विडम्बना देखो! कि श्रीलंका के वर्ष 2020 के मानव विकास सूचकांक यानी ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स के आंकड़ों में जहां भारत दुनिया में 0.645 अंक के साथ 131वें स्थान पर था, वहीं इस सूची में श्रीलंका 0.782 अंक के साथ 72वें स्थान पर था। यानी की दुनिया के 189 देशों की सूची में श्रीलंका भारत से बहुत ऊपर था। यहां आपको बता दें कि मानव विकास सूचकांक मानव विकास के 3 मूल मानदंडों यानी जीवन प्रत्याशा, शिक्षा और प्रति व्यक्ति आय में देशों की औसत उपलब्धि को मापता है। इसके आंकड़ों को देखा जाये तो वर्ष 2020 में श्रीलंका की प्रति व्यक्ति आय भी भारत से कहीं बहुत ज्यादा थी। विचारणीय तथ्य यह है कि ऐसी मजबूत स्थिति होने के बाद भी दो वर्षों में ही श्रीलंका में ऐसा क्या हुआ। इस पर देश-दुनिया के विशेषज्ञों के विचारों को देखें तो उन विचारों का मूल सार यह है कि श्रीलंका अपनी पतन फिल्म का स्वंय ही डायरेक्ट और लेखक है।दुनिया की माने तो श्रीलंका सरकार का लचर सिस्टम, वैचारिक कट्टरता, जनता के विचारों से दूरी, देश में बढ़ती बेरोजगारी, पैंशन बदहाली, साम्प्रदायिक उन्माद, सत्तासीनों के लिए प्रभावी स्वार्थी नीतियों के तथाकथित गद्दारों द्वारा, घोटाले, भ्रष्टाचार, परिवारवाद, सीमा से अधिक सम्पत्ति का गबन, अदूरदर्शिता के चलते जबर्दस्त आर्थिक संकट और चीन से लिये कर्ज को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।श्रीलंका के इस बेहद चिंताजनक हालात के लिए राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे और उनके भाई पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को जिम्मेदार माना जा रहा है, क्योंकि चंद दिनों पहले तक भी राजपक्षे बंधुओं व सत्ता का आनंद ले रहे उनके परिजनों से पक्ष, विपक्ष व सिस्टम के लोगों में से कोई भी प्रश्न या सरोकार नहीं रखता था। जिसके चलते लंबे समय से श्रीलंका के शासन व प्रशासन में ऊपर से नीचे तक पूरे तंत्र में देश व समाज के हित की जगह एक परिवार के प्रति गुलामी व्याप्त हो गयी थी और सिस्टम /मीडिया/बुद्धिजीवी वर्ग आदि ने सही व गलत निर्णय पर अपने विचार ना देकर के केवल राजपक्षे बंधुओं की हां - हां मिलाना जारी रखा। जिसकी वजह से शासक निरंकुश बेलगाम होते चले गये और राजनीतिक स्तर पर भ्रष्टाचार अपने चरम पर पहुंच गया था।
आज श्रीलंका दुनिया में एक उदाहरण बन गया है कि कैसे वहां के राजनीतिक लोगों, उनके परिजनों, ब्यूरोक्रेसी व सिस्टम में बैठे चंद लोगों ने भ्रष्टाचार के दम पर देश की मजबूत जड़ों को अपने ही हाथों से नोच डाला। अब श्रीलंका के सिस्टम के सामने लोगों का पेट भरने की समस्या के साथ-साथ देश में विभिन्न प्रकार की सामाजिक, आर्थिक और शासन-प्रशासन महिला सुरक्षा, स्वास्थ्य संबंधी गंभीर चुनौतियां सुरसा की तरह मुँह फाँड़ें खड़ी हैं, जिसके फलस्वरूप श्रीलंका में बहुत बड़े स्तर पर युवा जन विद्रोह हो गया है। कुछ युवा आंदोलन कारी वहां के राष्ट्रपति भवन में घुस कर मंहगे गद्दों पर कूदते दिखे थे।
