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ऐ! धूप तू धूप नहीं

 


गुजरने दे धूप मुझमें भी मुझसे भी... हर कोने से हर झरोखे से... तपने ने, झुलसने ने, सुलगने ने ताकि लोगों पर अंधविश्वास रूपी नमी पूरी तरह सूख जाये.. और दर्दरूपी चुगलखोरी के खटमलों से मुक्ति मिले। सच कहतीं हूँ ऐ! धूप तुझे हक है कि तू गुजर हर रंध्र से हर रोम से हर याद से हर तरह के खोल और अनेकों मुखौटों को चीरते हुए कि जिनके कारण सत्य दबा, दबा सा मरा मरा सा सींकचों से बाहर अंतहीन सूनेपन से कराहता हुआ ताकता है कि कब कोई धूप की अल्हड़ किरण मुझे छूकर मुक्त कर दे और मैं अस्तित्व में स्थिरतत्व को पा सकूं। हाँ! मैं जो हूँ उसमें निष्कंटक साक्षी हो लूं। ऐ! धूप तू मुझमें गुजर एक संस्कारी लड़की की तरह नही बल्कि बेहया की तरह कि मैं भी तेरा हर कोना हर पहलू का किरदार हो सकूं। तुम मैं हो सके और मैं तू हो सके। ऐ! धूप तू तन बन सके मैं स्पर्श हो जाऊं। देखूँ ही नहीं धुलूं तुझमें कि जान जाऊं तेरी अनंत स्वतंत्रता को विराटता को और ध्रुवधैर्य की पराकाष्ठा को कि तेरा स्वभाव परिधि पर गर्म है पर केन्द्र पर करूणा से द्रवित और ठंडा... तू नमी को हरती हुई दिखती है पर तू संक्रमण को हरती है। हाँ! हमारी इंद्रियां तेरी गलत खबर देती है। ऐ! धूप, तू! धूप है ही नही! तू तो सिर्फ़ छांव हैं... एक ऐसी छांव जो अवर्णनीय है। ऐ! धूप तू मुझमें गुजर एक सुसंस्कारी लड़की की तरह नहीं बल्कि हर संस्कार से परे बगीचा न होकर जंगल की तरह अल्हड़ होकर। हर कोड़ी की कोटि से परे अनंत से अनंत होकर। मुझे जानना है तेरा उदगम जहां गम को कोई गमन नहीं। ऐ! धूप तू धूप नहीं...... तू अनंत है। ऐ! धूप तुझे धूप कैसे कहूँ? 


_ब्लॉगर आकांक्षा सक्सेना 12:32 08/08/2023

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