के माध्यम से हम जवाब दे रहे हैं उन सभी लोगों को जो भारत के आध्यात्म, आस्था, विश्वास पर हमेशा प्रश्नचिह्न लगाकर कुठाराघात करने में सलग्न रहते हैं - हम बात कर रहे हैं, सर्वपूजनीय सदगुरू अर्जुन देव जी की जो गुरु राम दास के सुपुत्र थे। उनकी माता का नाम बीवी भानी जी था। गोइंदवाल साहिब में उनका जन्म 15अप्रैल 1563को हुआ और विवाह 1579ईसवी में। सिख संस्कृति को गुरु जी ने घर-घर तक पहुंचाने के लिए अथाह प्रयत्‍‌न किए। गुरु दरबार की सही निर्माण व्यवस्था में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 1590ई. में तरनतारनके सरोवर की पक्की व्यवस्था भी उनके प्रयास से सम्भव हुई।

गुरू ग्रंथ साहिब के संपादन को लेकर कुछ अराजक तत्वों ने अकबर के पास जाकर यह शिकायत की कि गुरू ग्रंथ साहिब में इस्लाम के खिलाफ़ लिखा जा रहा है, इस पर अकबर लोगों नेे गुुरू अर्जुन देव व उनके मानने वालों को भला - बुरा कहना और करना शुरू कर दिया। इन सबके बाद जब अकबर को गुरूवाणी की महानता का पता चला, तो उन्होंने भाई गुरदास एवं बाबा बुढ्ढा के माध्यम से 51मोहरें भेंट कर खेद ज्ञापित किया था। 

गुरु जी निर्भीक, शांत और गंभीर स्वभाव के स्वामी थे। वे अपने युग के आध्यात्म शिखर थे, जो दिन-रात सेवा में लगे रहते थे। उनके मन में सभी धर्मो के प्रति अथाह स्नेह था। मानव-कल्याण के लिए वह हमेशा अनेकों शुभ कार्य करते रहते थे पर अकबर के देहांत के बाद जब जहांगीर दिल्ली का शासक बना। वह बेहद क्रूर कट्टर-पंथी शासक था। उसे अपने  इस्लाम धर्म  के अलावा और कोई धर्म गंवारा नहीं था। इधर गुरु अर्जुन देव जी के धार्मिक और सामाजिक कार्य भी उसे शूल की तरह चुभने लगे और वह गुरूजी की लोकप्रियता जब सभी धर्मों के लोग उन्हें हरमन प्यारे कहने लगे थे, से बुरी तरह भयग्रस्त हो गया। उसकी मैं यानि अहंकार को बहुत बड़ा आघात पहुंचा कि मेरे से ऊपर मुझे कोई गंवारा नहीं। बस उसके शैतानी दिमाग में  गुरू अर्जुन देव का धर्म परावर्तन कराने की मंशा प्रबल हो उठी और जबरन इस्लाम कुबूल करवाने की उस पर सनक सवार हो गयी थी कि एक दिन गुरू अर्जुन देव से दुश्मनी पालने वाला गद्दार चंदू जहांगीर के पास आया और दुश्मन का दुश्मन मित्र वाली कहावत सच हुई जिससे चंदू जहांगीर का विश्वासपात्र बन गया। बता दें कि चंदू को इस बात से दुश्मनी थी कि गुरु अर्जुन देव ने अपने पुत्र हरगोविंद के लिए उसकी बेटी का रिश्ता अस्वीकार कर दिया था। इसी दुश्मनी का फायदा मुगल जहांगीर ने उठाया और इसी बीच उसे पता चला कि उसी का बागी लड़का खुसरो को गुरू अर्जुन देव जी ने ही शरण दे रखी है तो वह गुस्से से उबल पड़ा। बस फिर क्या था, भारत भूमि मुगलों के एक और महाअत्याचार की गवाह बन गयी जब सत्ता के मद में चूर दुष्ट शासक जहांगीर ने गुस्से में भर कर  गुरु जी को परिवार सहित पकड़ने का हुक्म जारी कर दिया और तुजके-जहांगीरी के अनुसार गुरू अर्जुन देव जी का परिवार मुरतजाखान के हवाले कर घरबार लूट कर जुल्म-ओ-सितम यानि खौफनाक आतंक की इबारत लिखी गई। 