सच तो यह है कि श्रीलंका के युवा वहां के गद्दे पर नहीं बल्कि वहां के भ्रष्ट शासन के सीने पर कूद रहे थे। भई! कूदे भी क्यों नहीं क्योंकि श्रीलंकाई सरकार की विभिन्न ग़लत नीतियों के चलते ही देश पर 51 बिलियन डॉलर का बहुत भारी-भरकम कर्ज हो गया है। हालात यह हो गये हैं कि श्रीलंका की सरकार इसका ब्याज तक भी चुकाने में पूर्णतः नाकाम है। बता दें कि श्रीलंका के राजनायिकों ने अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने की जगह बड़े स्तर पर अपनी तिजोरी भरने की महत्वाकांक्षा पर काम किया। वहीं सत्ता पाने के लालच में वर्ष 2019 में अपनी फ्री स्कीम के चलते टैक्स की दरों में 15 फीसदी की भारी कटौती कर दी, जिसके चलते अचानक से ही श्रीलंका सरकार की प्रति वर्ष आय में लगभग 60 हजार करोड़ रुपये का भारी भरकम कटौती दर्ज की गई । यह सब जानकर-देखकर भी यानि लंका की लंका लगते देखकर भी श्रीलंका सरकार अपने कम्फर्ट जोन में मस्त रही और जनता के प्रति संवेदनहीन रही। परिणामस्वरूप लंका की लंका लग गयी। वहीं, मासूम जनता बिन अपराध के सजा भुगतने को विवश रही।
आज श्रीलंका में एक तरफ तो खाद्यान्न वस्तुओं की जबरदस्त महंगाई ने वहां के सभी लोगों की कमर तोड़कर रख दी है, वहीं दूसरी तरफ देश की बेहद खस्ताहाल आर्थिक स्थिति के लेखा-जोखा ने श्रीलंका व दुनिया के अर्थशास्त्रियों व उसके सभी मददगार देशों की चिंता बढ़ा दी है। श्रीलंका में आलम यह हो गया है कि ईंधन, गैसोलीन व खाद्यान्नों आदि की कमी की वजह से लोगों को दो वक्त की रोटी खाने के भी अब तो लाले पड़ गये हैं। हालांकि वैसे देखा जाये तो श्रीलंका को एक उष्णकटिबंधीय देश होने के चलते खाद्यान्न की वस्तुओं के लिए कभी भी बहुत ज्यादा दूसरे देशों पर निर्भर नहीं होना चाहिए था, लेकिन वहां की बदनीति व्यवस्था ने कभी इस पर विचार ही नहीं किया।देश को बर्बाद करने में राजपक्षे सरकार पर दुनिया में पहला पूर्ण रूप से 100 फीसदी जैविक खेती करने वाला देश श्रीलंका को बनाने की बिना पूर्व तैयारी की महत्वाकांक्षा ने प्रतिकूल परिणाम दिया। उन्होंने वर्ष 2021 में अपने जैविक खेती के सपने को पूरा करने के लिए रासायनिक उर्वरकों के देश में आयात करने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिए। जबकि जिस देश की 90 फीसदी से अधिक खेती पूर्णतः रासायनिक उर्वरकों पर निर्भर हो वहां पर बिना किसी चरणबद्ध तरीके के रासायनिक उर्वरकों पर अचानक से ही प्रतिबंध लगा देना थोड़ा जल्दबाजी भरा कदम साबित हुआ। क्योंकि देश में अचानक ही जैविक खेती पर जोर दिए जाने से आगामी तीन-चार वर्षों में फसलों की उपज की मात्रा में भारी कमी आना तय होता है। श्रीलंका के हठधर्मी हुक्मरानों के इस निर्णय से श्रीलंका व दुनिया के अन्य देशों के अर्थशास्त्री भी अचंभित थे। इसका सीधा असर तत्काल ही खाद्यान्न की वस्तुओं के उत्पादन पर जबरदस्त रूप से पड़ने लग गया था।
वहीं यूक्रेन व रूस का युद्ध शुरू होने के चलते दुनिया में वैसे ही ईंधन व खाद्यान्न की सभी वस्तुओं के मूल्यों में अचानक भारी बढ़ोत्तरी हुई, जिसके चलते पेट भरने के लिए जरूरी वस्तुओं की कीमतें पूरी दुनिया में चंद दिनों में ही 60 फीसदी तक मंहगी होकर अंतरिक्ष नाप गयीं। तब श्रीलंकाईयों को ईंधन, दूध, चावल आदि तक भी बहुत महंगी दरों पर मिलने लगा।
