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कविता : आकांक्षा



आकांक्षा
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इक श्वांस सी आती है
इक श्वांस सी जाती है
फिर धड़कनों में वो घुलकर
मेरी प्यास बढ़ाती है
मैं छूना चाहती हूं 
वह मन में छिप जाती है
आंखों को बंद करूं तो
सपनों में मुस्काती है
मैं लिखना चाहूँ तो 
वो शब्दों में उलझती है
मैं निहारना चाहूं तो
कागज पर उकरती है
मैं गुनगुना चाहूँ तो
हृदय में झनकती है
सीने से लगा लूं तो
कविता बन जाती है
मैंने पूछा है उससे नाम
सुकांक्षा बतलाती है। 
यह मेरा ही अक्स है
वजूद अपना बतलाती है
मेरे जीवन की नींदें लूटीं
मुझे लेखक कहलवाती है
मैंने कहा तुम हो कविता
प्रेम की परिभाषा तुमसे
कहने लगी मुझसे 
तुम भी रचो प्रेम भाषा
यह काम नहीं आसां
दीवानों की बस्ती में 
मैं अकेली मस्तानी हूं 
नाम मेरा आकांक्षा 
मैें खुद की दीवानी हूं।

-ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना



                                💐🙏

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