फिर जहांगीर ने अर्जुन देव के दुश्मन रुढ़िवादी व्यवसायी चंदू को अपने दुश्मन गुरू अर्जुन देव जी को यातना दिलाने की क्रूर और भयावह सजा चुनी। रुढ़िवादी व्यवसायी चंदू को सुपुर्द कर दिया। इतिहास गवाह है कि विश्वासघाती षड्यंत्री चंदू ने गुरुजी को तीन दिन तक भयानक नारकीय यातनाएं दीं गयीं जो इतिहास का सबसे स्याह पेज रहा जिसमें निरंकुश क्रूर शासक जहाँगीर के आदेश पर 30 मई, 1606 ईसवी. को श्री गुरू अर्जुन देव जी को लाहौर में जेठ माह की पत्थर पिघलाने वाली भीषण गर्मी के दौरान मुगलिया “यासा व सियासत” (“यासा व सियासत” के अनुसार किसी व्यक्ति का रक्त धरती पर गिराए बिना उसे यातनाएं देकर शहीद कर दिया जाता है।) 



 इस क्रूर कानून के तहत लोहे के तवे पर बैठा दिया गया जिसमें नीचे से आग लगा दी गई और ऊपर उस तवे के खौलते पानी में गुरूदेव को बिठा दिया गया पर गुरूदेव ने जहांगीर के सामने हार नहीं मानी, अपना शीष नहीं झुकाया और रहम की कोई गुजारिश भी नहीं की बल्कि बिना डर के बिना विचलित हुए वाहे गुरू में सच्ची आस्था रखते हुए सिर्फ़ यह अरदास करते रहे - 

तेरा भाणा मीठा लागै, यानि तेरा किया मीठा लागे॥ हरि नामु पदारथ नानक मांगे॥

गुरू अर्जुन देव जी यानि एक महान भक्त को अनन्य भक्ति में डूबा देख चंदू और जहांगीर जैसे राक्षसों ने उनको उस भक्ति उस आध्यात्म के शिखर से नीचे ढकेलने दुखी करने अपनी बात मनवाने का लाख प्रयास किया पर वह कभी सफल ना हो सके क्योंकि जिसके मन में अपने ईश्वर गुरू के प्रति इतनी अथाह गहरी श्रद्धा हो कि वह परमात्मा वह वाहेगुरू जो कर रहे बड़ा मीठा कर रहे, मेरे हित में कर रहे, सब मीठा ही मीठा है। तेरा किया मीठा लागै। बार - बार यह शब्द सुनकर जल्लाद चंदू और जहांगीर के चमचे , यह देखकर गुरू अर्जुन देव पर बेहद गर्म रेत को डाल-डाल कर उन्हें मरणासन्न कर दिया पर फिर भी गद्दार चंदू और क्रूर जहांगीर को शांति नहीं मिली तो गुरू अर्जुन देव के फफोले पड़े शरीर को जंजीरों में बांध कर कि उन्हें और भी पीड़ा हो इस बदनियति से उन्हें ठंडे पानी वाली रावी नदी में डुबा दिया गया। जहां गुरू देव का पुण्य शरीर रावी में कहीं विलुप्त हो गया। 

बाद में गुरूदेव के विश्वासी सेवकों व अनुयायियों के द्वारा काफी ढूंढ़ने पर भी वह दिव्य सत्यस्वरूप तन किसी को कहीं ना मिला। मानो रावी नदी माँ ने अपने लाल को अपने सीने से लगाकर अपने आँचल में छुपा लिया था जिसे ढूँढ पाना किसी भी आम व्यक्ति के पहुंच से परे था। यह है भारतवर्ष का आध्यात्म और यह है आध्यात्म का शिखर कि जिस ऊँचाई पर सिर्फ़ मानवता, शांति, सेवा और प्रेम है। 