श्रीलंकाई सरकार के एक ग़लत निर्णय के चलते वहां पर अचानक ही स्थिति ऐसी बन गयी कि देश के आयात व निर्यात के संतुलन के बीच एक बहुत बड़ा फासला बन गया, जिसके कारण से सरकार के पास विदेशी मुद्रा का कोष बहुत तेजी के साथ खत्म होने लगा। उसका अंतिम परिणाम यह हुआ कि आज श्रीलंका के नागरिक अनेकों असुविधाओं के चलते भूखों मरने के लिए मजबूर हो गये। अब संयुक्त राष्ट्र संघ के वर्ल्ड फूड प्रोग्राम के आंकड़े यह दर्शा रहे हैं कि 10 में 9 श्रीलंकाई परिवार एक समय का भोजन त्याग कर अपना व अपने परिजनों को पालने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जिसकी वजह से श्रीलंका में आजकल अराजकता की ऐसी भयावह स्थिति हो गयी है कि राष्ट्रपति भवन पर श्रीलंका की आम जनता का पूर्णतः कब्जा हो गया है। राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे देश छोड़कर भागने में सफल हो गये हैं, वह मालदीव में कहीं सुरक्षित जगह पर छिप गये हैं। वहीं फिलहाल श्रीलंका के पास 25 मिलिय़न डॉलर मात्र का विदेशी मुद्रा भंडार बचा है, जो कि रोजमर्रा की जरूरतमंद वस्तुओं के आयात के लिए ऊंठ ते मुंह में जीरे के समान है, जिसकी वजह से श्रीलंका ईंधन, दवाई, खाद्यान्न आदि जैसी रोजमर्रा की जरूरत की तमाम वस्तुओं का भी अब आयात-निर्यात करने की स्थिति में नहीं है। देश में पेट्रोल-डीजल की कीमतें आसमान छू रही हैं, ईंधन का स्टॉक पूरी तरह से खत्म होने की कगार पर है। हालत यह है कि , जरूरी समय के लिए बिजली और फ्यूल को बचाने के लिए अब स्कूल और अनेकों ऑफिस तक को बंद कराया जा रहा है।
अब इस बेहद संवेदनशील आर्थिक परिस्थिति के कारण श्रीलंका की मुद्रा का 80 फीसदी तक अवमूल्यन हो चुका है, एक अमेरिकी डॉलर अब लगभग 360.65 श्रीलंकाई रुपए तक का हो गया है। बता दें कि 2009 तक दशकों लंबे चले गृहयुद्ध को झेल चुका श्रीलंका अब पुनः गृहयुद्ध के तीखे नाखूनों पर खड़ा होकर अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्षरत है।
अब कुछ लोग सोच रहे होगें कि श्रीलंका की इस हालत में तो भारत को श्रीलंका को गोद ले लेना चाहिए या अपना आधिपत्य जमा लेना चाहिए तो धार्मिक एंगल यह है कि जब भगवान श्री राम ने रावण वध के बाद श्रीलंका पर अपना आधिपत्य नहीं जमाया, उसे रावण के भाई विभीषण को ही सौंप दिया तो भारत की संस्कृति के प्रतिनिधि हमारे देश के प्रधानमंत्री मोदी जी, कैसे श्रीलंका को ऐसी स्थिति में बदनीयती से कब्ज़ा करने की सोच सकते हैं बस यही तो फर्क़ है तालिबानी और हिन्दुस्तानी में, भारतीय संस्कृति मदद की परिचायक है हड़प की नहीं। और जितना हो पा रहा है भारत सरकार अपनी कुशल विदेश नीति के तहत यथासंभव लंकावासियों की मदद करने में संकल्पित हैं।
हालांकि दुनिया के अर्थशास्त्रियों को श्रीलंका के पुनः अपने पैरों पर खडे होने की पूरी उम्मीद है, क्योंकि श्रीलंका के हिस्से में दुनिया का एक बहुत ही व्यस्त समुद्री मार्ग आता है, जोकि भविष्य में उसकी अर्थव्यवस्था में ऑक्सीजन का काम कर सकता है।पर तब जब लंका में अखंड देशभक्त पवित्र हृदय वाला दूरदर्शी, ईमानदार, काबिल नेता सेवा की भावना से आकार ले और विराजे, तब ही लंका लगी लंका को उबारा जा सकेगा। फिलहाल हम सब 15 अगस्त 2022 को स्वतंत्रता के 75 साल पूरे करके 76 वां स्वतंत्रता दिवस का अमृत महोत्सव मना रहे हैं जिस पर सच की दस्तक के माध्यम से हम यही कहेगें कि मथों अपने मन को करो मंथन और स्वंय ही निकाल फेंको सम्पूर्ण वैमनस्यता के विष को कि तुम भी परमात्मा के पुत्र हो, बहा डालों अमृत की गंगा और करो देश ऐर विश्व का उत्थान कि तुम्हीं हो वो जिसे कहते 'भारत' 'भारतवर्ष' । जय हिंद वंदेमातरम्।
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