हाँ दोस्तों! इन्हीं महानतम् गुरूओं की ही खोज में हमारे अखंड भारतवर्ष में सम्पूर्ण विश्व के ज्ञानी अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए इसी महानतम् आध्यात्म के शिखर की पराकाष्ठा को ही समझने, अनंत स्व: में विलीन होने की दिव्य कला को दिव्य ऊर्जा को धारण करने की कला सीखने ही भारत आते थे और आज भी आते हैं। सही मायनों में स्व: यानि आत्मबोध रूपी मालकियत बचाकर आदत का प्रयोग ही ध्यान की श्रेणी में आता है। 


आज मनुष्य यंत्रवत् है। दुनिया को उसकी ऑन, ऑफ की सभी बटनें यानि स्विच पता हैं कि यह बात बोलूं तो यह नाराज़ होगा.. बस उसने स्विच नहीं कि हमें गुस्सा आया और हमारे सतगुरू ने अपने मन पर काबू किया हुआ था। मन उनके अधीन था। सही अर्थों में वह स्वंय के मालिक थे कि मुझे गुस्सा नहीं करना तो नहीं करना, कोई भी कितना भी स्विच दबाये चले जाये, मेरा मुझ पर पूर्णतः काबू है। मेरा, मेरी चित्त की वृत्तियों पर पूरा कंट्रोल है। यह जो कंट्रोल है यह आता है आध्यात्म से। यही वह अदम्य ऊर्जा है, वह दिव्य आंतरिक प्रकाश है जिसे हमारे सद्गुरूओं, ऋषियों, मुनियों,बोद्ध भिक्षुओं आदि महानआत्माओं  ने आत्मसात किया और जिया। 

गुरू अर्जुन देव जी सिख धर्म के ही नहीं बल्कि भारत के महान ज्ञान आध्यात्म के शिखर के दर्शन कराने वाले, देश के आध्यात्म को बचाने वाले, प्रथम हुतात्मा (शहीद) थे। जिस स्थान पर गुरू अर्जुन देव जी का शरीर रावी नदी में विलुप्त हुआ था, वहां ही गुरूद्वारा डेरा साहिब (जो अब पाकिस्तान में है) का निर्माण किया गया है।श्री गुरू अर्जुन देव जी को उनकी विनम्रता के लिए याद किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने आजीवन ना किसी का बुरा चेता और ना ही किसी को दुर्वचन कहा। यहाँ तक इतनी घोर यातनाओं के बाद भी उन्होंने भगवान को नहीं कोसा, ना ही अपने भाग्य को कोसा। उनके लिए तो जेठ की दोपहर में तपता तवा उनके शीतल आत्मबल के सामने ठंडी बिछावन बन गया और तपती रेत भी उनकी भक्ति निष्ठा भंग ना कर सकी। यही है वो महान अमर गाथा उन मनीषियों के लिए उन ज्ञान के प्यासों के लिये जो भारत के आध्यात्म पर शोध करने आते हैं या आध्यात्म को आत्मसात करने आते हैं या वो लोग जो भारत के आध्यात्म पर सवाल उठाते हैं। यही है वो भारत का अति दुर्लभ दिव्य आध्यात्म दर्शन। दोस्तों! गुरूदेव की महान शहादत हमें पवित्र धर्म- निरपेक्ष विचारधारा को मान्यता देना, जिसका समर्थन गुरु जी ने स्वंय के बलिदान से दिया। उनकी शहादत यही संदेश देती है कि प्रत्येक देेशभक्त को अपनेे देश, सभ्ययता,संस्कृति,आध्यात्म, भक्ति व  अपने सिद्धांतों व जीवन मूल्यों के लिए आत्म-बलिदान देने के लिए भी सज्य (तैयार) रहना चाहिए। तभी देेश और देेश की ज्ञान और संस्कृति और राष्ट्रभक्त वफादार कौम, अपने पूर्ण गौरव के साथ जीवंत रह सकते हैं। यह गुरू अर्जुन देव जी सिखों के पांचवे गुरू  के रूप में सर्व श्रद्धेय हैं ।

गुरु अर्जुन देव जी द्वारा रचित वाणी ने भी संतप्त मानवता को शांति का सुखद संदेश दिया। सुखमनी साहिब उनकी अमर-वाणी है। इसमें साधना, नाम-सुमिरन तथा उसके प्रभावों, सेवा और त्याग, मानसिक दुख-सुख एवं मुक्ति की उन अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है, जिनकी प्राप्ति कर मानव अपार सुखोंकी उपलब्धि कर सकता है। सुखमनी शब्द अपने-आप में अर्थ-भरपूर है। मन को सुख देने वाली वाणी या फिर कहें कि सुखों की मणि।सुखमनी साहिब में चौबीस अष्टपदी हैं। सुखमनी साहिब राग गाउडी में रची गई रचना है। यह रचना सूत्रात्मक शैली की है। सुखमनी सुख अमृत प्रभु नामु।भगत जनां के मन बिसरामु।। जिसे करोड़ों भक्त दिन चढ़ते ही सुखमनी साहिब का सुमिरन पाठ कर शांति प्राप्त करते हैं। 

गुरु अर्जुन देव जी की वाणी की मूल- संवेदना प्रेम भक्ति से जुड़ी है। गुरमति-विचारधारा के प्रचार-प्रसार में गुरु जी की भूमिका अप्रतिम है। गुरु जी ने पंजाबी भाषा साहित्य एवं संस्कृति को जो अनुपम देन दी, उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। इस अवदान का पहला प्रमाण, गुरू ग्रंथ साहिब का संपादन है। इस तरह जहां एक ओर लगभग 600वर्षो की सांस्कृतिक गरिमा को पुन:सृजित किया गया, वहीं दूसरी ओर नवीन जीवन-मूल्यों की जो स्थापना हुई, उसी के कारण पंजाब में नवीन-युग का सूत्रपात भी हुआ और गुरूजी के प्रति महान सम्मान की भावना से प्रतिवर्ष 30 मई के दिन गुरु जी के शहीदी पर्व पर उन्हें अनूठे तरीके से याद करते हैं यानि हर आने जाने वाले को निस्वार्थ रूप से उस दिन ठंडा मीठा पानी पिलाकर अपने अनंत कोटि परमपूज्यनीय गुरूदेव अर्जुन देव जी को उस समय के लोगों की नफरत रूपी जलन से तपते तन को गरीबों को ठंडा मीठा जल मिलाकर ठंडक पहुंचे। यह सिक्खों का अपने आराध्य गुरूदेव को सम्मान देने की महान त्याग, क्षमा और प्रेम की अनंत आशावादी नीति है जिसके मूल में बदले का नहीं प्रेम और सेवा का मंत्र छिपा है। यही मानवीय नीति चरदी कला के नाम से विश्व विख्यात है और इसी धैर्य, प्रेम, क्षमा और सेवा को जीने का ही नाम कहीं ना कहीं आध्यात्म है। सच कहूँ तो यह आध्यात्म की परिभाषा नहीं है क्योंकि आध्यात्म बहुत विराट है और जिसे आध्यात्म को आत्मसात करने की कला आ गयी वही वाहे गुरूजी को समझ सकता है, वही अखंड भारतवर्ष की अखंड भारतीय संस्कृति को समझ सकता है। मेरा राष्ट्रहित में भारत सरकार से विनम्र निवेदन है कि ऐसे ही महान सतगुरू पुण्यात्माओं की गौरवगाथा बच्चों के पाठ्यक्रम में शामिल होनी चाहिए जिससे बच्चों में सात्विकता, स्व: में जागने की कला यानि आध्यात्म को आत्मसात करने व नैतिक मूल्यों के प्रति सजगता व हर प्राणी की रक्षा हेतु प्रेम, त्याग, धैर्य, निष्ठा, शांति और हिम्मत, शौर्य और राष्ट्रभक्ति की भावना बलवती रहे जिससेे उच्च चरित्रवान भारत का निर्माण हो सके।

-ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना 
पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, 

मेम्बर ऑफ स्क्रिप्ट राईटर ऐसोसिएसन मुम्बई 











                   ....    सतनाम श्री वाहे गुरू
🙏🙏🙏💐

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